29 मई 2024, बुधवार मेरे 85 बसंत पूरे हो गए। कई पतझड़ भी। कवि कबीर की पंक्ति सावधान करती है, जब वे माटी से घमंडी कुम्हार को कहलाते हैं : "एक दिन ऐसा आएगा, जब मैं रौंदूगी तोय।" चेतावनी है। मगर आस बंधाती है शायर साहिर की पंक्ति : "रात जितनी भी संगीन होगी, सुबह उतनी ही रंगीन होगी।" और सुबह होने से कोई भी नहीं रोक सकता।
29 मई एक विशेष दिन है। यह दिन श्रम-जीवियों के लिए खास महत्व रखता है। 1953 में एक साधारण मालवाहक मेहनतकश विश्व के सबसे ऊँचे शिखर माउन्ट एवरेस्ट पर चढ़ गया था।
29 मई 1947 को, दलित लोगों ने जातिय विषमता का खात्मा करके भारतीय संविधान में समरसता के तहत पूर्ण मूलाधिकार प्राप्त कर लिया था।
29 मई 1989 को, बीजिंग के तियानमेन चौक पर स्वतंत्रता की देवी की प्रतिमा लगाने के लिए कम्युनिस्ट पुलिस के गोलियों से भूने चिंतन करने वाले क्या हुए थे।
29 मई को जन्मे हुए लोगों में शामिल हैं जैसे जॉन कैनेडी और मैं। कैनेडी ने अपनी जीवनी में कहा था, "हम वार्ता करने से डरेंगे नहीं, मगर डर कर वार्ता नहीं करेंगे।" यह संदेश हमें सदैव प्रेरित करता है।
29 मई को कुछ अहम घटनाएं हुई हैं, जैसे 1658 में अहमदाबाद ने अपने सबसे बड़े भाई युवराज दारा शिकोह को परास्त किया था, जो भारत का धर्म और सांप्रदायिक सामंजस्य को बनाने का योगदान करने वाला था। लेकिन दुर्भाग्य से वह हार गया और भारत का इतिहास दूसरे तरह लिखा गया।
29 मई को मेरे लिए निजी एवं व्यक्तित्विक स्तर पर भी खास महत्व रखता है।
एक रिपोर्टर के नाते मैंने तनिक शोध किया। आज इतिहास में क्या हुआ था ? मेरे जैसे श्रमजीवी के लिए 29 मई कई मायनों में एक विलक्षण दिवस है। इसी तारीख को 1953 में एक साधारण मालवाहक मेहनतकश विश्व के सबसे ऊँचे शिखर माउन्ट एवरेस्ट पर चढ़ गया था। शेरपा तेनजिंग नोर्गी ने चोटी पर चढ़कर अपनी भुजाएं एडमंड हिलेरी की ओर बढ़ाई और उसे ऊपर खींचा। मगर दुनिया में एक गलतबयानी फैली कि न्यूजीलैंड के हिलेरी ने एवरेस्ट जीता। सर्वहारा वर्ग ने देखा इतिहास में फिर एक बार पैसों से पसीना पराजित हो गया। मगर दलितजन ने आज ही के दिन 1947 में हजारों साल से चले आ रहे जातीय विषमता का खात्मा कर भारतीय संविधान में समरसता (धारा 14) के तहत पूर्ण मूलाधिकार हासिल कर लिया। चीन के उन छात्र प्रदर्शनकारियों को हर स्वतंत्रता-प्रेमी लाल सलाम करता है जो 29 मई 1989 बीजिंग के तियानमेन चौक पर स्वतंत्रता की देवी की प्रतिमा लगाने का संघर्ष करते कम्युनिस्ट पुलिस की गोलियों से भून डाले गये थे।
एक यूनियन का कार्यकर्ता होने के नाते मैंने वेतनमान की वार्ता में जॉन कैनेडी की उक्ति को हमेशा सिद्धांत माना। कैनेडी ने कहा था : "हम वार्ता करने से डरेंगे नहीं, मगर डर कर वार्ता नहीं करेंगे।" कैनेडी भी 29 मई को जन्में थे। मेरे प्रेरक रहे।
हमारे पत्रकारी मुहावरा कोश में आज ही के दिन एक मुहावरा जुड़ गया था : “कैलिफोर्निया का सारा सोना मिल जाय, फिर भी हम खबर दबायेंगे नहीं। जरूर वह छपेगी।” इसकी उत्पत्ति 29 मई 1848 में हुई थी। तब कैलिफोर्निया की सट्टर खाड़ी में सोना मिला। जेम्स मार्शल, खनन विशेषज्ञ, ने खोजा था। और उस वर्ष के 29 मई के दिन कैलिफोर्निया के समस्त पत्र-पत्रिकाओं के कर्मचारी कार्यालय छोड़कर सोना बटोरने चल पड़े। अख़बारों ने घोषणा कर दी कि प्रकाशन ठप पड़ गया है। पाठकों ने बड़ी भर्त्सना की। तभी से उक्ति बनी कि यदि कैलिफोर्निया का सारा स्वर्ण भी मिल जाये, अख़बार छपेंगे ही। हमारी अभिव्यक्ति की आजादी अक्षुण्ण है।
