( पुस्तक शीर्षक, लेखक: के. विक्रम रॉव , अनामिका प्रकाशन, दिल्ली )
पुस्तक की विषय वस्तु का आधार लाल किले से गत वर्ष प्रधानमंत्री का यह ऐलान है कि 14 अगस्त को "विभाजन की त्रासदी दिवस" के रूप में याद किया जाएगा। उसी के संदर्भ में इस पुस्तक में मुस्लिम अलगाववाद और विभाजन की सांप्रदायिक मुहिम के विषय में दस्तावेजी सामग्री उपलब्ध है। पाकिस्तान एक फितूर से उगकर ख्वाब बना और फिर एक खूनी हकीकत। इस परिवेश में भी सम्यक और प्रामाणिक प्रसंग पेश किए गए हैं।
एक ऐतिहासिक तथ्य व्यापक तौर पर चर्चित है कि भारत का मुस्लिम बहुमत मोहम्मद अली जिन्ना के साथ नहीं था। कट्टर मुस्लिम लीगी तक भारत में रह गए। कराची नहीं गए। उनकी राय में जिन्ना के भाई अहमद अली जिन्ना की बात सही थी कि : "भाई तो सुल्तान बनना चाहता था, बन गया।"
“14 अगस्त 2023 भारत के विभाजनवाली विभीषिका की बरसी थी । यह क्रूरतम और निकृष्टतम त्रासदी थी। चंद सिरफिरे मुसलमानों, जिनके बाप-दादा हिंदू थे, ने यह जघन्य साजिश रची थी। अतः सरदार वल्लभभाई पटेल का प्रश्न आज भी वाजिब है। तब (1945) पश्चिमोत्तर भारत के राष्ट्रवादी नेता खान अबुल कय्यूम खान अचानक जिन्ना के मुस्लिम लीग में भर्ती हो गये। कभी उन्होंने कहा था : “मैं अपना लहू बहाकर भी पाकिस्तान का विरोध करूंगा।” सरदार ने पूछा : “कय्यूम साहब, अब आपकी पार्टी के साथ क्या आपका मुल्क भी बदल गया है ?”
मगर आज क्या हालत है जिन्ना-सृजित इस स्वप्नलोक की ? बंबइया फिल्मी संवाद-लेखक 63-वर्षीय शक्तिमान “विकी” तलवार ने अपनी ताजी फिल्म “गदर-2” में लिखा : “दुबारा मौका हिंदुस्तान में बसने का इन्हें मिले, तो आधे से ज्यादा पाकिस्तान खाली हो जाएगा।” अभिनेता सनी देओल ने पाकिस्तान से यह भी कहा : “कटोरा लेकर घूमोगे, तब भी भीख नहीं मिलेगी।”
याद करें वह दिन 1947 वाला, बृहस्पतिवार, 14 अगस्त 1947, जब पाकिस्तान पैदा हुआ था। राजधानी कराची में नये सुल्तान गवर्नर-जनरल मोहम्मद अली जिन्ना ने राजकीय लंच दिया था। सारे राजदूत आमंत्रित थे। तभी जिन्ना के निजी सहायक खुर्शीद हसन खुर्शीद ने उनके कान में फुसफुसाया : “जनाब, कायमे आजम साहब, आज रमजान की आखिरी तारीख है। रोजे अभी चालू हैं।” मगर लोग दोपहर को ही मदिरा के जाम टकराते रहे। मतलब इस्लामी जम्हूरियाये पाकिस्तान के स्थापना दिवस पर जिस दिन काठियावाड़ी हिंदु मछुवारे जीणाभाई का वंशज मोहम्मद अली शराब पी रहा था उसी तारीख को, 610ईस्वी में, पैगंबर मुहम्मद को देवदूत गेब्रियल दिखाई दिए थे। इस्लामी पवित्र पुस्तक कुरान के बारे में उन्हें बताया था। वह अत्यंत पाक दिन था। मगर इस्लामी पाकिस्तान के जन्मदिन पर रोजा नहीं रखा गया, लंच पर त्योहार मनाया जाता रहा था। पाकिस्तान की ऐसी इब्तिदा थी।
यदि आज पर विभाजन की त्रासदी पर विमर्श हो, तो एक ऐतिहासिक पहलू गौरतलब बनेगा। असंख्य नामी-गिरामी इस्लामी नेता बटवारे के कठोर विरोधी थे। जिन्ना अकेले पड़ गए थे। तब भी भारत क्यों टूटा ? गौर करें उन दारुल इस्लाम के विरोधियों के नाम पर। सिंध के मुख्यमंत्री गुलाम हुसैन हिदायतुल्ला ने तकसीम के प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। पंजाब के प्रधानमंत्री मलिक खिजर हयात तिवाना ने इसे पंजाब प्रांत और जनता को विभाजित करने की एक चाल के रूप में देखा। उनका मानना था कि पंजाब के मुस्लिम, सिख और हिंदू सभी की संस्कृति एक समान थी और वे धार्मिक अलगाव के आधार पर भारत को विभाजित करने के खिलाफ थे। मलिक खिजर हयात, जो खुद एक नेक मुस्लिम थे, ने अलगाववादी नेता मुहम्मद अली जिन्ना से कहा : "वहां हिंदू और सिख तिवाना हैं, जो मेरे रिश्तेदार हैं। मैं उनकी शादियों और अन्य समारोहों में जाता हूं। मैं उन्हें दूसरे राष्ट्र वाला कैसे मान सकता हूं ?" ढाका के नवाब के आदि भाई ख्वाजा अतीकुल्लाह ने तो 25,000 हस्ताक्षर एकत्र किए और विभाजन के विरोध में एक ज्ञापन प्रस्तुत किया था।
