वे बोले-आएगा तो मोदी ही!
क्या तय हो गया ,पक्का?
-लोगो की ओपिनियन है"!
लोगो की या 'लोबो " की ?
बोले,"पता नही, डिजिटल में यही चल रहा है।पहले अखबार अलग अलग बोलते थे।
लेकिन खबर भी देते थे। अब एंकर "पी आर ओ" की तरह दिखता है। दाता जगह जगह बोलता है।सबको टटोलता है लेकिन मतदाता इस बार गजब का रोल निभा रहा है।सब कुछ झेल रहा है फिर भी सिर नही उठा रहा है । गज़ब की डिजिटल खामोशी है । कुल मिलाकर चुनाव का ऊंट किस करवट बैठेगा,हम सबके लिए अंदाज़ा लगा पाना अभी मुमकिन नही है।
कविता
हाँ हाँ दादा हाँ हाँ भैया!
सुन! बेटा सुन !!
इस चुनाव में बड़े बड़े गुन!
इसके पीछे है लोकतंत्र की धुन
सुन सके तो सुन
दिखा रहे है सब बड़े बड़े सपने
लेकिन सबके अलग अलग नपने
बैठे ठाले अपने
इनके उनके सबके सपने बुन !
इस हाथ से लिया उस हाथ से दिया
तुमने हमेशा अपने मन की ही किया
लेन दें है यह खेल नहीं है
मेल-जोल की बेल नही है
जैसा चाहे बुन इन सबकी भी सुन !
मन की ही रहे सदा सुनाते
औरों की सुनी नहीं अब औरों की भी सुन!
मतदाता ने मतिदान किया या हमेशा की तरह मतदान किया ,किसकी ओर रुख किया अनुमान नही लगाया जा सकता।
लेकिन आरोप प्रत्यारोप, दलीय प्रचार में भाषा का विचलन , नौकर शाही यानी तंत्र की भूमिगत दबावी करण रेत का भी महल बना सकता है। इसमें शक नही।
साफ साफ कहिये न?
तो सुनिए मतदाता का न बोलने का मतलब है,हम उसका मन टटोल नही पा रहे हैं। लेकिन यह भी जाहिर करता है कि अंदर ही अंदर अडरकरेंट चल रहा है। अगर यह करेंट बीच मे कहीं टूटता है तो करंट की वापसी किसी भूक्षरण का सबब भी बन सकती है। ऐसे में किसके पैरों तले जमीन कब कैसे खिसक जाएगी ,अनुमान लगाना बहुत मुश्किल है।
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