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आज का संस्करण

नई दिल्ली, 22 जनवरी 2024

सिद्धार्थ रामू

 

किसी भी लोकतांत्रिक एवं आधुनिक सॊच  के व्यक्ति के लिए २२ जनवरी राष्ट्रीय शर्म एवं शोक का दिवस होना चाहिए  क्योंकि  यह वह दिन है, जब भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्षता के  आवरण  का अंतिम संस्कार हुआ।

इसके साथ धर्मनिरपेक्षता के सभी मूल्यों को दफ्न कर दिया गया।

 

राममंदिर के ध्वज की पताका फहराने के साथ ही भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का संघ (आरएसएस) का करीब  100 वर्षो का पुराना स्वप्न भी पूरा हो गया।

 

 इस दिन अंतिम तौर पर देश के मुसलमानों को यह बता दिया  गया कि यह देश हिंदुओं का देश है, आप दोयम दर्जे के नागरिक हैं और आपकों हिंदुओं के रहमो-करम कर जीने के लिए पूरी तरह तैयार हो जाना चाहिए।

 

इस पूरे मामले में सबसे शर्मनाक है  धर्मनिरपेक्षता के इस अंतिम संस्कार में भारतीय लोकतंत्र के  तीन स्तंभों— कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया भूमिका। कार्यपालिका के प्रधान के तौर पर प्रधानमंत्री ने धर्मनिरपेक्षता का यह अंतिम संस्कार खुद अपने हाथों संपन्न कराया।

 

 सर्वोच्च न्यायपालिका तो हिंदू बहुमत की आस्थाओं का ख्याल करते हुए बाबरी मस्जिद को राममंदिर घोषित करके हिंदू राष्ट्र का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य पहले ही कर चुकी है, और मीडिया का जश्न तो देखते ही बन रहा है।

 

 सर्वोच्च न्यायालय ने आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और भाजपा के इस तर्क के आगे घुटने टेक दिए कि “बाबरी मस्जिद ही रामजन्मभूमि है या नहीं, यह प्रश्न तथ्य एवं तर्क का प्रश्न नहीं, बल्कि हिंदुओं की आस्था का प्रश्न है।” 9 नवबंर 2019 को पांच न्यायाधीशों की बेंच ने सर्वसम्मति से कहा कि  “हिंदू श्रद्धालुओं की आस्था और विश्वास के अनुसार विवादित स्थल भगवान राम का जन्मस्थान है।”

 

अपने निर्णय का आधार अदालत ने दस्तावेजों और मौखिक प्रमाणों को बनाया। अदालत ने कहा कि “इसलिए अंत में हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि हिंदुओं का यह आस्था और विश्वास है कि मस्जिद और उससे संबंधित अन्य चीजों के बनने से पहले यह स्थान भगवान राम का जन्मस्थान रहा है, जहां बाबरी मस्जिद बनाई गई। हिंदुओं की यह आस्था और विश्वास दस्तावेजों और मौखिक प्रमाणों से पुष्ट होता है।”

 

वैसे यह सबकुछ नया भी नहीं हैं। बाबरी मस्जिद में रातों-रात मूर्तियां रखने (22 दिसंबर 1949), ताला खोलने (1986), शिलान्यास की इजाजत (1989) देने और मस्जिद तोड़ने (6 दिसंबर 1992) में करीब-करीब कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया सभी किसी न किसी रूप में अपनी-अपनी भूमिका निभाती रही हैं।

 

नेहरू युग में मूर्ति रखी गई, राजीव गांधी की ताला खुलवाने और शिलान्यास की इजाजत देने में अहम भूमिका रही है, संघ-भाजपा के गुंडों ने मस्जिद तोड़ी और कांग्रेसी प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की मौन सहमति ने इसे अंजाम तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई। इस सब का जश्न मीडिया के बहुलांश हिस्से ने मनाया और न्यायपालिका ने भी अपनी भूमिका चढ़-बढ़ कर निभाई।

