ज्ञान चक्षु बड़ी देर से खुलते है। बहुत चिंतन मनन करने के बाद धीरे धीरे मैं इस निष्कर्ष की तरफ पहुंच रहा हूँ,बल्कि लगभग पहुंच गया हूँ कि आदमी की दुर्दशा का मूलभूत कारण है -लिखना।क्या कोई और प्राणी लिखता है? बंदर के पंजे मनुष्य की तरह ही होते हैं लेकिन क्या वे लिखते हैं? मदारी बंदर बंदरिया पालते हैं,अपना पेट पालने के लिए। ये मदारी उन्हें स्त्री पुरुष के कपड़े पिन्हाकर नचाते हैं।ऐसे ऐसे करतब करना उन्हें सिखा देते हैं कि बच्चा लोग खुश होकर ताली बजाते हैं। लेकिन मैंने ऐसा कोई मदारी नही देखा जिसने उन्हें क, ख, ग, घ या ए, बी, सी, डी लिखना सिखाया हो। यह दुष्कर्म भी इंसानों के खाते में ही गया।
क्या पशु,पक्षियों की भाषा नहीं होती? जहां तक मुझे पता है मधु मख्खियां लगभग दो सौ ध्वनि संकेतो के द्वारा अपना काम बखूबी चला लेती हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी इनका ज्ञान सँजोती चली आ रही हैं,आदि काल से। उन्होंने कोई किताब नहीं लिखी। अगर लिखी होती तो अब तक मधुमख्खियाँ कई विश्व युद्ध रचा चुकी होतीं। धन्यवाद मधुमख्खियों
तुमने कोई बिना जरूरत युद्ध नही किया। सिर्फ उन्ही को काटा जिन्होंने उसके छत्ते को छुआ।
इस तर्क की कसौटी पर आप किसी भी पशु पक्षी को कस सकते हैं। शेर ,भेड़िए मांसाहारी हैं।हम उनकी राह में रोड़ा बनेंगे तो वे आप को भी खा जाएंगे। लेकिन वे पकाकर नही खाते।इसलिए पशुओं की बस्ती में पाक शास्त्र पर कोई ग्रंथ नहीं मिलेगा ।पकाइए,मिर्च मसाला डालिए।बर्तनों में बनाइये।उन्हें पहले धोइये। कांच के बर्तनों को शीशे की अलमारियों में संजोकर खाइए। यह बिचारा काम इंसान क्यों करता है?क्योंकि लेखन कला ने उसे अपने पुराने ज्ञान को संचित करने का कुअवसर दिया है।
ज्ञान को संचित करने और लगातार करते जाने का जो रोग आदमी को ऐसा लगा कि वह आज तक उससे उबर नहीं पाया।
अच्छा हुआ सिंधु घाटी की सभ्यता से उजागर लिपि अभी तक पढ़ी नही जा सकी।पढ़ी जा सकी होती तो न जाने कितनी पुस्तकें देश विदेश की विभिन्न भाषाओं में छप चुकी होतीं।पुस्तक मेलों में रद्दी के भाव बिक रही होतीं। छाटों बीनो हर किताब। छोटी हों,मोटी हों सिर्फ पचास रुपये में। प्रकाशक अनबिकी पुस्तकों को देखकर भुनभुनाते हैं। अगर कमीशन की खरीद की बैसाखी पर मंडराते सरकारी पुस्तकालय न हो धंधा ही चौपट समझिए।
कबीर ने कहा था -मसि कागद छुयो नहीं कलम गह्यो नहि हाथ। उन्होंने नही लिखा तो कबीर को करघे पर गाते गवाते दूसरों ने सुनकर लिख लिया। अब चूंकि लिखा गया तो छपना भी जरूरी था। ताकि ज्ञान का संचयन होता रहे। जब छपा तो पढ़ना भी जरूरी हो गया। इससे छात्रों और अध्यापकों के सामने मुसीबत पेश आई ।उसे तो हर गरीब अमीर।साक्षर निरक्षर सभी परिचित हैं। लेकिन मेरी सहानुभूति उन सभी के साथ हैं जो साक्षर तो हैं पर साहित्य से घबराते हैं।
ऐसे अनेक लोगों को आपने भी देखा होगा। लेकिन मैंने जिन लोगों को पढ़ते पढ़ाते, खासकर बच्चों को पढ़ाते जूझते देखा तो मैं लिखने के और भी खिलाफ हो गया।
