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आज का संस्करण

नई दिल्ली, 9 जनवरी 2024

 

ड़ी बेवफ़ा हो जाती है ग़ालिब, ये घड़ी भी सर्दियों में,

5 मिनट और सोने की सोचो तो, 30 मिनट आगे बढ़ जाती है

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मत ढूंढो मुझे इस दुनिया की तन्हाई में,

ठण्ड बहुत है, मैं यही हूँ, अपनी रजाई में..

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तमाम राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के बीच मेरी छोटी सी लोकल समस्या

सारी रात गुज़र जाती है इसी कश्मकश में

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ये हवा कहां से घुस जाती है रजाई में

 

 

 

 

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ऐ सर्दी इतना न इतरा

अगर हिम्मत है तो जून में आ।।

 

Happy Winter 

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