आम भारतीय के पास वक़्त गुज़ारी के लिए क्रिकेट, फ़िल्में और राजनीति के सिवा कुछ नहीं है। ये तीनों चीज़ें उसे मोबाइल पर मिल जाती हैं इसलिए वह अपना ग़म कम करने के लिए उनसे टाइम पास करता रहता है। एक ज़माने में क्रिकेट मैच पाँच दिनों तक चलता था और इसके बावजूद बिना किसी परिणाम के ड्रा हो जाया करता था। फ़िलहाल पाँच घंटों के अंदर सब कुछ निमट जाता है और मैच ड्रा भी नहीं होता। पुराने ज़माने में मैच ड्रा करने की ज़रूरत दो कारणों से पड़ती थी। अव्वल तो विरोधी टीम का लक्ष्य बहुत ज़्यादा होने पर और दूसरे अपने बल्लेबाज़ों के कम रन पर आउट हो जाने की स्थिति में। इस बार संसद भवन में यही हुआ। इंडिया मोर्चे के कई खिलाड़ियों ने मसलन राहुल गाँधी, अखिलेश यादव, मल्लिकार्जुन खड़गे, महुआ मोइत्रा, कल्याण बनर्जी, असदुद्दीन उवैसी और इमरान प्रताप गढ़ी वग़ैरा ने अपनी भाषण-कला से रनों का ढेर लगा दिया, जबकि बीजेपी का कोई बल्लेबाज़ पिच पर जम ही नहीं पाया। जन साधारण से पूछा जाए कि सदन में राजनाथ सिंह, अमित शाह, शिवराज सिंह चौहान, किरण रिजिजू और भूपेंद्र यादव ने क्या कहा, तो लोग सिर्फ़ उनके राहुल गाँधी पर एतिराज़ का हवाला देंगे। कोई नहीं जानता कि मोदी के अलावा बीजेपी के किसी नेता ने अपने भाषण में क्या कहा? आलम यह कि—
सुकूत छाया है इंसानियत की क़द्रों पर
यही है मौक़ए-इज़हार आओ सच बोलें
लेख एक नज़र में
यह लेख संसद में हुए राजनीतिक घटनाओं के बारे में लिखे गए हैं। लेखक राहुल गांधी के भाषण को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण से बेहतर मानते हैं और संसद में उनकी विजय की प्रेम कहते हैं।
वे मोदी को अपने समापन भाषण में झूठ बोलने का आरोप लगाते हैं और उन्हें अपने पद से हटने की मांग करते हैं।
लेखक मोदी को संसद में दस साल गुज़ारने के बाद भी शब्द 'झूठ' का प्रयोग नहीं करने की जानकारी देते हैं। लेख संसद भवन में हुए घटनाओं के साथ-साथ सोशल मीडिया और मोदी मीडिया में राहुल गांधी की लोकप्रियता की बात भी मेंशन करता है।
सुकूत (यानी चुप्पी) के इस घुटन भरे सन्नाटे में टीम को हार से बचाकर मैच ड्रा करने का सारा बोझ प्रधानमंत्री के कमज़ोर कंधों पर आ गया और इस उम्र में वह बेचारे करते भी तो क्या करते? लेकिन क़तील शिफ़ाई के मशवरे पर अमल करते हुए सच तो बोल ही सकते थे, लेकिन उनसे यह नहीं हो सका। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने टेस्ट मैच के अंदाज़ में लंबी पारी खेलकर मैच को ड्रा तो कर दिया, मगर इस दौरान न सिर्फ़ संसद भवन में बैठे दर्शक बोर होते रहे, बल्कि मोबाइल और टेलीविज़न पर उन्हें देखनेवाले भक्त भी ऊब गए। एक थके-माँदे खिलाड़ी को धीमे-धीमे पानी पी-पीकर कई गेंदों के बाद एक दो रन लेते हुए देखना और इसपर ताली बजाना कैसा अज़ाबे-जान है, इसका नज़ारा संसद भवन के अंदर और बाहर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण के दौरान हुआ। वह लगातार बोले जा रहे थे और सुननेवालों को ऐसा लग रहा था कि उनका ब्रेक फ़ेल हो गया है। अब इस बस को रोकने के लिए उसे किसी पेड़ या दीवार से टकराना ज़रूरी है, वर्ना वह अपने बेबस मुसाफ़िरों समेत किसी गहरी खाई में जाकर गिर जाएगी।