नमूने के लिए एक किस्सा बयान कर रहा हूँ। स्नातकोत्तर कक्षा में कबीर की रचना पढ़ाई जा रही थी-रस गगन गुफा में अजिर झरें । सुयोग्य शिक्षक इसका भाष्य कर रहे थे कि एक कमबख्त छात्र पूंछ बैठा-सर ! आकाश में कोई गुफा कैसे हो सकती है? शिक्षक का सिर चकरा गया। गुस्से से बोले -निकल जाओ क्लास से बाहर। कबीर जैसे महान साहित्यकार का अपमान कर रहे हो!इसका दोषी न शिक्षक थे और न ही क्लास से निकाला गया बेचारा छात्र।जाहिर है आप किसी का अपमान नही कर सकते। प्रश्न पूछना ही इन दिनों का अपराध है। यहां मैं देश की किसी राजनीतिक पार्टी के किसी नैतिक अनैतिक नेता पर टिप्पड़ी करने की जुर्रत नही कर रहा बल्कि मैं सिर्फ यह बताना चाह रहा हूँ कि लिखित रचना की वजह से माँ बाप पर क्या बीतती है,खासकर उस माँ बाप पर जो अपने घर पर ट्यूटर नही रख पाते है। किसी कोचिंग क्लास में नही भेज पाते है, आर्थिक तंगी की वजह से। ऐसे ही एक मध्यवर्गीय बाप की व्यथा कथा मैं यहां दर्ज कर रहा हूँ।
छठवीं कक्षा का एक बच्चा हिंदी के एक छायावादी कवि की एक रचना पढ़ रहा था जो उसे समझ नही आ रही थी।उसने अपने पिता को पुकारा जो मात्र इंटर पास थे और रेलवे में क्लर्क थे।वेतन तो अच्छा खासा हो गया था लेकिन संचित ज्ञान नगण्य था। डपट कर बोले क्या है? जी लगाकर पढ़ा करो।बेटा बोला ,पढ़ तो रहा हूँ लेकिन समझ मे नहीं आ रहा है ।इस कविता का अर्थ और भाव क्या है? कोचिंग में मुझे क्यों नही भेजते? बाप को गुस्सा आगया।इतना पैसा नहीं है मेरे पास। स्कूल में भेजूं और कोचिंग भी पढाऊँ।
बता क्या समझ मे नहीं आ रहा है?
कविता निराला की वाणी वंदना घी-वर दे वीणा वादिन वर दे! इतना तो छात्र की छात्र की समझ मे आया।लेकिन नव गति नव लय ताल छंद नव ।आगे उसके पल्ले नहीं पड़ रहा था।उसके पिता का स्वाभिमान जागा।कहने भर को साक्षर था वह भी। लेकिन यहां उसकी साक्षरता काम नही आ रही थी। ऐसा कठिन कठिन लिख कर मर गए। पढ़ना पढ़ाना हमारे बच्चों को पड़ रहा है। अरे सरल सरल क्यों नहीं लिखा? क्या यह कविता नहीं है-मुझे आता हुआ देख कर चिड़िया क्यों उड़ जाती हैं। आखिर वे भी लेखक थे।साहित्यकार थे।
यह बला आज की नही है,इसकी शुरुआत महिर्ष वेदव्यास के समय से है। वेदव्यास ने अपनी बला विघ्नेश्वर गणेश जी पर डाली थी। वे सूत्रों में गणेश को उलझाते रहे । बेचारे गणेश कहाँ तक समझ पाते। उलझते चले गए। कंठ से भाष्य की लेखन फैलता चला गया। कोई इस जाल से निकल नही पाया।
जाहिर है यह सारा दर्द पढ़ने पढ़ाने को लेकर है।लिखने के चलते ही पैदा हुआ है। यही हमारी दुर्दशा का कारण है। इसीलिए मैं लिखने के विरुद्ध हूँ। जब कोई मुझसे लिखने के लिए जोर देने लगता है तो मुझे खीझ होने लगती है। दोस्तों आइंदा मुझसे और चाहे जो कहना लेकिन लिखने के लिये मत कहना ।यह गुनाह कब तक झेलता रहूंगा। आखिर कब तक !
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