वर्ष 1984-85 में अप्रत्याशित जनसमर्थन प्राप्त कर भारत का प्रधानमंत्री बन कर राजीव गांधी भारतीय राजनीति के क्षितिज पर बहुत तेजी से उभरे थे। जितनी तेजी से राजीव गांधी का उदय हुआ उतनी ही तेजी से तीन वर्षों के अंदर उनका पतन भी होना प्रारम्भ हुआ। वर्ष 1991 में चुनाव प्रचार के दौरान उनकी हत्या हुई। पर उनकी राजनैतिक हत्या का प्रयास तो वर्ष 1987 में बोफोर्स घोटाले के खुलासे के साथ ही किया गया था। प्रश्न यह है कि क्या वर्ष 1987 में उनकी राजनैतिक हत्या और फिर 1991 में उनकी शारीरिक हत्या स्वाभाविक थी या उसके पीछे कोई राजनैतिक षड़यंत्र था।
यह सही है कि दिसम्बर 1984 के चुनावों में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की अभूतपूर्व सफलता उस सहानुभूति लहर का परिणाम थी, जो सुरक्षा सैनिकों द्वारा उनकी मां प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी की निर्मम हत्या के कारण सारे देश में उपजी थी। यह भी सही है कि राजनीति में कोई रुचि न रखने वाले राजीव गांधी को अपने भाई संजय गांधी की विमान दुर्घटना में मृत्यु के बाद इन्दिरा गांधी को सहारा देने के लिये राजनीति में आना पड़ा और परिस्थितियों ने ही राजनैतिक दृष्टि से अनुभवहीन और अपरिपक्व इस युवा को देश की सबसे बड़ी कुर्सी पर बिठा दिया। पर जो बात समझ में नहीं आती है वह यह है कि राजीव गांधी में ऐसा क्या था जिसके कारण उनका प्रारम्भ में अभूतपूर्व महिमामण्डन हुआ और फिर थोडे समय बाद ही उनकी कटु आलोचना का दौर आया।
सच तो यह है कि राजीव गांधी के छोटे लेकिन घटना प्रधान राजनैतिक जीवन (1981-91) का निष्पक्ष व वैज्ञानिक मूल्यांनक कभी किया ही नहीं गया है। इस कारण तत्कालिक इतिहास में उनके स्थान को सुनिश्चित करना वास्तव में एक समस्या है।
श्रीमती इन्दिरा गांधी के समाजवादी शासन के बाद भारत के पूंजीवादी वर्ग को अपने निहित स्वार्थों को आगे बढ़ाने के लिये राजीव गांधी में अपार संभावनाएं दिखीं। शायद इसी कारण राजीव गांधी का भारत के बुर्जुआ वर्ग ने गर्मजोशी के साथ स्वागत किया। राजीव गांधी ने न सिर्फ सूचना क्रान्ति के द्वार खोले बल्कि आधुनिक सोच और आर्थिक सुधारों पर भी विमर्श को बढ़ावा दिया। उनकी साफ सुथरी छवि, सज्जनता और सौम्य स्वभाव ने उन्हें प्रसिद्धी के शिखर पर बैठा दिया। एक समाचार पत्र ने उन्हें 'मिस्टर क्लीन' की - उपाधि दे डाली। पर थोड़े ही समय बाद हवा उल्टी बहने लगी। यह बोफोर्स से - पहले ही शुरू हो गया था। बोफोर्स काण्ड - ने उसे नये आयाम दिये। यदि राजीव गांधी अनुभवहीन, अपरिपक्व व राजनैतिक दृष्टि से बुद्धिमान नहीं थे तो यह तो उस दिन भी पता था जब वह प्रधानमंत्री बने। फिर ऐसा क्यों हुआ कि प्रधानमंत्री की पारी शुरू होने पर उन्हें अपार प्रशंसा और व्यापक समर्थन मिला और थोड़े ही समय बाद उनका विरोध आरस्म हो गया।
किसी राजनीतिक विश्लेषक ने कहा है, किसी व्यक्ति को सत्ता में बैठाना, सत्ता में जमाना और सत्ता से उखाड़ना, तीन अलग- अलग काम है जिन्हें अलग अलग वर्ग के लोग अंजाम देते हैं। राजीव गांधी को सत्ता में तो व्यापक जनसमर्थन ने बैठाया। पर लगता है कि उनके सत्ता में बैठने के कुछ समय बाद ही निहित स्वार्थियों को लगा कि वह उनके हित साधन के लिये उपयुक्त नहीं है तो उन्हें उखाड़ने का प्रयास शुरू हो गया, जिसे समझने में उन्होंने बहुत देर की।
