डोनाल्ड ट्रम्प ने एकतरफा व्यापारिक रवैया अपनाते हुए पारंपरिक बहुपक्षीय व्यवस्था को चुनौती दी है। उनका मानना है कि अमेरिका के साथ जैसे व्यवहार दूसरे देश कर रहे हैं, वैसा ही अब अमेरिका भी उनके साथ करेगा। इससे वैश्विक नेताओं और राजनयिकों के लिए एक नया, कठिन दौर शुरू हो गया है।
विश्व व्यापार संगठन (WTO) जैसी संस्थाओं की भूमिका अब सवालों के घेरे में है। क्या बहुपक्षीयता की जगह अब एकतरफावाद ले लेगा? भारत जैसे विकासशील देश, जिनकी नीतियाँ WTO पर आधारित हैं, असमंजस में हैं। भारत पर आरोप है कि वह 52 प्रतिशत में से 50 प्रतिशत टैरिफ खुद लगा रहा है, और अब अमेरिका के नए पारस्परिक टैरिफ से यह दबाव और बढ़ गया है।
नए टैरिफ ऑटोमोबाइल और आईटी सेवाओं जैसे भारत के मजबूत निर्यात क्षेत्रों को प्रभावित कर सकते हैं। ट्रम्प सरकार ने तो अंटार्कटिका के पास स्थित निर्जन ज्वालामुखी द्वीपों जैसे मैकडोनाल्ड द्वीप पर भी 10 प्रतिशत टैरिफ लगा दिया, जहाँ से हर साल महज़ 15,000 से 325,000 डॉलर की मशीनरी अमेरिका को निर्यात होती थी।
ऑस्ट्रेलिया के अन्य द्वीप जैसे क्रिसमस द्वीप, नॉरफ़ॉक द्वीप और कोकोस द्वीप भी टैरिफ से प्रभावित हुए हैं। नॉरफ़ॉक द्वीप जैसे द्वीप, जिसकी आबादी सिर्फ 2000 है, को 29 प्रतिशत का टैरिफ देना पड़ रहा है। ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री एंथनी अल्बानीज़ ने अमेरिका की इस नीति पर तीखी प्रतिक्रिया दी और कहा कि अब “धरती पर कहीं भी सुरक्षित नहीं है।”
भारत इस स्थिति में अकेला नहीं है। उसे यह तय करना होगा कि क्या वह इस व्यवस्था के ढहने के बाद नई व्यवस्था की ओर आकर्षित होगा, और क्या वह नए व्यापारिक साझेदार ढूंढ पाएगा। अमेरिका की आर्थिक शक्ति अभी भी प्रभावशाली है, और भारत को कृषि और अन्य क्षेत्रों में कई रियायतें देने को मजबूर होना पड़ा है, चाहे ट्रम्प हो या बिडेन।
भारत, जिसने कभी गुटनिरपेक्ष आंदोलन का नेतृत्व किया, अब बहुपक्षीयता की स्थापना में पिछड़ रहा है। अब उसे एक स्पष्ट रणनीति की जरूरत है जिससे वह वैश्विक अराजकता से निपट सके। अमेरिका द्वारा 2 अप्रैल को “मुक्ति दिवस” घोषित करने के बाद 5 अप्रैल से सभी आयातों पर 10 प्रतिशत और 10 अप्रैल से 16 प्रतिशत अतिरिक्त शुल्क लागू किए गए हैं। यह भारत के निर्यात को गंभीर रूप से प्रभावित करेगा।
भारत का अमेरिका के साथ व्यापार अधिशेष 46 बिलियन डॉलर है। अमेरिका को भारत के प्रमुख निर्यातों में शामिल हैं:
इसके जवाब में भारत अमेरिकी वस्तुओं पर 23 बिलियन डॉलर की रियायतें कम कर सकता है। भारत अमेरिका से जिन वस्तुओं का आयात करता है, उनमें शामिल हैं:
इस व्यापार युद्ध का असर भारत की समग्र अर्थव्यवस्था, मुद्रा बाजार, निवेश और शेयर बाजार पर पड़ेगा। हालांकि कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत पर असर चीन (54% टैरिफ), वियतनाम (46%), थाईलैंड (36%), ताइवान और इंडोनेशिया (32%) की तुलना में कम होगा, लेकिन वास्तव में भारतीय उद्योगों को लागत कम करनी होगी और उत्पादों की कीमतें घटानी होंगी।
ऑटो और आईटी जैसे सेक्टर सबसे अधिक प्रभावित होंगे। टाटा मोटर्स (जगुआर लैंड रोवर की मालिक) के शेयरों में 5 प्रतिशत और सोना कॉमस्टार के शेयरों में 4 प्रतिशत की गिरावट देखी गई। दवा उद्योग पर भी दबाव बन सकता है, हालांकि फार्मा उत्पादों को फिलहाल टैरिफ से छूट मिली है।
इस्पात और कृषि पर भी नकारात्मक असर पड़ सकता है। शेयर बाजार में सबसे पहले इन क्षेत्रों पर असर देखने को मिल सकता है। आईटी और फार्मास्यूटिकल्स जैसे निर्यात-आधारित सेक्टरों में अस्थिरता आ सकती है। इससे वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाएँ प्रभावित हो सकती हैं। साथ ही, रुपये पर दबाव और FDI में गिरावट की आशंका है।
भारत की विदेश नीति को नए सिरे से दिशा देने की जरूरत है। 2022 में विदेश मंत्री द्वारा दिया गया वक्तव्य आज और भी अधिक प्रासंगिक लगता है:
“यह अमेरिका से जुड़ने, चीन को प्रबंधित करने, यूरोप को साधने, रूस को आश्वस्त करने, जापान को साथ लाने और पड़ोसियों को साथ लेकर चलने का समय है।”
आज व्यापार में विविधता लाने की जरूरत है। चीन एक संभावित साझेदार के रूप में उभर सकता है, और अमेरिका के साथ संबंधों को दुश्मनी की जगह संतुलन की ओर ले जाना होगा।
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