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अनूप श्रीवास्तव

A person with glasses and a blue shirt

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लखनऊ | गुरुवार | 29 अगस्त 2024

कुरुक्षेत्र धर्म का क्षेत्र था। लोग पीठ पीछे नहीं आमने-सामने लड़ते थे। पक्ष-विपक्ष में -एक तरफ कौरव तो दूसरी तरफ होते थे पांडव। अब जमाना क्या बदला कि सब बदल गया। राजनीति भी बदल गयी। अब कुरुक्षेत्र में यह भी पता नहीं लग पा रहा है कि कौन कौरव है कौन पांडव। कभी कौरव पांडव लगने लगते हैं और कभी पांडव कौरव । न कहीं धर्म रेखा खींची है न ही लक्ष्मण रेखा।  हतप्रभ और तटस्थ भूमिका में बेचारी 'आम जनता' है जिस पर जबरन धृतराष्ट्र का मुखौटा लगा दिया है। उसे जरूरत है एक अदद संजय की जो कहीं नजर नहीं आ रहा है। राष्ट्र किसका  पक्ष ले। उसे तो हर तरफ से घेर रखा है। नाम के लिए राजमोहर उसकी लगती है ।राज दूसरे करते हैं। लेकिन विपक्षभी कहाँ उसका अपना हैं। कोई हारे, कोई जीते। नुकसान हर हाल में उसी का है। गांधारी ने आंख होते हुए भी अपनी आंखों पर पट्टी बांध रखी है। घर में भी अंधेरा है।  बाहर भी अंधेरा है। शून्य महाशून्य बना रहा है।

 

संजय खुद निर्दलीय है। उसके चारों तरफ दल-दल है। उसे न तो रपटते बन रहा है ही संभलते। हालात ने उसकी सूझ-बूझ के पर कतर दिए हैं। धृतराष्ट्र से दूरी बनाकर  बोलना उसके लिए जरूरी नहीं, मजबूरी है। बदलती हुई निष्ठाओं के इस दौर में वह भ्रमित है। जो दिख रहा है वह है नहीं और जो नहीं है वह दिख रहा है। सारा परिदृष्य गड्ड-मड्ड हो रहा हैं। उसका अस्तित्व तभी तक है, जब तक कुरुक्षेत्र है। उसे पता है कि समाप्त होने के बाद भी खत्म होने वाला नहीं है। एक कुरुक्षेत्र के समाप्त होते ही दूसरा कुरुक्षेत्र शुरू हो जोयगा। कुरुक्षेत्र कामर्शियल फिल्म का हिस्सा नहीं लम्बा धारावाहिक है जिसकी भटकती कथावस्तु में कलाकार बदलते रहते हैं।          पहले कुरुक्षेत्र देश में एक  मैदान में होता था।अब हर प्रदेश में होता है। पांच राज्यों कुरुक्षेत्र निपटा नहीं कि  तीसरा कुरुक्षेत्र शुरू हो गया। कृष्ण दोहरी भूमिका में हैं। कभी सुप्रीम भूमिका में दिखाई देते है तो कभी  आयोग में  भी उनकी छाया पड़ती दिखती है । उनके हाथ में शंख के बजाय चुनावी घण्टी है। उनका  भीआयोग क्षेत्र है।   आयोग अब  किसी पर भीं कृपा करने के शेषनीय मूड मे नहीं है। न इस तरफ, न उस तरफ। सिरहाने  भी विकल्प नहीं है। इस बार अपनी अक्षौहिणी सेना से वे  रेफ्री का काम ले रहै हैं। उनकी सेना का सामान्य जवान भी अपने को स्वयंभू मानकर अपनी ड्यूटीकरने के मूड में है। कृष्ण  शिशुपाल   की गालियों को मुस्कराकर   बख्श रहे है। अभी सौवी गाली की गिनती में देर है।         

 

लेख एक नज़र में
कुरुक्षेत्र अब एक धर्म का क्षेत्र नहीं रहा, बल्कि एक राजनीतिक अखाड़ा बन गया है। यहाँ पर कौरव और पांडव की लड़ाई नहीं है, बल्कि एक दूसरे के खिलाफ लड़ाई है। आम जनता हतप्रभ और तटस्थ है, जिसके ऊपर जबरन धृतराष्ट्र का मुखौटा लगा दिया है।
राजनीति में निष्ठा और धर्म की कोई रेखा नहीं है, और सभी अपने स्वार्थ के लिए लड़ रहे हैं। कृष्ण की दोहरी भूमिका में हैं, और उनके हाथ में शंख के बजाय चुनावी घण्टी है।
 इस कुरुक्षेत्र में योद्धाओं के पास प्रतीकात्मक शस्त्र हैं, और सभी अपने अपने एजेंडे के लिए लड़ रहे हैं। यहाँ पर कोई नहीं जानता कि कौन कौरव है और कौन पांडव।

 

आज के इस कुरुक्षेत्र में योद्धाओं के पास प्रतीकात्मक शस्त्र हैं। वे पौराणिक शस्त्रों से ज्यादा घातक और मारक हैं। साइकिल के निशाने पर हवाईजहाज है तो हाथ के पंजे में हाथीकी गर्दन।  कमल को दलदल से परहेज़ नही है ।उसके पास पावरफुल वाशिंग मशीन है।फूल काटों से ज्यादा नुकीले हैं। अजीबो-गरीब हथियारों के इस कुरुक्षेत्र के केंद में रखी कुर्सी चरमरा रही है। उसका भविष्य अनिश्चित है। पता नही कितने  दिन चल पायेगी।

  कुरुक्षेत्र में मामला पांच गांवों का नही कुछ खास कुर्सियों का है। इन।कुर्सियों  पर मुखौटे बैठते हैं। हर कुरुक्षेत्र के बाद मुखौटें बदल जाते हैं। खेल मुखौटो का है। सबका यही एजेंडे  है। कुछ बली है, कुछ महाबली है जिनकी किसी दल में नहीं चली वे निर्दलीय-गली में हैं। कुछ कुर्ता- धोती धारे हैं। कुछ अपने पैजामें तक की क्रीज़ संवारे हैं। कुछ सफारीसूट में हैं। जो ज्यादा उचक रहे हैं वे ही गजवेश में हैं।

     कुछ योद्धा लाक्षागृह से भी कुरुक्षेत्र के मैदान में हैं। वे अपने-अपने बैरकों से ही मोबाइल हैं। लाक्षागृह में रह रहे योद्धाओं का विचित्र हाव- भाव है।कुल मिलाकर इस कुरुक्षेत्र से भी कुछ खास होना-वोना नहीं है।  जो होना है वह पहले से तय है।   सभी असमंजस में हैं कि यह कुरुक्षेत्र किसी का  पूर्ववत राजतिलक करवाएगा  अथवा पिछले अनुभवों की तरह इस फिर कोमा में चला जायेगा। फैसला हो भी गया तो हार के पाले में 'पांडव', हैं और जो जीत गया वही 'कौरव' हैं। यह टिप्पड़ी किसी और की नही उनके सबके मन की है। हर पल स्क्रिप्ट बदल रही है। लोकतंत्र के रंगमंच पर सभी ने अपनी अपनी भूमिका सम्भाल रखी है। लाक्षागृह बाहर ही नही भीतर भी है।

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