शायद राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह को वित मंत्री बनाना उनकी सबसे बड़ी भूल थी। राजा साहब ने पूंजीपति और उद्योग जगत के बड़े संगठनों पर कर चोरी के लिये छापे डलवाने शुरू किये। इससे हड़कंप मचा और राजीव सरकार का विरोध प्रारम्भ हुआ। कारपोरेट जगत का इशारा पाते ही संघ परिवार और नेहरू परिवार के पेशेवर विरोधियों ने उनके विरुद्ध भ्रामक प्रचार शुरू कर दिया। कहा गया कि उन्होंने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया है और उनका नाम रार्बट गांधी है। उनकी पत्नी सोनिया गांधी के विरुद्ध भी भीषण प्रचार शुरू किया गया।
सरकार में भी विश्वनाथ प्रताप सिंह और अरूण नेहरू ने राजीव गांधी के विरुद्ध षड़यंत्र शुरू किया। विश्वनाथ प्रताप की महत्वाकांक्षा प्रधानमंत्री बनने की थी तथा अरूण नेहरू कारपोरेट जगत तथा हिन्दुत्ववादी शक्तियों के ऐजेन्ट थे और उनकी प्रधानमंत्री के सचिव और वरिष्ठ आई.ए.एस. अधिकारी गोपी अरोड़ा के साथ साठगांठ थी।
राजीव गांधी विरोधियों की शायद समस्या यह थी कि उनका जनाधार लगातार बढ़ रहा था। बड़े परिवार से आये, विदेश में पढ़े तथा वायुसेवा की नौकरी करने वाले राजीव गांधी ने भारत के गरीब आदमी के जीवन की वास्तविकता नहीं देखी थी। जब प्रधानमत्री के रूप में इस वास्तविकता से उनका साक्षात्कार हुआ तो उनका संवेदनशील व्यक्तित्व आम आदमी के जीवन के लिये बहुत कुछ करने को प्रेरित हुआ। मणीशंकर अय्यर जैसे सहायक अफसरों के कहने पर राजीव गांधी ने भारत के पिछड़े और अविकसित क्षेत्रों के बहुत दौरे किये और इनसे बहुत कुछ सीखा।
अपनी अनुभवहीनता के चलते राजीव गांधी ने दो और बड़ी भूलें की। एक था तमिल विद्रोहियों के विरुद्ध संघर्ष करती श्रीलंका की सेना की सहायता के लिये भारतीय सेना की टुकड़ियां भेजना और इससे भी बड़ी भूल थी बोफोर्स रिश्वत काण्ड पर लोकसभा में बहस के दौरान खड़े होकर यह कहना कि मैंने रिश्वत नहीं ली है। सच बात यह थी कि राजीव गांधी ने बोफोर्स काण्ड में कोई पैसा नहीं लिया था। लेकिन लोकसभा में उनके बचकाने बयान से विरोधियों को उनके ऊपर रिश्वतखोरी का आरोप लगाने का अच्छा बहाना मिल गया।
आम जनता के बीच राजीव गांधी के बढ़ते जनाधार का एक कारण अमिताभ बच्चन का उनको समर्थन था। अमिताभ राजीव के सबसे करीबी मित्र थे और राजीव शासन में उनका बहुत दबदबा था। अमिताभ बच्चन की राजीव से करीबी वी.पी.सिंह और अरूण नेहरू को फूटी आंखों न सुहाती थी। इसलिये अमिताभ बच्चन भी राजीव विरोधियों के षड़यंत्र का शिकार हुऐ। बिना किसी कारण के बोफोर्स काण्ड में उनको भी घसीटा गया। 28 वर्ष बाद जब राजीव गांधी, वी.पी. सिंह और अरूण नेहरू इस संसार से विदा ले चुके थे, अधिकारिक रूप से कहा गया कि बोफोर्स काण्ड में अमिताभ बच्चन का कोई लेना देना नहीं था।