 

 

भले ही यह तथ्य कितना भी  दुखद लगे, लेकिन सबसे शर्मनाक  बात यह है कि बाबरी मस्जिद को धीरे-धीरे राममंदिर में बदलने की 73 वर्षों की यात्रा को भारतीय जनता के भी एक बड़े हिस्से का समर्थन प्राप्त होता रहा है और आज भी प्राप्त है।

 

भाजपा के उभार, विस्तार और भारी बहुमत के साथ सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने में राममंदिर आंदोलन की एक अहम भूमिका रही है। जनता का यह बहुमत कैसे और किस तरह प्राप्त किया गया है, यह बहस का विषय हो सकता है, लेकिन कड़वा सत्य यही है कि जिस जनता में भारत की संप्रभुता निहित है और जिसके भरोसे लोकतंत्र के कायम रहने की उम्मीद की जाती है, उसके भी एक बड़े हिस्से का समर्थन और सक्रिय सहयोग धर्मनिपेक्षता के अंतिम संस्कार को प्राप्त है।

 

 शोक का एक अन्य कारण यह है कि राममंदिर  इस देश को प्रगतिशील, आधुनिक, लोकतांत्रिक , वॏज्ञऻनक सॊच और समता आधारित धर्मनिरपेक्ष देश बनाने के स्वप्न की भारी पराजय का दिवस है।

 

यह पराजय कितनी तात्कालिक या दीर्घकालिक है, यह तो भविष्य के गर्भ में है। लेकिन सच यह है कि आधुनिक लोकतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों पर आधारित धर्मनिरपेक्ष भारत की परियोजना का फिलहाल अंत हो गया है।

 

इसका प्रमाण यह है कि देश की सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं का हिंदूकरण हो चुका है और सभी ने बहुसंख्यकवाद की हिंदू परिजोयजना के सामने समर्पण कर दिया है। इसमें सत्ताधारी दल के साथ विपक्षी पार्टियां, बौद्धिक वर्ग का बड़ा हिस्सा, सर्वोच्च न्यायालय और मीडिया भी शामिल है। मीडिया का एक बड़ा हिस्सा तो हिंदू राष्ट्र का भोंपू ही बन गया है।

 

इसका निहितार्थ यह भी है कि आधुनिक लोकतांत्रिक भारत का स्वप्न देखने वाले उदारवादी, वामपंथी और बहुजन-दलित संगठनों-पार्टियों एवं समूहों की वैचारिक एवं राजनीतिक धाराएं फिलहाल पराजित हो चुकी हैं और हिंदुत्व के अश्वमेध का घोड़ा बेलगाम अपने विजय-अभियान पर निकला हुआ है। फिलहाल अभी तो कोई उसकी नकेल कसने वाला दिखाई नहीं दे रहा है और अधिकांश ने उसके सामने समर्पण कर दिया है।

 

फिर हिंदू राष्ट्र का मतलब सर्वण हिंदू मर्दों का राष्ट्र  है जो वर्ण-जातिवादी एवं पितृसत्तावादी राष्ट्र है। मुसलमानों एवं ईसाइयों के प्रति हिंदू राष्ट्रवादियों की घृणा हिंदू राष्ट्रवाद की विचारधारा की केवल ऊपरी सतह है। सच यह है कि हिंदू राष्ट्र जितना मुसलमानों या अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए खतरा है, उतना ही वह हिंदू धर्म का हिस्सा कही जानी वाली महिलाओं, अति पिछड़ों और दलितों के लिए भी खतरनाक है, जिन्हें हिंदू राष्ट्रवादी धर्म दोयम दर्जे का ठहराता है।

 

