आरएसएस के बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि यह एक मनुवादी संगठन है जो जात-पात में विश्वास रखता है और समाज में ऊंची जातियों के वर्चस्व के लिए काम करता है। यह सैद्धांतिक रूप से एक ऐसी संस्था के रूप में देखा जाता है जो दबे-कुचले वर्गों को दबाने के उद्देश्य से अस्तित्व में आई है। लेकिन वास्तविकता में आरएसएस ने एक विरोधाभासी रणनीति अपनाई है, जिसके तहत वह उन्हीं दबे-कुचले वर्गों का उपयोग अपने नफरत भरे एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए करता है।
आरएसएस ने अपने प्रचारकों और स्वयंसेवकों की एक मजबूत टीम तैयार की है, जो शाखाओं के माध्यम से विभिन्न समुदायों के बीच जाकर काम करती है। दलितों के लिए "सामाजिक समरसता" जैसे संगठन और आदिवासियों के लिए "वनवासी कल्याण आश्रम" बनाकर, आरएसएस उनकी समुदायों में सेवा और सामाजिक कार्यों के बहाने घुसपैठ करता है। इसका उद्देश्य उनके दिल और दिमाग में यह भावना भरना है कि वे भी हिन्दू हैं और मुस्लिम तथा ईसाई उनके असली दुश्मन हैं।
इन प्रयासों से वे दलित और आदिवासी वर्ग के कुछ लोगों को अपना स्वयंसेवक बना लेते हैं, जो फिर उनके एजेंडे का हिस्सा बनकर, दंगों और मॉब लिंचिंग जैसे कार्यों में उनका सहयोग करते हैं। यह एक ऐसी रणनीति है जिसमें आरएसएस एक ओर तो इन समुदायों के अधिकारों को हाशिये पर रखता है, और दूसरी ओर उनसे यह विश्वास दिलाने की कोशिश करता है कि वह उनके साथ है।
लेख एक नज़र में
आरएसएस के बारे में अक्सर कहा जाता है कि यह एक मनुवादी संगठन है जो जात-पात में विश्वास रखता है।
लेकिन वास्तविकता में आरएसएस ने एक विरोधाभासी रणनीति अपनाई है, जिसके तहत वह दबे-कुचले वर्गों का उपयोग अपने नफरत भरे एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए करता है। आरएसएस ने समाज में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए "सोशल इंजीनियरिंग" और "संस्कृतिकरण" की नीति अपनाई है।
इसके अलावा, आरएसएस ने प्रचार तंत्र के जरिए व्यापक स्तर पर अपना एजेंडा फैलाया है। आज के समय में यह महत्वपूर्ण है कि आरएसएस के इस दोहरे चेहरे को बेनकाब करने के लिए एक मजबूत प्रचार तंत्र बनाया जाए।
आरएसएस ने समाज में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए "सोशल इंजीनियरिंग" और "संस्कृतिकरण" की नीति अपनाई है। सोशल इंजीनियरिंग के तहत, वह कुछ लोगों को अपने साथ जोड़ लेता है, उन्हें लालच और प्रलोभन देकर उनके साथ संबंध बनाता है। दूसरी ओर, संस्कृतिकरण का मतलब यह है कि उच्च जातियों के लोग जब नीचे के वर्गों के साथ मिलते-जुलते हैं, तो उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा का अहसास होता है। आरएसएस इस अहसास का फायदा उठाकर उन्हें अपने साथ जोड़ लेता है और इसका इस्तेमाल चुनावी लाभ के लिए करता है।
आरएसएस अपने प्रचार तंत्र के जरिए व्यापक स्तर पर अपना एजेंडा फैलाता है। इसके लिए वह शाखाओं, शिशु मंदिर, सरस्वती शिशु मंदिर, और सोशल मीडिया का सहारा लेता है। वह यह सुनिश्चित करता है कि लोगों को यह समझ में न आए कि उनके खिलाफ अत्याचार हो रहे हैं। जब भी हिंसा होती है, तो उसे इस तरह पेश किया जाता है कि हिंसा का शिकार खुद ही इसके लिए जिम्मेदार है।
राजनीतिक प्रलोभन भी एक बड़ा कारण है, जिसके तहत आरएसएस कुछ दलित और आदिवासी नेताओं को एमपी, एमएलए बना देता है। इससे उन समुदायों में यह संदेश जाता है कि आरएसएस और बीजेपी का समर्थन करना उनके लिए सही है। कई दलित नेता अपनी निजी महत्वाकांक्षा के चलते आरएसएस और बीजेपी के साथ जुड़ जाते हैं, भले ही उन्हें पता हो कि यह उनके समुदाय के हित में नहीं है।
जब भी आरएसएस समर्थित सरकार सत्ता में आती है, तो उनके लिए प्रशासन और पुलिस के माध्यम से अपने एजेंडे को आगे बढ़ाना आसान हो जाता है। समाज के कुछ असामाजिक तत्वों को संरक्षण देकर, उनके खिलाफ कार्रवाई न करके, आरएसएस अपने एजेंडे को धार देने का काम करता है। यह स्थिति तब और भी गंभीर हो जाती है जब सरकार और प्रशासन मिलकर उत्पीड़ित वर्गों की आवाज को दबाने का काम करते हैं।
डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि अगर गुलामों को उनकी गुलामी का एहसास दिला दिया जाए तो वे अपनी बेड़ियों को तोड़ सकते हैं। आज की स्थिति में भी यही बात लागू होती है। आरएसएस का असली चेहरा दिखाने के लिए एक नए तरह की जागरूकता की जरूरत है, जिसमें संविधान के मूल्यों, डॉ. अंबेडकर के विचारों और समतामूलक समाज के सपनों को आम जनता तक पहुंचाना होगा।
आज के समय में यह महत्वपूर्ण है कि आरएसएस के इस दोहरे चेहरे को बेनकाब करने के लिए एक मजबूत प्रचार तंत्र बनाया जाए। व्हाट्सएप ग्रुप, वीडियो, पोस्टर और अन्य तरीकों से संविधान और अंबेडकर जी के विचारों को लोगों तक पहुंचाना बेहद जरूरी है। यदि समाज के प्रगतिशील कार्यकर्ता मिलकर इस दिशा में प्रयास करें, तो निश्चित रूप से एक जागरूक समाज का निर्माण किया जा सकता है, जहां सबके अधिकार समान हों और कोई भी व्यक्ति किसी के दबाव में न रहे।
आरएसएस के विरोधाभासों को समझना और समझाना आज के समय की मांग है। अगर हम इन मुद्दों पर खुलकर बात नहीं करेंगे, तो समाज में नफरत और विभाजन का यह खेल लंबे समय तक चलता रहेगा। इसलिए जरूरी है कि लोग जागरूक हों और इस प्रकार के प्रोपेगैंडा से बाहर निकलकर सच्चाई को समझें और अपनी आवाज बुलंद करें।
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