हमारे देश में धार्मिक स्थान क्षेत्र के अनुसार चार धामों में विभक्त किये गये है। इन धामों में से "जगन्नाथ धाम" उड़ीसा प्रान्त के पुरी नामक स्थान में है जो भुवनेश्वर से लगभग 35 किमी दूर है जहां विश्व के कोने-कोने से दर्शक और तीर्थयात्री आते है।
जगन्नाथपुरी धाम में प्रतिवर्ष आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया के दिन रथ यात्रा का आयोजन किया जाता है। यह रथयात्रा महोत्सव भगवान कृष्ण की गोकुल से मथुरा तक की यात्रा की स्मृति के रूप में मनाया जाता है। इसी रथयात्रा के कारण यहां करोड़ों की संख्या में तीर्थ यात्री आते है। गेल लगाग एक माह तक चलता है। जगन्नाथ मंदिर के कारण ही पुरे विश्व में प्रसिद्ध है।
भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा के आयोजन के लिए 14 मीटर ऊँचाई तथा ग्यारह मीटर चौड़ाई वाले लकड़ी के रथ मन्दिर का निर्माण किया जाता है जिसे लगभग हजारो की संख्या में लोग दितीया के दिन बड़े उत्साह के साथ खींचते है। इस रथ में श्री जगन्नाथ जी की मूर्ति बैठाई जाती है। यह रथयात्रा जगन्नाथ उद्यान से शुरू होकर गुंडी चाबारी तक जाती है जो लगभग दो किमी की दूरी पर स्थित है। फिर भी इस यात्रा में चौबीस घंटे का समय लग जाता है। इसी गुंडी चावारी में सात दिन तक विश्राम करने के बाद भगवान जगन्नाथ अपने धाम वापिस आते है। रथयात्रा के उपलक्ष्य में एक मेले का भी आयोजन किया जाता है।
अपनी सुन्दरता तथा अनुपम छटा के लिये जगन्नाथ धाम अनूठा है। इस मन्दिर की रचना अलौकिक एवं अत्तीम कसीदाकारी युक्त है। मन्दिर काले पत्थर को तराश कर बनाया गया है। यह मन्दिर पुरी नगर के बीचों बीच स्थित है। इस मन्दिर में बैंगवान जगन्नाथ की मूर्ति प्रतिष्ठत है। इस मूर्ति में हीरा जड़ा हुआ है जो काले पत्थर के बीच अपनी अनोखी छटा निखारता है। इसी मन्दिर में भगवान जगन्धाथ के भाई तथा बहन वलभद्र तथा सुभद्रा की मूर्तियां भी प्रतिष्ठित है जो चंदन की लकड़ी ते बनाई गयी है। इन मूर्तियों को बहुमूल्य हीरो, जवाहरत, रत्नों एवं रेशमी योटों से सजाया जाता है।
मंदिर देखने में बहुत सुन्दर आकर्षक लगता है। यह दो परकोटों के बीच स्थित है जो शिल्पकला की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस मन्दिर के चारों तरफ प्रवेश द्वार है। इनमें पहला प्रवेश द्वार अत्यन्त सुन्दर है। इसके सामने दोनों ओर दो शेरों की मूर्तियां बनी हुई है। इन्ही सिंह मूर्तियों के कारण इते सिंह द्वार कहा जाता है।
सिंहद्वार के तामने ही काले रंग का सुन्दर अरुण स्तम्भ जिस पर सूर्य तारथी अरुण की प्रतिमा बनी हुई है। यह स्तम्भ कोणार्क के सूर्य मन्दिर से लोकर यहां स्थापित किया गया है।
मन्दिर के पश्चिमी भाग में व्याध द्वार तथा उत्त्तर में गज हस्तिहूँ द्वार, एवं दक्षिण की ओर अश्व द्वार है। इन द्वारों का नाम उनके पास बने जानवरों के चित्रो के कारण रखा गया है। यह मन्दिर लगभग 60 मीटर ऊंचा है। परकोटे के मुख्य मंदिर में जाने पर दूसरे दृश्य देखने को मिलते है। इस मन्दिर में पश्चिम में एक रत्न वेदी पर सुदर्शन चक्र बना है। इस मन्दिर के भी चार भाग है।
पहला भाग प्रसाद मण्डप कहलाता है। दूसरा भाग जगमोहन मण्डल, तीसरा भाग मुख्य मण्डल तथा चौथा भाग जगन्नाथ मण्डल कहलाता है। यह मण्डप एक दूसरे से मिले हुए है। लेकिन उनका उपयोग अलग अलग है। इस मन्दिर में तीन दिन तक दर्शनाथियों- तीर्थयात्रियों को निःशुल्क भोजन मिलता है। जो प्रसाद मण्डप में वितरित किया जाता है। समुद्र में स्नान करने के बाद जगन्नाथ मंदिर के दर्शन किये जाते है। यहां से पीपल का बर्तन खरीद कर ले जाना धार्मिक दृष्टि से अच्छा माना जाता है। मंदिर की व्यवस्था में सैकड़ो लोग लगे हुए है। जो देखने में स्वयं तेवी पण्डे प्रतीत होते है। इस स्थान मन्दिर की आर्थिक व्यवस्था में धनी वर्ग के लोग अपना सहयोग देते है।
मंदिरों के इतिहास से पता चलता है कि यह मन्दिर 12वीं शताब्दी के लगभग बनवाया गया है। पुरी का नाम प्राचीन काल में पुरुषोत्तम स्थल तथा लक्ष्मी स्थल भी बताया जाता है। इस मन्दिर का निर्माण कलिंग प्रान्त के राजा चोड़गंग ने करवाया था। जिसमें जगन्नाथ भगवान की मूर्ति प्रतिष्ठत की गयी। तभी से यह स्थान जगन्नाथ पुरी के नाम से प्रसिद्ध हुआ दूसरे मत के अनुसार पहले यहां बौद्ध मठ बने हुए थे। बाद मैं यहां जगन्नाथ मंदिर का निर्माण कराया गया।
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