यह उन आदिवासियों के लिए भी उतना ही खतरनाक है, जो अपने प्राकृतिक धर्म का पालन करते हैं और काफी हद तक समता की जिंदगी जीते हैं, जिनका हिंदूकरण करने और वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता की असमानता की व्यवस्था के भीतर जिन्हें लाने की कोशिश संघ निरंतर कर रहा है। यह उसके हिंदू राष्ट्र की परियोजना का महत्वपूर्ण हिस्सा है।

 

इसीलिए डॉ. आंबेडकर हिंदू राष्ट्रवादी धर्म पर टिके हिंदू राष्ट्र को हर तरह की स्वतंत्रता, समता और बंधुता के लिए खतरा मानते थे और इसे पूर्णतया लोकतंत्र के खिलाफ मानते थे। डॉ. आंबेडकर के लिए हिंदू धर्म पर आधारित हिंदू राष्ट्र का निहितार्थ शूद्रों-अतिशूद्रों (आज के पिछड़ों-दलितों) पर द्विजों के वर्चस्व और नियंत्रण को स्वीकृति और महिलाओं पर पुरुषों के वर्चस्व और नियंत्रण को मान्यता प्रदान करना है। 

 

संघ के हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना के नायक राम हिंदू राष्ट्र के आधार स्तंभ हैं। राममंदिर आंदोलन का रथ हिंदू राष्ट्र के निर्माण का आंदोलन साबित हुआ। उसने जहां एक ओर भाजपा को चुनावी सफलता दिलाई, वहीं दूसरी ओर दलित-बहुजनों के उभार को नियंत्रित करने और उनका हिंदुत्वीकरण करने में मदद किया।

 

मंडल की राजनीति को नियंत्रित करने में कंमडल की राजनीति ने एक अहम भूमिका अदा किया। राम मंदिर आंदोलन के माध्यम से भाजपा ने कई निशाने एक साथ साधे। इस पूरे शोरगुल में कब देश को कार्पोरेट के हवाले कर दिया गया, यह गंभीर बहस-विमर्श का विषय नहीं बन पाया।

 

अकारण नहीं है कि जय श्रीराम का नारा भारत की सत्ता पर द्विजों के कब्जे का नारा बन गया है। इस नारे के माध्यम से संघ-भाजपा ने हिंदू राष्ट्र की अपनी कल्पना को साकार किया है। यह प्रच्छन्न तौर पर वर्ण-जाति व्यवस्था और स्त्रियों पर पुरुषों के प्रभुत्व का नारा भी बन गया है।

 

इस नारे ने गैर-हिंदुओं (मुसलमानों-ईसाइयों) को आधुनिक युग का राक्षस यानि म्लेच्छ घोषित कर दिया है और उनके सफाए के घोषित या अघोषित अभियान को राष्टीय गौरव और हिंदू स्वाभिमान के साथ जोड़ दिया है। इस नारे के साथ ही बाबरी मस्जिद तोड़ी गई; इसी नारे के साथ गुजरात नरसंहार, मुजफ्फरनगर के दंगे और मुस्लिम महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया और आज भी इसी नारे के साथ मुसलमानों, दलितों और आदिवासियों की मॉब लिंचिंग की जाती हैं।

 

आधुनिकता का सबसे बुनियादी लक्षण है— आस्था पर तर्क की जीत। यदि किसी समाज में व्यापक पैमाने और शीर्ष स्तर पर तर्क की जगह आस्था जीत  रही है, तो यह तथ्य इस बात का सबूत है कि समाज मध्यकालीन अंधकार युग की ओर बढ़ रहा है।भारत के मध्यकालीन बर्बरता के युग में प्रवेश पर शर्म करने और दुख प्रकट करने के अलावा फिलहाल कोई रास्ता नहीं दिखाई दे रहा है।

 

लेकिन हम शर्म से सिर तो झुंका ही सकते हैं और दुख तो प्रकट  कर ही सकते हैं।आखिर हम  भी तो इस के नागरिक हैं, यह हमारा भी तो देश है और जो कुछ भी हो रहा है उसकी जिम्मेदारी हमारे ऊपर भी तो आती है।

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