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आज का संस्करण

नई दिल्ली, 5 दिसंबर 2023

अनूप श्रीवास्तव

चाहे हेड पड़े,

या फिर टेल.

कोई फर्क नहीं पड़ता,

किसी के भी हाथ रहे,

सत्ता की नकेल!

जनता के तो,

हाथ लगनी है हर हाल में ,

सिर्फ बैठे- ठाले की दलेल.

 

एक ,सत्तासीन होकर,

कुर्सी पर टेक लगाकर,

टुकुर टुकुर देखता है-

 

खुद पर ईमानदारी का,

ठप्पा लगाकर-

अपनी असहायता का,

बोध कराता है.

और दूसरा होहल्ला मचाकर,

अंदर बाहर शोर मचाता है

कुर्सी के डंडों को हिलाता है,

और फिर गैरो की तरह

बैठे ठाले का भत्ता लेकर,

ठंडे बस्ते में चला जाता है.

 

चाहे पक्ष हो या प्रतिपक्ष,

सत्ता की दलाली में,

दोनों ही उभय पक्ष हैं.

इसका मतलब ,

पूरी तरह से साफ है-

सत्ता दरसल दो मुंहा सांप है.

 

एक नागनाथ ,

तो दूसरा सांपनाथ है.

और सत्ता की पारसमणि,,,,,,,

झटके बिना अनाथ हैं.

 

भटष्टाचार की बांबी में,

दोनों ही पाते पनाह हैं.

लेकिन इन सबक,

अलग अलग भूमिका है.

 एक कराता -वाह! वाह! है!

तो दूसरा करता,

फटेहाल वाह- वाह है !

 

राजतंत्र हो या प्रजातंत्र,

हर बार हमें दोनों के

तंत्र धोखा दे जाते हैं.

क्योंकि वे बारी बारी से,

एक दूसरे का मुखौटा लगाते हैं.

 

लोकनायक ने लड़ी थी

दूसरी तरह की,

एक और आज़ादी.

लेकिन क्या इससे,

रुक पायी हमारी बर्बादी?

 

हम सबने देखा-

उसके बाद क्या हुआ,

सिर्फ हक्की हुआ ?

 

अलीबाबा और चालीस चोर का,

किस्सा और था,

 ज़माना और था.

 

अब तो चारों तरफ,

 चोर ही चोर हैं.

जिन्हें बेमानी में,

ईमानदारी की तलाश है

वे अब हर फार्मूले के साथ हैं.

 

सत्ता तो सत्ता है,

वह बड़े बड़ों को-

लपेटने का हुनर जानती है

 

किसको कितने कदम

साथ रखना है अथवा

कितनी दूर ले जाना है

यह खेल  बेहद पुराना है

खेल चलता रहता है

सिर्फ खिलाड़ी बदल जाता है.

 

खिलाड़ी कितना भी

दमदार हो,वजनदार हो,

खिलाड़ी कितनी देर पाले में रहेगा

यह खिलाड़ी नही पाला तय करेगा

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