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आज का संस्करण

नई दिल्ली, 3 जनवरी 2024

 

दिन-रात यूँ न ख़ौफ़ का गट्ठर उठाए फिर,

ये बोझ अपने सर से झटक कर उतार दे।

ये बात ज़र्फ़ की नहीं है मावरा-ए-ज़र्फ़,

चाहे तो इस कुएँ में समुंदर उतार दे।

चेहरे से झाड़ पिछले बरस की कुदूरतें,

दीवार  से  पुराना   कैलेंडर   उतार दे।

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सभी मित्रों को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें ---

 

मैं  दिसम्बर के कैलेंडर -सा  उतर जाऊँगा,

तुम से बिछड़ा तो न जाने फिर किधर जाऊँगा ||

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दीमक ज़दा किताब थी यादों की ज़िंदगी,

हर वर्क़ खोलने की खवाहिश में फट गई !

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