वर्ष 1980 के दशक से प्रारंभ हुए आर्थिक उदारवाद के युग में जन्मी और बढ़ी हुई पीढ़ियों के लिए शायद यह समझना बहुत मुश्किल होगा। 1950-60 के दशकों में युवावस्था की दहलीज पर पैर रखने वालों के लिए विरोध का कितना महत्व था। यथास्थिति और व्यवस्था तथा स्थापित समस्याओं का विरोध करने वाले स्वर बहुत ही सम्मानजनक तथा रोमांचकारी माने जाते थे जिन्हे सामाजिक संचेतना रखने वाला हर युवा अपना आदर्श बनाना चाहता था।
वर्ष 1947 में ब्रिटिश उपनिवेशवाद से मिली स्वतंत्रता के 15-20 वर्ष बीत जाने के बाद भी 1950-60 के दशक में सामाजिक वातावरण पूर्णता, स्वतंत्रता संग्राम की कहानियों और राजनीति की बातों से ओतप्रोत रहता था। हमें कभी कभी लगता था कि काश हम कुछ जल्दी पैदा हो जाते जिससे कि शहीद-ए-आजम भगत सिंह या नेताजी सुभाष चंद्र बोस की तरह अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष कर सकते। ऐसे वातावरण में वर्तमान नेताओं में हमारे आदर्श मूर्ति भनजक डॉ राम मनोहर लोहिया, अपने सर्वशक्तिमान पिता और देश के चहेते प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का विरोध करके केरल की साम्यवादी सरकार गिराने वाली इंदिरा गांधी, दाढ़ीवाले युवा तर्क चंद्रशेखर और दमदार मजदूर नेता जॉर्ज फर्नांडिस होते थे। पिछली पीढ़ी के अरूणा आसफ अली, आचार्य नरेंद्र देव तथा जयप्रकाश नारायण जैसे क्रांतिकारी नेताओं के लिए हमारे हृदय में सम्मान का भाव था पर संत विनोबा भावे जैसे गांधीवादी नेता हमें कतई नहीं भाते थे।
यह लेख 1950-60 के दशक में भारत के राजनीतिक माहौल की याद दिलाता है, जब युवा पीढ़ी व्यवस्था विरोध और सामाजिक परिवर्तन के लिए लड़ रही थी।
उस समय के नेताओं में जॉर्ज फर्नांडिस, डॉ. राम मनोहर लोहिया, इंदिरा गांधी और जयप्रकाश नारायण जैसे नाम शामिल थे।
जॉर्ज फर्नांडिस, एक मजदूर नेता और समाजवादी नेता थे, जिन्होंने 1967 में दक्षिण मुंबई से चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। वे
1974 में जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन में शामिल हुए और 1975 में आपातकाल के दौरान जेल गए। 1977 में वे जनता पार्टी की सरकार में उद्योग मंत्री बने और कानपुर की स्वदेशी कॉटन मिल्स में हड़ताली मजदूरों के लिए लड़े。
लेखक के अनुसार, जॉर्ज फर्नांडिस का राजनीतिक जीवन स्वर्णकाल था, लेकिन बाद में वे भाजपा के साथ जुड़े और अपनी पुरानी प्रतिबद्धताओं को भूल गए।
वे मजदूर आंदोलन और पूंजीवाद विरोध के लिए लड़ना बंद कर दिया और धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर चुप हो गए।
अंत में वे इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिए गए। लेखक के अनुसार, जॉर्ज फर्नांडिस की गलती थी कि वे क्रांतिकारी और व्यवस्था विरोधी नेता दक्षिण पंक्ति व्यवस्था के ताबेदार बन गए थे।
