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आज का संस्करण

नई दिल्ली, 22 अप्रैल 2024

रामशरण जोशी

 

उसका हो सकता था

सनातनी भक्त मैं भी !

निर्जीव धर्म पोथियों

से सजी

गोद में उसकी,

जा

बैठ सकता था

मैं ।

इठलाता फिरता

दुंदुभि बजाता विश्व में

उसके प्रताप की ।

उसके प्रताप से

नादिरशाह बन थ्री पीस शूट में,

बसता लंदन, रोम, पेरिस में।

पर,

गोद में बैठ उसकी,

भूलना होता

कौन है मेरा पिता, कौन है माता, कौन है भाई बंधु पड़ोसी,

’ढाई आखर प्रेम का’ बिसराना होता,

याद रखना होता

’ढाई आखर घृणा का’.

विगत भुला कर

लिखना होता नया इतिहास मुझे ’

’उसका’ ।

मुजस्मा बना रहूं ,

शीश उतरवाता रहूं शम्बूक बन कर,

दक्षिणा देता रहूं अंगूठे की,

एकलव्य बन कर,

युगों तक.

उसकी

गोद में बैठ,

चुकानी पड़ती कीमत.

परिचित हूं उसके मंसूबों से.

अब मुझे,

नामज़ूर हैं आततायी मंसूबे. ।

मुझे भूलना होता

यह भी

क्यों छोड़ा था अपनी पत्नी और पुत्र को उसने?

क्यों चुपचाप निकला था अपने प्रासाद से वह

बन बन भटकने के लिए?

शिष्यों से घिरे

उस सत्य ने

क्यों पिया था विष

कोठरियों में जेल की?

यह भी भूलना होता।

कैसे भूलता

उस गड़ेरिये को,

जो सूली पर चढ़ा था,

क्यों,

किसके लिए

लटका रहा था क्रॉस पर?

काटती है चक्कर सूर्य के

पृथ्वी,

तेरी गोदी से नहीं कह पाता इस

इस सत्य को दुनिया से।

माफी मांगी थी इस बागी से

तुमने,

ढाई सौ साल बाद।

फिर बोलो,

क्यों समाऊं तुम्हारी गोद में?

क्यों खाई थी उसने गोलियां

फोर्ड थिएटर में काली मानवता के लिए ?

क्यों दी थी किंग ने शहादत

किसके लिए ? यह भी भूलना पड़ता।

तुम्हारी गोद में,

भूलना तो

यह भी होगा,

उन्होंने

क्यों बरसाए थे बम नर -पिशाच बन कर

दूर -दराज़ के शहरों पर,

हज़ारों अपरचित निरपराधों के हत्यारे बने थे वे,?

बच्चों की चीख़ती आवाज़ों को,नंगे दौड़ते कोमल बदनों को,

वह मासूम मानवता खड़ी थी प्रतिरोध में,

तुम्हारे नापाम बमों के सामने निहत्थी -निर्वस्त्र।

फिर भी तुम बरसाए जा रहे थे बम.

बताओ तो,

कैसे भूलूं ?

कैसे भूलूं उन तीन दीवानों को,

जो झूले थे फांसी पर हंसते -हंसते

हमारी -मेरी-सबकी आज़ादी के लिए ?

उस काया को

कैसे भुला सकता हूं

जिसने खाई थी तीन गोलियां

अपने सीने पर,

फिर शब्द निकले थे

’ है राम’

किसके लिए?

दीवार से चिपकी वे तस्वीरें,

देखी थीं मैंने

उन यातना शिविरों- चैंबरों में,

जो अब शेष नहीं हैं कंकालों में भी,

लेकिन हमास में उन

तस्वीरों के झांकते चेहरों ने

फिर से जन्म ले लिया है,

गिद्ध बन वे,

नोंच रहे हैं

अपने ही शवों को,

दफ़न करके इतिहास को,

हम सब पर

अट्टाहस करने के लिए।

गोद में

उसकी बैठ कर

कैसे भूल जाऊं यह महाविनाश

मैं ?

मेरी चेतना,

मेरे शब्द ,

मेरी वाणी;

ज़म जाएंगे बर्फीली चट्टानों में.

पुरस्कार होगा यह ,

गोद में तुम्हारी बैठने का.

भूलता हूं,

तब,

मुझे लौटना होगा गुफाओं -पहाड़ों -जंगलों में,

सिमिट जाएगी,

हज़ारों सालों की लम्बी यात्रा मेरी,

संगीनों-बमों से बनी तुम्हारी गोद में।

मैं फिर नहीं देख सकूंगा सरोवर में

खिलंदड़ी

हंसों की।

अरण्य में

उन्मुक्तता के साथ मयूर का नाच,

हिरण -खरगोश की लुकाछिपी ,

नहीं सुन सकूंगा,

बुलबुल के गीत.

पुरवई के झोंकों की तालें

फिर सुनाई नहीं देंगी

मुझे।

मुझे,

यह सब मंज़ूर नहीं।

किन्तु,

मंज़ूर है,

खुली आंखों से

मुझे देखना है अंधेरे में चमकते जुगनुओं को,

समंदर में मछलियों की लीलाएं,

देखना है परवाज़

कपोत की

नीले आसमान में.

और ..... और

देखना है मुझे ,

सरहद मुक्त मैदान में, कबड्डी विचारों की।

 

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