पूर्वी बंगाल में खाकसार आंदोलन के नेता अल्लामा मशरिकी को लगा कि अगर मुस्लिम और हिंदू सदियों से भारत में बड़े पैमाने पर शांति से एक साथ रहते थे, तो वे स्वतंत्र और एकजुट भारत में भी ऐसा ही कर सकते थे। सीमा के दोनों ओर कट्टरवाद और उग्रवाद को विभाजन बढ़ावा देगा। उनका मानना था कि अलगाववादी नेता "सत्ता के भूखे थे और ब्रिटिश एजेंडे की सेवा करके अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए मुसलमानों को गुमराह कर रहे थे।"
सिंध के मुख्यमंत्री अल्लाह बख्श सूमरो मजहबी आधार पर विभाजन के सख्त विरोधी थे। सूमरो ने घोषणा की कि "मुसलमानों को उनके धर्म के आधार पर भारत में एक अलग राष्ट्र के रूप में मानने की अवधारणा ही गैर-इस्लामिक है।" मौलाना मज़हर अली अज़हर ने जिन्ना को काफिर-ए-आज़म ("महान काफिर") कहा। जमात-ए-इस्लामी के संस्थापक मौलाना अबुलअला मौदुदी का तर्क था कि पाकिस्तान की अवधारणा ही उम्माह के सिद्धांत का सरासर उल्लंघन करती है। पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत के मुख्यमंत्री डॉ. खान साहब अब्दुल जब्बार खान भारत में ही रहना चाहते थे। उनके अग्रज थे सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान जो ताउम्र पाकिस्तानी जेल में रखे गए थे। कांग्रेसी मुसलमान जो विभाजन के कट्टर विरोधी रहे उनमें थे मौलाना अबुल कलाम आजाद, डॉ. जाकिर हुसैन, रफी अहमद किदवई आदि।
भारतीय मुसलमानों में बहुसंख्यक गैर- अशरफ लोग विभाजन की कड़ी मुखालफत में थे। भारतीय प्रांतीय चुनावों (1946) में केवल 16% भारतीय मुसलमान मतदाता (सभी उच्च वर्ग के लोग) ही थे। अतः निम्न वर्ग के मुसलमानों की आशंका थी कि पाकिस्तान में केवल "उच्च वर्ग का ही लाभ होगा।" देवबंदी विचारधारा के सुन्नी मुसलमानों ने एक अलग, बहुसंख्यक मुस्लिम राष्ट्र राज्य के गठन को "मजबूत एकजुट भारत के उद्भव को रोकने के लिए ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार की साजिश" के रूप में माना। देवबंदी विद्वान सैय्यद हुसैन अहमद मदनी ने अपनी पुस्तक “मुत्ताहिदा कौमियात और इस्लाम” में एकजुट भारत के लिए तर्क दिया कि अलग-अलग राष्ट्रीयताओं का गठन नहीं होता हैं। भारत के विभाजन का प्रस्ताव धार्मिक रूप से उचित नहीं था।
जिन्ना के कट्टर समर्थकों ने भी भारत में ही रहना पसंद किया था। मसलन राजा महमूदाबाद अमीर हसन खान, बेगम कुदुसिया अयाज रसूल यूपी की विधान परिषद और मेरठ के नवाब मुहम्मद इस्माइल खान। यह नवाब साहब तो जिन्ना के बाद मुस्लिम लीग के अध्यक्ष बनने वाले थे। तीनों के सामने प्रश्न था दारुल इस्लाम में जाएं अथवा दारुल हर्ब में रहकर भारत में अपनी जायदाद बचाएं। मजहब दोयम दर्जे पर आ गया था।
तो पहेली है कि फिर आखिर पाकिस्तान बनाया किसने ? इतिहास गवाह है कि अंग्रेज साम्राज्यवादी दक्षिण एशिया में अपनी पिट्ठू एजेंट चाहते थे। लॉर्ड लुई माउंटबेटन को ऐसा ही निर्देश देकर भेजा गया था।
अतः डॉ. राममनोहर लोहिया की बात (“विभाजन के दोषी” किताब में) पर यकीन हो जाता है कि अगर महात्मा गांधी बंटवारे के विरोध में 1947 में अनशन कर देते तो पाकिस्तान न बनता। अंग्रेज डर जाते। जिन्ना केवल तेरह माह जिये थे पाकिस्तान बनने के बाद। (निधन : 11 सितंबर 1948)। मगर मंजूरे खुदा कुछ और था। भारत में रह गये मुसलमानों का प्रारब्ध था पाकिस्तान। मगर आवाम को सदियों की सजा मिली। लम्हों की खता के कारण।
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