वर्ष 1967 के आम चुनाव आए और जॉर्ज फर्नांडिस ने दक्षिण मुंबई की सीट से चुनाव में खड़े होकर मुंबई के शक्तिशाली औद्योगिक घरानों को सीधी चुनौती दी और मुंबई के बेताज बादशाह कहे जाने वाले उनके कांग्रेस प्रत्याशी एस के पाटिल को चुनाव में धूल चटा दी। किसी को भी इस बेमेल संघर्ष में जॉर्ज की विजय की आशा नहीं थी। चुनाव के परिणाम ने विजेता और प्राजिता दोनों पक्षों को आश्चर्यचकित कर दिया। एक दिन में ही जॉर्ज हमारे हीरो नंबर वन बन गए। हमें लगा कि हमें इस महान नेता के पद चिन्हों पर चलना चाहिए। हम लोग बिना उनसे मिले और बिना उन्हें जाने ही उनके अनुयायी हो गए।
जॉर्ज कर्नाटक राज्य के मंगलौर से आते थे। मुंबई को उन्होंने अपना कार्यक्षेत्र बनाया था। उत्तर भारत में रहने वाले हम लोगों का उनसे कोई खास संपर्क नहीं था। सूचना क्रांति का युग भी नहीं आया था और संचार के साधन भी बहुत कम थे। फिर मैं अपनी पत्रकारिता की नौकरी, अध्ययन तथा घरेलू उलझनों के बीच लखनऊ और फिर बाद में चंडीगढ़ से दिल्ली जाकर जॉर्ज से मिलने का कोई समय मुश्किल से ही निकाल पाता। हां लखनऊ, कानपुर चंडीगढ़ और दिल्ली में मेरे कुछ करीबी दोस्त अवश्य थे जो जॉर्ज साहब से मिलकर उनके बारे में मुझे बताया करते थे। मित्रों में प्रमुख थे के विक्रम राव, डॉक्टर विनियन, स्वराज कौशल व सुषमा स्वराज, रवि नायर, गणेश पांडे, इरशाद अली तथा शंभू नाथ सिंह।
फिर वर्ष 1974 में जयप्रकाश नारायण का संपूर्ण क्रांति आंदोलन तथा 1975 में आपातकाल की रात काली रात आई। जैसी हमें आशा थी जॉर्ज संघर्षकारियो की अग्रिम पंक्ति में थे। वह तमाम विपक्षी नेताओं की तरह पकड़े गए और बड़ौदा डायनामाइट केस में उन्हें सजा हुई। फिर आया वर्ष 1977 का आम चुनाव जो आपातकाल की पृष्ठभूमि में हुआ था। जॉर्ज ने जेल से ही चुनाव लड़ा और मुजफ्फरपुर की सीट से 4,50,000 मतों की रिकॉर्ड जीत हासिल की । श्रीमती इंदिरा गांधी की कांग्रेस को पराजित कर जनता पार्टी की सरकार बनी। मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बने और जॉर्ज को उद्योग मंत्री बनाया गया।
वर्ष 1977 के उत्तरार्ध में कानपुर की स्वदेशी कॉटन मिल्स में हड़ताली मजदूरों और प्रबंधन के बीच हिंसक तकरार हुई। प्रबंधन के बाहुबलियों ने हड़ताली मजदूरों पर गोली चलाई जिसमें कई मजदूर मारे गए। मेरे अभिन्न मित्र और मजदूर नेता गणेश पांडे के नेतृत्व में एक डेलिगेशन दिल्ली में उद्योग मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस से मिला और उन्हें कानपुर आकर स्वयं स्थिति का आंकलन करने को कहा।
जॉर्ज कानपुर आए और तमाम लोगों से बातचीत की। जॉर्ज मजदूरों की दशा सुनकर व्यथित हुए और दिल्ली वापस जाकर उन्होंने एक आदेश पारित किया जिसके अंतर्गत स्वदेशी औद्योगिक घराने की सात मिलो को सरकार ने अपने हाथ में ले लिया। यह जॉर्ज के राजनीतिक जीवन का सबसे महान क्षण था। मेरे जैसे जॉर्ज के तमाम प्रशंसक और अनुयायी सातवें आसमान पर थे। हमें लगा कि भारत को एक सक्षम नेतृत्व देनेवाले जिस नेता की हम लोगों को बरसों से तलाश थी, वह अब हमें मिल गया है। उस समय हमें लगा कि जॉर्ज भारत का भविष्य हैं और भारत जॉर्ज का।
जॉर्ज वहां ही नहीं रुके उनके मंत्रालय ने पेकी नामक प्रबंधन प्रशिक्षण संस्था बनाई जिसका उद्देश्य सरकारी उपक्रमों के लिए नई दिशा और दृष्टिकोण वाले प्रतिभाशाली प्रबंधकों की टीमे बनाना था। डॉ नितीश डे इस संस्था के निदेशक नियुक्त हुए। मेरे मित्र डॉक्टर राजेश टंडन और कल्पना मेहता संकाय सदस्य के रूप में इस संस्थान से जुड़े।