प्रधानमंत्री की धीमी आँच पर (स्लो मोशन में) लम्बे-चौड़े भाषण को देखकर सुनील गावसकर की याद आ गई। वह टेस्ट मैच के बहुत अच्छे खिलाड़ी थे। सबसे ज़्यादा सेंचुरी बनाने का रिकार्ड उनके नाम था, मगर जब वन-डे का ज़माना आया तो उनका पिच पर टिकना भारतीय टीम की शिकस्त का परवाना बन जाता था। इसलिए कि वहाँ धड़ा-धड़ रन बनाने की ज़रूरत होती थी और वह धीमे-धीमे खेलकर अपनी टीम को हरवा देते थे। आगे चलकर एक ऐसा ज़माना भी आया कि जब गावसकर के प्रशंसक तथा अन्य शौक़ीन उनके आउट होने की दुआ करते थे। प्रधानमंत्री के साथ भी यही हो रहा है। उन्होंने दुनिया-भर में फैले हुए मोदी भत्तों को इतना बोर कर दिया है कि अब वह आउट होने के बजाय सेवानिवृत होने की तमन्ना करने लगे हैं। संघ परिवार चाहता है कि बड़े मियाँ जल्द से जल्द अपना झोला उठाकर ‘मार्गदर्शक मंडल’ में चले जाएँ वर्ना उनकी टीम का फ़ाइनल जीतना तो दूर टूर्नामेंट में क्वालिफ़ाई करना मुश्किल हो जाएगा।
सच तो यह है कि मोदी के रिटायरमेंट से बीजेपी को जहाँ ख़ुशी होगी वहीं काँग्रेस को अफ़सोस होगा। इसलिए कि अगर मोदी नहीं रहेंगे तो संसद भवन में काँग्रेस और राहुल गाँधी पर इतना वक़्त कौन ख़र्च करेगा? कहावत मशहूर है ‘बदनाम अगर होंगे तो क्या नाम न होगा?’ इस कहावत के मुताबिक़ प्रधानमंत्री ने अपने सबसे पहले दुश्मन का ख़ूब रोना रो-रोकर उसे फिर से चर्चा कि विषय बना दिया। इस दौर में जहाँ झूठ बोलना बहुत आसान है वहीं उसका पोल खोलना भी बहुत सरल है। एक जागरूक इंसान ख़ुद ही गूगल की मदद से हक़ीक़त तक पहुँच जाता है और अन्य लोग भी वीडियो और रील बनाकर उसके लिए सुविधा जुटा देते हैं। मोदी जैसे लोगों की बातों पर यह ज़रूरत इसलिए बहुत ज़्यादा महसूस होती है क्योंकि वह सच के बाज़ार में झूठ बेचते हैं। इसके विपरीत विपक्ष के भाषणों का मामला क़तील शिफ़ाई के इस शेर की तरह है—
खुला है झूट का बाज़ार आओ सच बोलें
न हो बला से ख़रीदार आओ सच बोलें
प्रधानमंत्री को अपने समापन भाषण में दो काम करने थे। अव्वल तो इस समापन भाषण पर धन्यवाद देना जो उनकी मर्ज़ी पर राष्ट्रपति ने पढ़कर सुनाया था और दूसरे विपक्ष की आपत्तियों का जवाब देना। राहुल गाँधी के भाषण ने प्रधानमंत्री महोदय को इतना परेशान कर दिया कि वह अपनी दोनों ज़िम्मेदारियाँ भूल गए। उनको यह एहसास भी नहीं रहा कि संसद भवन चुनावी भाषण करने का स्थान नहीं है। उनसे दूसरी ग़लती यह हुई कि उन्होंने राहुल के भाषण से उन बातों को निकलवा दिया जो उनके ख़याल में विवादित थीं। वो चीज़ें अगर संसदीय कार्रवाई में मौजूद होतीं तो उनके जवाब का औचित्य भी मौजूद होता, मगर स्पीकर की मदद से राहुल गाँधी के भाषण में से, हिंदू राष्ट्र, आरएसएस, भारतीय जनता पार्टी और अडानी तथा अंबानी की आलोचना की सारी बातें निकलवालने के बाद उसकी आलोचना करना निरर्थक प्रयास था। निकाली गई बातों पर टिप्पणी करके मोदी ने अकारण ही अपना और दूसरों का वक़्त बरबाद किया। इस मामले में प्रधानमंत्री ने जल्दबाज़ी करके अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार ली। यह उम्र का तक़ाज़ा है, क्योंकि एक ख़ास वक़्त के बाद दिमाग़ काम नहीं करता।