वर्ष 1989 में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की हार हुई और वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने। पर वह एक वर्ष भी सरकार नहीं चला पाये। फिर लगातार तीन प्रधानमंत्रियों के बाद 1991 वर्ष के चुनावों में फिर कांग्रेस सत्ता में आयी। पर चुनाव प्रचार के दौरान 21 मई को श्री पैरम्बूर (तमिलनाडु) में राजीव की हत्या कर दी गयी। अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में भी राजीव गांधी निहित स्वार्थो की शत्रुता का केन्द्र बन रहे थे। पांच बड़े विकासशील राष्ट्रों के दक्षिण अमेरिकी सम्मेलन में पारित यह प्रस्ताव कि विकासशील राष्ट्र विश्व बैंक तथा आईएमएफ का कर्जा न चुकाने के विकल्प के अधिकारी हैं। अमेरिका तथा पूंजीवादी देशों की नींद उड़ा दी। अब राजीव गांधी अमेरिका के आर्थिक-सामरिक तंत्र के सबसे बड़े शत्रु के रूप में पहचान बना चुके थे। अपनी अंतिम यात्रा पर जब वह श्री पैरम्बूर के लिये जा रहे थे, तब उनको छोड़ने दिल्ली हवाई अड्डे पर कांग्रेस सचिव अनिल शास्त्री भी थे। अनिल शास्त्री ने उनसे कहा कि बधाई स्वीकार कीजिये। अब हम लोग चुनाव जीतने वाले ही है और आप प्रधानमंत्री बनेंगे। राजीव गांधी ने कहा वह तो ठीक है पर अमेरिका वाले कुछ काम करने दे तब तो। अनिल शास्त्री का कहना है कि वह राजीव गांधी की प्रतिक्रिया से सकते में आ गये। उनकी कुछ भी समझ मैं न आया कि राजीव ऐसा क्यों कह रहे थे।
अन्तर्राष्ट्रीय पूंजीवाद, भारतीय कारपोरेट सेक्टर, सांप्रदायिक हिन्दुत्व, अन्तर्राष्ट्रीय खालसा मूवमेन्ट तथा तमिल उग्रवाद में निहित स्वार्थ राजीव गांधी के विरोधी थे। साथ ही कांग्रेस पार्टी में वीपी सिंह, अरूण नेहरू, वेंकटरमन, तारिक अनवर आदि भीतरघात के लिये उपयुक्त समय की तलाश कर रहे थे। नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह, शरद पवार तथा नरसिम्हा राव जैसे नेता विरोधी तो नहीं थे लेकिन राजीव गांधी को लेकर बहुत उत्साहित भी न थे। राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह, जिन्होंने कभी कहा था कि इन्दिरा गांधी कहेंगी तो मैं झाडू भी लगा दूंगा, राजीव गांधी के कट्टर विरोधी थे। उन्हें लगता था कि अब नयी पीढ़ी सत्ता में आने वाली है और कभी भी उनकी छुट्टी हो सकती है। दल बदल निषेध बिल लेकर राजीव गांधी अपनी स्थिति को मजबूत समझ रहे थे। पर उन्हें पार्टी के अन्दर षड्यत्र के जाल का कोई अन्दाज़ न था। उन्हें यह भी नहीं पता था कि उनके कुछ विश्वासपात्र नौकरशाह उनके विरोधियों के साथ मिलते हैं।
राजीव गांधी को शायद यह भी अन्दाजा नहीं था कि उनके राजनैतिक मित्र कौन है। जब राष्ट्रपति जैल सिंह जोर शोर से उनकी सरकार को अध्यादेश के सहारे बर्खास्त करने का मन बना रहे थे और सेना अध्यक्षों से बात करना चाह रहे थे कुछ विपक्षी नेताओं, जैसे चन्द्रशेखर, हेमवती नन्दन बहुगुणा, मधु दण्डवते, आरके हेगड़े, ज्योति बसु, इन्द्रजीत गुप्ता आदि ने राष्ट्रपति जैल सिंह को कहा कि ऐसा कोई भी कदम असंवैधानिक होगा और यदि राष्ट्रपति ने ऐसा किया तो उन पर महाभियोग लगाकर पदच्युत करने के लिये राष्ट्रव्यापी आंदोलन चलाया जायेगा। इससे जैल सिंह के बढ़ते कदम रूक गये।
राजीव गांधी के राजनैतिक जीवन की किताब के और भी तमाम अधखुले पन्ने है। आवश्यकता है कि उनको खोला और समझा जाये।
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