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अमिताभ श्रीवास्तव

A person wearing a blue hat and glasses

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नई दिल्ली | शनिवार | 31 मई 2025

क्या कठोर POCSO (यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम) को उस समय स्थगित किया जाना चाहिए जब पीड़िता स्वयं इसे हटाने की मांग कर रही हो?

पिछले सप्ताह भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐसा निर्णय दिया जिसने देशभर में बच्चों और यौन अपराधों से संबंधित कानूनी और सामाजिक संगठनों के बीच बहस छेड़ दी है।

यह मामला पश्चिम बंगाल का है, जहाँ 2018 में 13/14 साल की एक लड़की ने अपना घर छोड़ दिया और एक 25 वर्षीय युवक के साथ रहने लगी। लड़की की मां जब उस युवक के घर अपनी बेटी को वापस लाने पहुंचीं, तो लड़की ने उनके साथ जाने से इनकार कर दिया।

मां की शिकायत पर युवक के खिलाफ POCSO की कई धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज हुआ, जो 2012 में बनाया गया कानून है।

इसी बीच लड़की ने एक बच्ची को जन्म दिया, लेकिन लड़की की मां ने न तो उसे और न ही अपनी नवासी को स्वीकार किया और उनसे मिलने भी नहीं गईं।

इस लंबे केस में जो कई कोर्ट और पुलिस स्टेशनों से होकर गुज़रा, अंततः युवक को गंभीर धाराओं में दोषी ठहराते हुए 20 साल की सजा सुना दी गई। वहीं दूसरी ओर, लड़की न केवल अपनी बेटी की देखभाल कर रही है, बल्कि अपने पति की रिहाई के लिए भी लड़ाई लड़ रही है। यानी पीड़िता की उस व्यक्ति के खिलाफ कोई शिकायत नहीं है, जिसने और जिसकी परिवार ने उसकी बच्ची की देखरेख की, जबकि उसका जैविक परिवार उसे पूरी तरह छोड़ चुका है।

इस मामले को गंभीरता से लेते हुए न्यायमूर्ति अभय एस ओका और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ ने वरिष्ठ अधिवक्ताओं लिज़ मैथ्यू और माधव दीवान को अमिकस क्यूरी नियुक्त किया, ताकि वे कोर्ट को निर्णय लेने में मदद कर सकें।

इन दोनों अधिवक्ताओं ने अध्ययन के बाद सुझाव दिया कि इस मामले को सहमति से बने संबंध के रूप में देखा जाना चाहिए, क्योंकि इसमें किशोर शामिल हैं जिनकी जैविक ज़रूरतें और हार्मोन उन्हें शारीरिक गतिविधियों की ओर प्रेरित करते हैं, जो व्यस्क अपराध व्यवस्था में आपराधिक मानी जाती हैं। उन्होंने देश में ऐसे कई फैसलों का हवाला दिया जहाँ किशोरों के मामलों में कोर्ट ने नरम दृष्टिकोण अपनाया है।

उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि स्कूली पाठ्यक्रम में यौन शिक्षा को शामिल किया जाना चाहिए ताकि बच्चे अपने कार्यों, भावनाओं और परिणामों के बारे में जागरूक हो सकें और जब वे "लक्ष्मण रेखा" पार करें तो उन्हें इसका मतलब पता हो।

इन सुझावों का समर्थन करते हुए न्यायमूर्तियों ने भी कहा कि बच्चों को उनके शरीर और जिम्मेदारियों के बारे में जागरूक करने के लिए यौन शिक्षा स्कूलों में शुरू की जानी चाहिए।

उन्होंने महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के सचिव से एक विशेषज्ञ समिति गठित कर 25 जुलाई तक रिपोर्ट दाखिल करने को कहा है।

MediaMap से बात करते हुए सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता शशांक शेखर ने इस निर्णय की कड़ी आलोचना की।

"कोर्ट किसी नाबालिग के मामले में सहमति से संबंध की बात कैसे कर सकता है? क्या उन्हें जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के प्रावधानों की जानकारी नहीं है? अगर यह रुख स्वीकार किया गया तो देश में किशोरों से जुड़े अपराधों का सैलाब आ जाएगा।"

डॉ. किरण अग्रवाल, जो एक बाल रोग विशेषज्ञ और सामाजिक कार्यकर्ता हैं, ने कहा,

"यह पहली बार नहीं है जब स्कूलों में यौन शिक्षा देने की बात की जा रही है। मैं व्यक्तिगत रूप से इस काम में शामिल रही हूं, लेकिन सरकार और स्कूल दोनों ही बच्चों को यौन शिक्षा देने की बात पर विरोध करते हैं। ऐसा नहीं है कि हम उन्हें सेक्स एक्ट सिखा रहे हैं, जिसकी जानकारी उन्हें पहले से ही इंटरनेट और मोबाइल के जरिए है। यौन शिक्षा का मतलब है शरीर और स्वास्थ्य से जुड़ी बुनियादी जानकारी देना। लेकिन 'यौन' शब्द सुनते ही वे बिदक जाते हैं। अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सरकार इसे कैसे संभालेगी, यह देखना होगा।"

डॉ. संगीता सक्सेना, Enfold Proactive Health Trust नामक NGO की सह-संस्थापक, जो सिडनी से बोल रही थीं, कहती हैं,

"Enfold 2001 से यौनता और व्यक्तित्व पर काम कर रहा है। हममें से कई जानते हैं कि POCSO कानून को कई बार माता-पिता अपने बच्चों को सज़ा देने के हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं जब वे उनकी बात नहीं मानते। वहीं अधिकांश माता-पिता अपने बच्चों को यौन शिक्षा नहीं देते और न ही स्कूलों को ऐसा करने देना चाहते हैं।"

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