हमारे अनुसार यह जॉर्ज के राजनीतिक जीवन का स्वर्णकाल था। और हम सब खुशी के मारे फूल कर कुप्पा हो रहे थे। फिर ना जाने कहां स्थिति बिगड़ने शुरू हुईl मोरारजी देसाई की सरकार विवादों में घिर गई और वर्ष 1979 के मध्य में उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। जनता पार्टी विभाजित हो गई और चरण सिंह प्रधानमंत्री बने थे। जॉर्ज तब चरण सिंह के साथ आए फिर कुछ ही महीने बाद चरण सिंह की सरकार भी गिर गई और आम चुनाव हुए जिसमें इंदिरा गांधी कांग्रेस के साथ फिर सत्ता में आ गई।
वर्ष 1980 के अप्रैल में भारतीय जनता पार्टी अस्तित्व में आई जो पुराने जनसंघ का नया रूप था। भाजपा के चतुर और चालाक नेताओं ने जॉर्ज पर डोरे डालने शुरू किए और जॉर्ज उनमे फंसते चले गए। अटल बिहारी वाजपेई ने जॉर्ज से खासी अच्छी दोस्ती गाँठ ली। भाजपा नेताओं ने जॉर्ज की लोहियावादी मनोवृति को भी हवा दी जिसके अंतर्गत नेहरू-गांधी परिवार का विरोध करना सबसे बड़ा राजनीतिक दर्शन था।
जॉर्ज तथा नेहरू-गांधी परिवार के विरोधी अन्य समाजवादी मित्र भाजपा की शतरंजी चाल को बिल्कुल नहीं समझ पाएl उनकी यह बिलकुल समझ में नहीं आया कि कुछ गलत हो रहा है| जब भाजपा की पहल पर राष्ट्रीय जनतांत्रिक मोर्चा का गठन हुआ तो जॉर्ज को उसका संयोजक बनाया गया। जॉर्ज और उनके सहयोगी समझे कि वह भाजपा को अपनी line pr जाएंगे, लेकिन हुआ उल्टा ही। जॉर्ज और उनके सहयोगी ही भाजपा की दिशा में चल दिए। सुषमा स्वराज तो विधिवत रूप से भाजपा में शामिल हो गयी।
भाजपा के पास जाकर जॉर्ज अपनी पुरानी प्रतिबद्धताऐ भूलते गए। मजदूर आंदोलन और पूंजीवाद विरोध धीरे-धीरे बीते जमाने की बातें होने लगी। धर्मनिरपेक्षता भी पीछे पड़ गई। वर्ष 1992 में जब बाबरी मस्जिद तोड़ी गई और देश में हिंसक प्रदर्शन और दंगे हुए तब जॉर्ज चुप ही रहे।फिर उन्होंने वर्ष 1994 में नीतीश कुमार तथा शरद यादव के साथ मिलकर समता पार्टी बनाई जिसमें भाजपा और कांग्रेस से परे किसी तीसरे विकल्प की संभावना की बात कृ गयी तीसरा विकल्प की कांग्रेस विरोध की निति के कारन इससे देश की राजनीती का वामपंथी रुझान और भी कमजोर हो गया। भारत के औद्योगिक घरानों और सांप्रदायिक शक्तियों को कभी मुंबई का शेर कहे जानेवाले जॉर्ज फर्नांडिस से अब कोई खतरा नहीं था।
भाजपा और आर एस एस ने जॉर्ज से अपने संबंधों का पूरा पूरा राजनीतिक लाभ उठाया। वाजपेयी युग की समाप्ति के बाद भाजपा के नए नेताओं ने जब पाया कि जॉर्ज कि कोई उपयोगिता नहीं रह गयी है तो उन्हें इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया। जॉर्ज की गलती थी कि वह क्रांतिकारी और व्यवस्था विरोधी नेता दक्षिण पंक्ति व्यवस्था के ताबेदार बन गए थे । वर्ष 2019 में इस महान नेता की मृत्यु का समाचार अखबारों के हाशिये पर ही दिखा। फिर उनका जन्मदिवस कभी समाचार भी न बन सका।
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