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प्रो राम पुनियानी

A person wearing glasses and a blue shirt

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नई दिल्ली | सोमवार | 2 सितम्बर 2024

न 2024 के लोकसभा चुनाव के नतीजे भारतीय जनता पार्टी के लिए बेहद निराशाजनक रहे। पिछले चुनाव में जहां भाजपा ने 303 सीटें जीती थीं, वहीं इस बार यह संख्या घटकर 240 पर आ गई है। इसका नतीजा यह है कि जहाँ पिछली बार भाजपा की गठबंधन सरकार महज नाममात्र की थी, इस बार सरकार वास्तव में गठबंधन पर अधिक निर्भर नज़र आ रही है। पिछली सरकारों में सहयोगी दलों की सुनने वाला कोई नहीं था, लेकिन अब स्थिति बदल सकती है। गठबंधन के साथी दलों की राय और मांगों को गंभीरता से लिया जाएगा, जो भाजपा के लिए अपनी हिंदू राष्ट्रवादी एजेंडा को पहले की तरह आसानी से लागू करना मुश्किल बना सकता है।

 

इसके अलावा, चुनावी नतीजों से इंडिया गठबंधन की ताकत में भी इजाफा हुआ है। खासकर, राहुल गांधी की लोकप्रियता में बढ़ोतरी ने विपक्ष को एक नई ऊर्जा दी है, जिससे वह अपनी बात को पहले से अधिक मजबूती के साथ रख पा रहा है। यह संकेत है कि भाजपा को अब एक अधिक चुनौतीपूर्ण विपक्ष का सामना करना पड़ेगा।

 

यह कहा जा सकता है कि 2024 के चुनाव में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने भाजपा की मदद के लिए उतनी खुलकर भूमिका नहीं निभाई, जितनी पहले निभाई थी। लेकिन यह सोचना गलत होगा कि आरएसएस भाजपा की हार चाहता था। दरअसल, आरएसएस केवल भाजपा के ‘नॉन-बायोलॉजिकल’ नेता, यानी नरेंद्र मोदी, को चेतावनी देना चाहता था और उनके बढ़ते वर्चस्व को संतुलित करना चाहता था। फिर भी, भाजपा की गाड़ी का स्टीयरिंग व्हील अब भी आरएसएस के हाथों में है। आरएसएस और भाजपा के बीच लंबे समय से चली आ रही बैठकों में चुनाव नतीजों की गहन विवेचना की जा रही है और भविष्य की रणनीति तैयार हो रही है।

 

लेख एक नज़र में
भाजपा की सीटों में गिरावट के बाद, सरकार अब गठबंधन पर अधिक निर्भर होगी। चुनावी नतीजों से इंडिया गठबंधन की ताकत में इजाफा हुआ है, जिससे विपक्ष को एक नई ऊर्जा मिली है।
 आरएसएस ने भाजपा की मदद के लिए उतनी खुलकर भूमिका नहीं निभाई, लेकिन वह अब भाजपा के खोए हुए वोट बैंक को फिर से हासिल करने के लिए हर संभव प्रयास कर रहा है।
आरएसएस की सक्रियता से यह साफ है कि वह केवल एक सांस्कृतिक संगठन नहीं, बल्कि एक राजनीतिक ताकत भी है। अब, हमें ऐसे सामाजिक मूल्यों को बढ़ावा देना होगा, जो हमारे स्वतंत्रता संग्राम के मूल्यों पर आधारित हों।

उत्तर प्रदेश में हुई ऐसी ही एक बैठक में आरएसएस के सह सरकार्यवाह अरुण कुमार शामिल थे, जो लंबे समय से संघ और भाजपा के बीच समन्वय का काम करते आ रहे हैं। लाइव हिंदुस्तान के अनुसार, आरएसएस के वरिष्ठ नेता राम माधव को जम्मू-कश्मीर में हो रहे चुनावों का प्रभार सौंप दिया गया है।

 

आरएसएस को लगता है कि भाजपा की सीटों में गिरावट का एक बड़ा कारण दलित वोटों का इंडिया गठबंधन की ओर खिसक जाना है। इसे रोकने के लिए विश्व हिंदू परिषद (विहिप) को सक्रिय किया जा रहा है। विहिप के कार्यकर्ता दलित बस्तियों में जाकर बैठकें करेंगे और दलितों के साथ भोजन करेंगे। इसके अलावा, विहिप से जुड़े साधु-संत दलित बस्तियों में धार्मिक कार्यक्रम आयोजित करेंगे। द हिंदू के अनुसार, "ये धार्मिक नेता दलितों के घरों में जाएंगे, उनके साथ भोजन करेंगे और उनके लिए सत्संग और धर्म संसदों का आयोजन करेंगे। यह कार्यक्रम विहिप की 9,000 इकाइयों में किए जाएंगे।"