प्रमाण के तौर पर इस वाकये का उल्लेख कर दूं। एक रात को गुजरात के सबसे धनी उद्योगपति अहमदाबाद "टाइम्स ऑफ इंडिया" के संपादकीय विभाग में आए। मैं रात की ड्यूटी पर था। उनका आग्रह था कि एक खबर न छपे। मैंने उन्हें तुरंत टोका : "शाह जी यहां खबर छपती है। आप मंदिर में गौ हत्या कराएंगे।" खैर मैंने पूछा क्या खबर है। वे बोले : "मेरी इकतौली बेटी और मेरा ड्राइवर दो दिन से दिखाई नहीं दे रहे हैं। यदि यह चर्चा में आएगी तो मेरा परिवार संकट में पड़ जाएगा।" मेरा तात्कालिक जवाब था : "सेठजी, ऐसी खबर में "टाइम्स आफ इंडिया" को रुचि नहीं है। निश्चिंत रहिए। यह नहीं छपेगी।" मुझे लगा मैंने निष्ठावान पत्रकारिता निभाई।
मेरे आकलन में 29 मई 1658 आधुनिक भारत के लिए सबसे बड़ा त्रासदीपूर्ण बना। दुर्भाग्य का दिन रहा। इसी दिन पूर्वी आगरा के निकट सामुगढ़ की रणभूमि में औरंगजेब आलमगीर ने अपने सबसे बड़े भाई युवराज दारा शिकोह को परास्त किया। दिल्ली ले जाकर भिखारी के कपडे पहनाकर, जंजीर से बाँधकर हाथी से रौंदवाया, सर काटकर पिता शाहजहाँ को आगरा किला कारागार में नाश्ते की तश्तरी में पेश कराया। यदि दारा शिकोह सामुगढ़ में जीत जाता तो भारत का इतिहास बदल जाता। न इस्लामी कट्टरपन पनपता, ढाई सदियों बाद न मोहम्मद अली जिन्ना का मकसद फलीभूत होता। दारा शिकोह द्वारा सूफी तथा वेदांत का समन्वय भारत की धर्मनीति होती। सांप्रदायिक सामंजस्य सशक्त करते। काशी के प्रतिष्ठित त्रिपाठी परिवार के ज्योतिषी भवानी भट्ट अपने इस शिष्य दारा शिकोह के आदर्श सेक्युलर बादशाह बनने में सहायक होते। इसी त्रिपाठी परिवार के थे पण्डित कमलापति त्रिपाठी, कांग्रेस नेता।
अब उस 29 मई का जिक्र कर दूं जो मेरे निजी जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण था। बड़ौदा सेन्ट्रल जेल में हम सात लोग दस बाई दस फीट के तनहा कोठरी में कैद रखे गए थे। महाराजा सयाजीराव द्वारा 1840 में निर्मित इस काल कोठरी में फांसी के सजायाफ्ता कैदी ही रखे जाते थे। मैंने इन्हीं कोठरी नंबर 38 मेंने अपना अड़तीसवाँ जन्मदिन (29 मई 1976) “मनाया” था। हम पर आरोप था कि हमने जॉर्ज फर्नांडिस के साथ साजिशन भारत सरकार पर ऐलाने-जंग किया था। बगावत का अंजाम मौत होता है। तब देश में इमरजेंसी राज था। मां-बेटे की कुर्सी हेतु मीसा लागू था। इसको लोग बताते थे “मेंटिनेंस ऑफ़ इंदिरा एंड संजय एक्ट”।
बड़े भाई बताते थे कि नई दिल्ली के कनाट प्लेस के निकट जैन मन्दिर वाली कॉलोनी में हमारा परिवार रहता था। पिताजी (स्व. के. रामा राव) हिंदुस्तान टाइम्स के न्यूज़ एडिटर थे। समीपस्थ लेडी हार्डिंग अस्पताल में मैं (29 मई को) जन्मा था। इत्तिफाक रहा कि मेरी पत्नी सुधा ने इसी कॉलेज से 1967 में MBBS किया। मुझे पिताजी “आनन्ददायका, भाग्यकारका” कहते थे, क्योंकि तभी लखनऊ में ‘नेशनल हेरल्ड’ स्थापित हुआ था। पिताजी को आचार्य नरेंद्र देव, रफ़ी अहमद किदवई, मोहनलाल सक्सेना ने संपादक नियुक्त किया था। माँ मुझ (भविष्य के कामगार) को पादुशाह बुलाती थी। जन्म स्थान के कारण, शायद।
बस दैवकृपा से एक ही उपलब्धि पाई है। सात पुस्तकें प्रकाशित हुयी हैं : "न रुकी, न झुकी, यह कलाम", लोहिया पर दो किताबें, "एक पत्रकार की राजनीतिक विचार-यात्रा", "मानेंगे नहीं, मारेंगे नहीं", "गुंच ए गुलिस्ताँ", "जो जनमन में बसे" (धार्मिक)। पांच छप रही हैं : दो अनामिका (नई दिल्ली), एक नवनीत मिश्र द्वारा प्रयागराज से, एक लखनऊ के पत्रकार मंजुल द्वारा तथा एक प्रभात कुमार जी द्वारा।
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