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आज का संस्करण

नई दिल्ली , 18 अप्रैल 2024

के. विक्रम राव

A person wearing glasses and a red shirt

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संपन्न उत्तरी यूरोप राष्ट्र नार्वे, एक विकसित राजतंत्र की गत दिनों बड़ी वैश्विक फजीहत हुई। सरकार की दो मंत्री श्रीमती सांद्रा बोर्स जो रिसर्च और उच्च शिक्षा विभाग संभालती हैं, तथा स्वास्थ्य मंत्री श्रीमती इंगविल्ड क्जेर्कोल को बेशर्मी से पदत्याग करना पड़ा। दोनों पर आरोप था कि उन्होंने अपनी थीसिस के लिए दूसरे छात्रों के शोधकार्य से चोरी की। आश्चर्य यह था कि सत्ता और शिक्षा का प्रशासन संभालने वाले सत्तासीन ने ही शैक्षिक तस्करी की। नार्वे की संसद में भी मसला उठा। छात्रों ने गंभीर गुस्सा प्रगट किया। हालांकि भारत में साहित्यिक चोरी तो आम बात है। दंड से लोग बहुधा बच जाते हैं।

ऐसी बौद्धिक उठाईगिरी शतप्रतिशत चोरी है। ऊंचे स्तर की राहजनी है। बिना मशक्कत के फल की कामना है। ठीक जमींदार जैसा जो खेतिहर श्रमिक का शोषण करता है। अब इन महिला मंत्री, वह भी रिसर्च और शिक्षा की, ऐसी ओंछी हरकत करें ? अक्षम्य ही न है, कठिन दंड की भागी हैं। कई भारतीय विश्वविद्यालय में तो डाक्ट्रेट रिसर्च की थीसिस की चोरी आम बात है। ऐसे चोरी के



लेख एक नज़र में

नार्वे: महिला मंत्री साहित्यिक चोरी के आरोप में पड़े नार्वे की दो महिला मंत्री, सांद्रा बोर्स और ईंगविल्ड क्जेर्कोल, साहित्यिक चोरी के आरोप में पड़े हैं।

वे अपनी थीसिस में दूसरे छात्रों के शोध से चुराए गए हैं। संसद में भी मसला उठा और छात्रों ने गंभीर गुस्सा प्रकट किया। यह विपक्षित रूप से एक बौद्धिक उठाईगिरी है।

साहित्यिक चोरी को किसी व्यक्ति का विचारों या शब्दों का अपना मानना और किसी मौजूदा स्रोत से प्राप्त विचार या उत्पाद को नए रूप में प्रस्तुत करना है। किंवदन्तु इसमें भी दंड होता है। साहित्यिक चोरी के आरोप लगने के बाद कभी एक कनाडाई शिक्षक को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा।



अभियुक्त साधारण नहीं, ऊंचे लोग भी हैं।

विचार कर लें कि साहित्यिक चोरी क्या है ? दूसरे के विचारों या शब्दों को अपना मानना, स्रोत को श्रेय दिए बिना उपयोग करना और किसी मौजूदा स्रोत से प्राप्त विचार या उत्पाद को नए और मौलिक के रूप में प्रस्तुत करना।

अमेरिका की प्रथम महिला मेलानिया ट्रम्प से लेकर पूर्व उपराष्ट्रपति और वर्तमान डेमोक्रेटिक प्राथमिक उम्मीदवार जो बिडेन तक, साहित्यिक चोरी करते हुए पकड़े गए। साहित्यिक चोरी के 'वास्तविक जीवन' में बहुत कम या कोई परिणाम नहीं होते हैं। इसके ख़िलाफ़ कोई क़ानून नहीं है। केवल अपमानजनक टिप्पणी, नकारात्मक और शर्म ही है।

लेकिन शिक्षा जगत में अमूमन ऐसा नहीं होता है। साहित्यिक चोरी के परिणाम, जो शैक्षणिक नैतिकता का उल्लंघन है, गंभीर सजा हो सकती है, जिसमें कक्षाओं में असफल होना और डिग्री रद्द करना शामिल है। उदाहरण के लिए, साहित्यिक चोरी के आरोप लगने के बाद एक कनाडाई शिक्षक को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा। उसकी पीएचडी रद्द कर दी गई। अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद में नौकरी के लिए नामित एक व्यक्ति ने उस समय अपना नाम वापस ले लिया जब उसकी पीएचडी थीसिस में साहित्यिक चोरी का पता चला।

यहां मेरा अभिप्राय भी मेरे कई लेखों की निंदनीय चोरी से है। यह एक अति गंभीर बौद्धिक तथा शैक्षणिक गुनाह है। इसके वर्गीकृत अपराध हैं : हार्वर्ड के 2006 में एक स्नातक ने एक पुस्तक प्रकाशित की जो "न्यूयॉर्क टाइम्स" की सर्वाधिक पठनीय वाली सूची में काफी ऊपर आ गई। मगर जब पता चला कि उसके कई हिस्से दूसरी पुस्तकों से चुराए गए हैं तब वह लेखिका गुमनामी के अंधेरे में खो गई। ऐसा सिर्फ पत्रकारों के साथ नहीं है। भविष्य में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में देखे जाने वाले अमेरिका के एक उभरते हुए सासंद ने मूर्खता के कारण अपने सारे अवसर खो दिये। उन्होंने बराक ओबामा के भाषण को अपना बताकर दर्शकों के सामने हूबहू दोहरा दिया।

मगर मेरे निजी अनुभव में एक बड़ी विकराल दगाबाजी हो गई, गाजियाबाद की पत्रिका "पब्लिक एशिया" के संपादक ने मेरा लेख हूबहू शतप्रतिशत जैसा छाप दिया। बस मेरा नाम काटकर अपना नाम लिख। मेरे फोन पर जब मैंने बहुत डांटा और चोरी के जुर्म में लखनऊ पुलिस को भेजने की चेतावनी दी तो पहले तो प्रमाण मांगने लगे। बाद में डरकर माफी मांगने लगे।

मेरा लेख था मंदिर और मजार बनाकर फुटपाथ कब्जियाना। लखनऊ सचिवालय के ठीक सामने बापू भवन के फाटक पर एक गैर कानूनी मंदिर बन गया था। मैंने पुलिस द्वारा उसे तुड़वाया क्योंकि यातायात बाधित हो रहा था।

फिर मैंने "पब्लिक एशिया" के संपादक का प्रमाण दिया। मैंने लिखा कि मुख्यमंत्री के सचिव नृपेन्द्र मिश्रा IAS ने मंदिर तुड़वाने हेतु मेरी शिकायत पर सहायता की थी। "पब्लिक एशिया" के संपादक डर गए कि नृपेन्द्र मिश्र उन्हें जानते ही नहीं। मदद की बात तो हुई नहीं। फिर उनका यह लेख कैसे हुआ ? बिजनौर के पत्रकार अशोक मधुप ने मेरी सहायता की थी। अंततः संपादक जी ने बेहतर समझ कि मुझसे माफी मांग ली। वर्ना हर सप्ताह उन्हें लखनऊ अदालत में आना पड़ता।

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