राजेश जोशी जी जितने बड़े कवि हैं, उतने ही बड़े किस्सागो भी। उन्हें सुनना हमेशा ही रोचक और मजेदार होता है। मजे-मजे में वे बहुत गंभीर बातें भी कह जाते हैं और अगर आप सावधान नहीं हैं तो बात आप की मुट्ठी से फिसल जाएगी । हिंदी कविता' पर उनका लाइव था। उस लाइव में लाग डाट भी लाइव हो गया।
वैसे विषय था 'साहित्य की राजनीति और कविता का वर्तमान' विषय पर। लेकिन राजेश ने विषय को सिर के बजाय सिरे से पकड़ा ।
उन्होंने कहा कि वस्तुतः किसी भी रचना समय के भीतर साहित्य की राजनीति विरेचन यानी केथार्सिस की तरह चलती रहती है। यह कई बार आलोचना के लिए सामग्री भी मुहैया कराती है। यह कोई अछूत कर्म नहीं है। हर समय कुछ धुरंधर साहित्यकार इसे संचालित करते रहते हैं। यह कोई नयी बात नहीं। उन्होंने एक किस्सा सुनाया।
एक बार अकबर ने केशव से पूछा, सबसे बड़ा कवि कौन है? केशव ने कहा, निस्संदेह मैं हूँ । अकबर ने सवाल किया, लेकिन लोग तो कहते हैं कि तुलसी और सूर बड़े कवि हैं। केशव ने कहा, वे तो भक्त हैं कवि तो मैं ही हूँ।
अरब द्वारा 50 साल पुराने पेट्रोडॉलर समझौते को नवीनीकृत करने से इनकार करने के बाद भारत को पेट्रोलियम मूल्य निर्धारण की नई व्यवस्था की उम्मीद है, जो जून की शुरुआत में समाप्त हो गया था। वास्तव में, सऊदी अरब के साथ एक नया समझौता हो सकता है, लेकिन सस्ते सौदे की उम्मीद करना एक सपना ही रहेगा क्योंकि रियाल डॉलर से जुड़ा हुआ है।
यह धीरे-धीरे वैश्विक अर्थव्यस्था में नए रास्ते खोल सकता है। पेट्रोडॉलर प्रणाली ने मूल्य के मानक के रूप में सोने की जगह ले ली, जिससे अमेरिका को अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर प्रभुत्व बनाए रखने में मदद मिली और अमेरिकी सरकार को दुनिया के ऊर्जा बाजार को नियंत्रित करने की अनुमति मिली।
सऊदी अरब का यह निर्णय दोनों देशों के बीबीये 1974 में स्थापित दीर्घकालिक वित्तीय व्यवस्था से एक महत्वपूर्ण बदलाव है। पेट्रोडॉलर के पुनर्चक्रण की व्यवस्था ने अमेरिकी डॉलर को अंतर्राष्ट्रीय तेल लेनदेन के लिए प्राथमिक मुद्रा के रूप में स्थापित कर दिया।
अनुबंध को नवीनीकृत न करने का महत्वपूर्ण निर्णय सऊदी अरब को केवल अमेरिकी डॉलर के बजाय चीनी आरएमबी, यूरो, येन और युआन सहित कई मुद्राओं में तेल और अन्य सामान बेचने में सक्षम बनाता है।
जोशी जी आगे बढ़े। छायावाद की कथा की ओर। छायावाद के दौरान कविता और भाषा के स्तर पर जो परिवर्तन हो रहे थे, उसे पुराने लोग स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। उस समय के भी कई लोगों को यह सब कुबूल नहीं था। इसलिए चारों ओर से हमले हो रहे थे। सारे हमले झेल रहे थे महाप्राण निराला। यह न समझिये कि साहित्य की राजनीति छोटे लोग ही करते हैं। बड़े-बड़े लेखक भी राजनीति करते रहे हैं। तब आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने निराला जी के विरुद्ध 'पाषंड प्रतिषेध' शीर्षक से दस कवित्त लिखे। यह भी कहते हैं कि उस समय निराला जी के खिलाफ 'भावों की भिड़ंत' शीर्षक से एक लेख मैथिलीशरण गुप्त ने छद्म नाम से लिखा। केवल साहित्यकार और लेखक संगठन ही राजनीति करते हों, ऐसा नहीं है, अकादमियां भी राजनीति करती हैं। छायावाद के एक कवि सुमित्रानंदन पंत को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया। जोशी जी ने जोर देकर कहा कि पता किया जाना चाहिए कि ज्ञानपीठ पुरस्कार की उस जूरी में कौन-कौन लेखक थे और निराला के प्रति उनकी दृष्टि क्या थी।
