सदियों से उपेक्षित व वंचित रहे समुदायों के प्रति सकारात्मक पक्षपात की बात हमारे संविधान में कही गई है। साथ ही अपना सामाजिक स्तर सुधारने के लिये इन वर्गों के लिये विशेष संवैधानिक प्रावधान भी किये गये हैं। लेकिन इन सबके बावजूद भी यदि हम समाज के इन वंचित वर्ग की मौजूदा स्थिति में नजर डालेंगे तो पाएंगे कि आज भी उनके सशक्तिकरण की दिशा में कोई ठोस कदम आगे नहीं बढ़ा पाएं हैं। वैसे यह बात जगजाहिर है कि समाज के इन वंचित वर्गों को अवसर प्राप्ति के समान अवसर दिला पाना हमेशा से कितना दूभर और संघर्षपूर्ण कार्य रहा है।
समस्या यह है कि हमारी मनोवृत्ति में कोई परिवर्तन नही हुआ है। इसलिये संवैधानिक प्रावधान के अनुसार पूरा सामाजिक परिवर्तन लाने में सहायक सिद्ध नहीं हुए हैं। प्रश्न यह कि इस पृष्ठभूमि में मीडिया की क्या भूमिका रही है। क्या उदारवादी मूल्यों और प्रगतिशील मान्यताओं को बढ़ावा देकर मीडिया ने परिवर्तनकारक की भूमिका का निर्वाह किया है। जब भी आरक्षण का मुद्दा गरम होता है, मीडिया सामान्यतः शोर-शराबे, धरना-प्रदर्शन, हिंसा और उसकी जांच जैसे मुद्दों पर जोर देता हुआ दिखाई देता है।
सामान्यतः दलितों की समाज में स्थिति और उनकी समस्याओं के बारे में मीडिया में गंभीर लेखन नहीं हुआ और न ही इलेक्ट्रॉनिक चैनलों में कभी कोई गंभीर विचार-विमर्श किया गया है। डॉ. मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार के समय में जब राज्यसभा ने पदोन्नति में आरक्षण के बिल को पास कर दिया तब भी मीडिया में विधानसभा चुनाव और सामूहिक बलात्कार के मामले सुर्खियों में रहे और दलितों की स्थिति पर कोई विशेष विचार-विमर्श नहीं हुआ।
संचार माध्यमों की समाज में क्या भूमिका हो इस बारे में आज गंभीर चिन्तन की आवश्यकता है। यह बात सभी लोग मानते हैं कि मीडिया विकास प्रक्रिया का एक सशक्त माध्यम है, जो आम नागरिक में जागरुकता पैदा करके उसको हमारे समाज की समस्याओं के बारे में संज्ञानित करता है और उन समस्याओं के समाधान के लिए प्रेरित करता है। दिनोंदिन संचार का परिदृश्य भी तेजी से बदल रहा है।
पिछले कुछ दशकों में हमारी संचार व्यवस्था का आशातीत विकास हुआ है और आज यह विश्व की सबसे बड़ी संचार व्यवस्थाओं में से एक है। लेकिन मीडिया की पहुंच के दायरे में अभी भी गांव, महिलाएं और समाज के निम्न वर्गों के लोग नहीं आए हैं। इसके कई कारण हैं, जिनमें शिक्षा और क्रय शक्ति का अभाव मुख्य है। यातायात के संसाधनों के अभाव में दूर गांवों या जनजातीय क्षेत्रों में न समाचार पहुंच पाते हैं और न ही टीवी और रेडियो की मरम्मत करने वाले मैकेनिक। बिजली भी इन क्षेत्रों में अक्सर नहीं पहुंचती है। इन्हीं कारणों से शहर से दूर और पिछड़े इलाकों में क्या हो रहा है अक्सर हमें पता ही नहीं लगता है। जो कि भारत जैसे विकासशील देश के लिए चिंता का विषय है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के लगभग 75 वर्ष बाद भी आज हमारा समाज कुलीनतंत्रीय और सामंती की राह में चल रहा है। उपर बैठे हुए लोग विकास का लाभ उठा रहे हैं और गरीब आदमी आज भी प्रगति के अवसर से कोसो दूर है। उन्हें आज भी शिक्षा और संचार क्षेत्र में आने के साधन उपलब्ध नहीं हैं। यह दुःख की बात है कि समाज के वंचित वर्ग के लिए यदि सरकारें कुछ करतीं भी हैं तो उसका निहित स्वार्थों द्वारा पुरजोर विरोध होता है। जिसके कारण समाज में संघर्ष और टकराव की स्थिति में दिनोंदिन इजाफा हो रहा है। जो कि अक्सर जातीय, क्षेत्रीय और कभी-कभी सांप्रदायिक हिंसा के रूप में सामने आता है।
संवैधानिक रूप से हम देश के धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और समाजवादी व्यवस्था स्थापित कने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इस संदर्भ में मीडिया का दायित्व जन कल्याण के काम करना और आम जनमानस के जीवन स्तर में सुधार लाने के लिए प्रयत्नशील रहना है। लेकिन दुर्भाग्यवश मीडिया ने इस दायित्व का निर्वाह न करके यथास्थिति की शक्तियों को ही बल दिया है। जिसके कारण आज भी समाज में विभिन्न स्तरों पर शोषण, गरीबी और पिछड़ेपन की समस्याएं विद्यमान हैं। नियोजित विकास के लाभ, यहां तक कि वंचित वर्गों के लिए बनी सरकारी योजनाओं का लाभ भी मध्यम और बड़े वर्गों के लोगों की पहुंच तक ही सीमित रह जाता है।
वास्तव में यह स्थिति बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन फिर भी हम इस आधुनिक युग में उदारीकरण और लोकतांत्रिक व्यवस्था जैसे सशक्त संसाधनों के बदौलत समाज में एक बेहतर परिवर्तन की उम्मीद तो जरुर कर सकते हैं जिसमें मीडिया की भूमिका बहुत अहम है। (शब्द संख्या 700)
डॉ. जे.एस. यादव, देश के जानेमाने माध्यम शिक्षाशास्त्री तथा संचार शोध शास्त्री है। लंबे समय तक भारतीय जन संचार संस्थान में प्राचार्य तथा निदेशक रहने के बाद अब वह संचार शोध संस्थान कम्युनिकेशन रिसर्च फाउंडेशन के अध्यक्ष हैं।
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