 

यह सब राम मंदिर आंदोलन की याद दिलाता है, जिसकी नींव विहिप ने रखी थी और जिसे भाजपा ने आगे बढ़ाया था। अब, आरएसएस बैकसीट ड्राइविंग कर रहा है। 2024 के लोकसभा चुनावों के नतीजों ने उसे हिला दिया है, और वह भाजपा के खोए हुए वोट बैंक को फिर से हासिल करने के लिए हर संभव प्रयास कर रहा है। आरएसएस की इस सक्रियता से यह साफ है कि वह केवल एक सांस्कृतिक संगठन नहीं, बल्कि एक राजनीतिक ताकत भी है।

 

आरएसएस के इतिहास में भी कई बदलाव हुए हैं। इसके द्वितीय सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर ने अपनी पुस्तक "व्ही ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड" में नाज़ी और फासीवादी विचारधारा का समर्थन किया था। आरएसएस ने तिरंगे का विरोध किया था और भारतीय संविधान का भी। नाथूराम गोडसे द्वारा महात्मा गांधी की हत्या के बाद, आरएसएस की छवि और भी खराब हो गई थी। लेकिन जयप्रकाश नारायण का 'संपूर्ण क्रांति' आंदोलन उभरने के बाद, आरएसएस को फिर से विश्वसनीयता और स्वीकार्यता मिल गई। जेपी, जो खुद स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, आरएसएस की असलियत नहीं समझ पाए। उन्होंने यहां तक कहा, "अगर आरएसएस फासिस्ट है, तो मैं भी फासिस्ट हूँ।"

 

नेहरू को आरएसएस की असली प्रकृति की अच्छी समझ थी। उन्होंने दिसंबर 1947 में प्रांतीय सरकारों के मुखियाओं को लिखे एक पत्र में आरएसएस को नाज़ियों की तरह बताया था और कहा था कि इसकी गतिविधियां भारत के लोकतंत्र के लिए खतरा हैं। आरएसएस की असलियत को लेकर बाद की सरकारों ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया, और आरएसएस ने अपनी जड़ें मजबूत कर लीं।

 

भाजपा के दो कार्यकालों के दौरान, जनता के एक बड़े तबके और कई राजनीतिक दलों का भाजपा से मोहभंग हो गया है। वे अब समझ गए हैं कि नेहरू की बातें सच्चाई पर आधारित थीं। कई नागरिक समाज संगठन, जो चुनावों से दूरी बनाए रखते थे, अब जागरूक हो गए हैं और भाजपा-आरएसएस की नीतियों का विरोध कर रहे हैं। इन्हें अब यह महसूस हो रहा है कि हमारे लोकतंत्र और बहुलतावादी मूल्यों की रक्षा के लिए उन्हें इंडिया गठबंधन का समर्थन करना होगा, भले ही उसकी कुछ कमजोरियां हों।

 

यह समझ केवल राजनीति तक सीमित नहीं है। हम देख रहे हैं कि देश में वैज्ञानिक और तार्किक सोच को दबाने की कोशिश हो रही है और अंधविश्वास को बढ़ावा दिया जा रहा है। प्राचीन भारत की अतार्किक महिमा मंडन हो रही है। हमें बताया जा रहा है कि प्राचीन भारत में प्लास्टिक सर्जरी थी और गौमूत्र में सोना होता है। आईआईटी जैसे उच्च शिक्षा संस्थान अब 'पंचगव्य' की उपयोगिता पर शोध कर रहे हैं।

 

आरएसएस के प्रशिक्षित प्रचारक मीडिया और सोशल मीडिया के जरिये प्रतिगामी मूल्यों को बढ़ावा दे रहे हैं। भाजपा को चुनावों में हराना इस दिशा में पहला कदम है, लेकिन इसके बाद हमें ऐसे सामाजिक मूल्यों को भी बढ़ावा देना होगा, जो हमारे स्वतंत्रता संग्राम के मूल्यों पर आधारित हों। चाहे वह इतिहास हो, विज्ञान हो, या न्याय व्यवस्था, हमें सांप्रदायिक विचारधारा द्वारा बोए गए विषैले पौधों को उखाड़ फेंकना होगा।

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(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)

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