जोशी जी ने साहित्य की राजनीति का विस्तृत ब्योरा देते हुए तमाम दिलचस्प कहानियां सुनायीं। उन्होंने बताया कि साठोत्तरी पीढ़ी सर्वाधिक विवादप्रिय पीढी थी। विष्णु खरे को विवाद खड़े करने में महारत थी। जब हुसैन को लेकर भारी विवाद था तब उन्होंने जनसत्ता में एक लेख लिखकर कहा कि हुसेन ने ऐसी पेंटिंग बनायी, जिससे लोगों की भावनाओं को ठेस लगी। उनकी आलोचना पर भी एक पुस्तक छपी, जिसका नाम था, 'आलोचना की पहली किताब।' इसी पीढ़ी में अशोक वाजपेयी के परिचय में विवादास्पद संस्कृति कर्मी लिखा जाता था। जब अशोक जी वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति रहे तो उन्होंने नीलाभ को उस समय के तमाम साहित्यिक विवादों को संकलित करने का काम सौंपा। नीलाभ ने दो हजार पृष्ठों में कुल चार खंडों में यह काम पूरा किया। विश्वविद्यालय ने ही इसे प्रकाशित किया। ७०-८० के दशक के ये विवाद वहां पढ़े जा सकते हैं।
उन्होंने बताया कि मनोहर श्याम जोशी जब 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' के संपादक थे, 'शहर और सन्नाटा' नाम से एक स्तम्भ प्रकाशित होता था। उसमें शहरों में चलने वाले साहित्यिक विवादों पर सामग्री होती थी। भोपाल पर भी दो अंकों में छपा था, जिसके केंद्र में अशोक वाजपेयी ही थे। साहित्यिक रचनाओं के रूप में भी कई विवाद सामने आये। पंकज बिष्ट का उपन्यास 'लेकिन दरवाजा', दूधनाथ सिंह जी का 'नमो अंधकारम' रवीन्द्र कालिया की कहानी 'काला रजिस्टर' और ज्ञानरंजन जी की 'बहिर्गमन' को इस रूप में पढ़ा जा सकता है। राजनादगांव के एक कालेज के परिसर में फैले प्रपंचों को समेटने का भी एक गंभीर प्रयास मुक्तिबोध ने 'विपात्र' में किया।
जोशी जी ने कविता के वर्तमान पर चर्चा करते हुए कहा कि किसी भी कविता समय में कई पीढ़ियां एक साथ काम कर रही होती हैं लेकिन जब हम वर्तमान कविता या कविता के वर्तमान पर बात करते हैं तो हमें देखना पड़ेगा कि अंतरवस्तु में, शिल्प में, भाषा में वह पिछली पीढ़ी की कविता से किस तरह अलग है। कविता के वर्तमान को हम ९० के बाद पिछले तीन दशक की कविता के मूल्यांकन से समझ सकते हैं। सोवियत संघ के विघटन, भूमंडलीकरण के आगमन के साथ ही दुनिया यूनीपोलर हो जाती है। विचारधाराओं के अंत की घोषणा होती है, हालांकि उसके जनक बाद में अपने चिंतन को गलत मानते हुए इसे संशोधित करते हैं। इसी दौर में टेक्नालाजी से जुड़े तमाम परिवर्तन होते हैं और दुनिया बहुत छोटी हो जाती है। कविता में इस दौर में अस्मितामूलक विमर्श अपनी जगह बनाते हैं और स्त्री, आदिवासी, दलित, पर्यावरण आदि रचना के केन्द्र की ओर खिसक आते हैं। एक आश्चर्यजनक फेनामेना दिखती है कि बड़ी संख्या में स्त्री रचनाकार सामने आती हैं। दलित और आदिवासी भी। आप देख सकते हैं कविता की भाषा, उसका शिल्प किस तरह बदला है। आगे कविता क्या रूप ग्रहण करेगी, अभी हम अनुमान ही लगा सकते हैं।
अगर आप राजेश जी की बात से सहमत हैं तो मंत्र मुग्ध भी हो सकते हैं।हम तो बिना कतरब्योत के उनकी बात दुहरा भर सकते है।हाँ जहां तक मन्तव्य की बात है सुभाष राय जी बेहतर टिप्पणी कर सकते है। वैसे साहित्यिक अचार परोसने के लिए सभी अधिकृत हैं।
(राजेश जी से क्षमा याचना के साथ)
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