संसद भवन में राहुल गाँधी का अनुभव नरेंद्र मोदी से कहीं ज़्यादा है। उन्होंने कई मामलों में प्रधानमंत्री पर वरीयता प्राप्त कर ली है। अव्वल तो वह उत्तर प्रदेश सहित केरल से मोदी की तुलना में दोगुने वोट के फ़र्क़ से सफल होकर संसद भवन में गए हैं। इस बार लोकसभा में उनकी पार्टी के सदस्यों की तादाद लगभग दोगुनी हो गई है जबकि मोदी की बीजेपी के सदस्य बीस प्रतिशत कम हुए हैं। सोशल मीडिया से लेकर मोदी मीडिया तक में राहुल गाँधी की लोकप्रियता में असाधारण वृद्धि हुई है और वह नरेंद्र मोदी से बहुत आगे निकल चुके हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का राहुल गाँधी के भाषण को बचकाना क़रार देना विपक्ष के नेता का अपमान है। यह ऐसा ही है जैसे कोई सदन में कह दे कि प्रधानमंत्री बुढ़ापे के कारण सठिया गए हैं। बड़ी उम्र की आड़ में दूसरों का मज़ाक़ उड़ाना ज़ुल्म है। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि विपक्ष के नेता की हैसियत कैबिनेट मिनिस्टर के बराबर है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह कहने का कोई हक़ नहीं है कि राहुल गाँधी अपने पद के योग्य नहीं हैं। यह काँग्रेस पार्टी का हक़ है कि वह किसको इस पद पर आसीन करे। यह हास्यास्पद बात है कि अपनी पार्टी के लोकसभा सदस्यों की बैठक बुलाकर उसमें अपने नेतृत्व की पुष्टि करवाने से डरनेवाला (कि कहीं नितिन गडकरी का नाम न आ जाए) दूसरों की योग्यता पर उंगली उठा रहा है। प्रधानमंत्री को संसद भवन में दस साल गुज़ारने के बाद भी यह नहीं पता चला कि वहाँ शब्द ‘झूठ’ का इस्तेमाल निषिद्धि है। उन्होंने लगभग चालीस बार इस शब्द को विभिन्न शैलियों में प्रयोग किया, जबकि उनके विरोधी ख़ुद उन्हें झूठों का सरदार कहकर पुकारते हैं। इसलिए प्रधानमंत्री के भाषण में से इस ग़ैर-संसदीय शब्द को निकाला जाना चाहिए। मोदी ने अपने भाषण में राहुल गाँधी की बातों को एक तरफ़ तो बचकाना कहा और फिर उनको संजीदगी से लेकर उसपर सख़्त कार्रवाई करने की माँग भी कर दी। वह भूल गए कि परिपक्व लोग बचकाना बातों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं।
प्रधानमंत्री की उपर्युक्त गीदड़ भभकी को गंभीरता से लेकर अगर कहीं ओम बिड़ला ने राहुल गाँधी से सदस्यता छीन ली तो मोदी को लेने के देने पड़ जाएँगे। वैसे भी सीएसडीएस सर्वे के मुताबिक़ मोदी की कर्मभूमि उत्तर प्रदेश में 36 प्रतिशत लोग राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं जबकि मोदी को इस पद पर देखने के ख़ाहिशमंद सिर्फ़ 32 प्रतिशत रह गए हैं। राहुल पर कार्रवाई उनकी लोकप्रियता को बहुत बढ़ा देगी। मोदी और राहुल के भाषण का मुहूर्त देखें तो प्रधानमंत्री के भाषण से ठीक पहले हाथरस के हादिसे में डेढ़ सौ लोग मृत्यु का ग्रास बन गए और देश भर में शोक की लहर छा गई। इसके विपरीत विपक्ष के नेता की हैसियत से राहुल गाँधी के भाषण से पहले 17 साल के बाद भारतीय टीम विश्व पदक जीत गई और आम लोगों के अंदर ख़ुशी की एक लहर चल गई। आज के ज़माने में अपना फ़र्ज़े-मंसबी (पदगत कर्तव्य) अदा करते हुए सच बोलने की ज़िम्मेदारी निभानेवालों पर यह शेर फ़िट बैठता है—
हमें गवाह बनाया है वक़्त ने अपना
बनाम अज़्मते-किरदार आओ सच बोलें
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