कई सालों तक हम मानते रहे की रज़िया सुलतान से पहले भारत में कोई रानी राज पाट नहीं चलाती थी। इतिहास की जो क़िताबें स्कूल में पढाई जाती थी उसमे कई कई साल गायब थे भारत के इतिहास से। सिर्फ साल गायब होते तो कोई बहुत अंतर पड़ता ऐसा नहीं है, कई कई इलाक़े भी गायब थे।
जैसे इतिहास की किताबें उलटेंगे तो कश्मीर का जिक्र शायद ही कहीं मिले। बंगाल के आगे जिसे आज नार्थ ईस्ट कहते हैं उसका जिक्र भी नहीं आता।
कश्मीर में दसवीं शताब्दी में एक रानी थी दिद्दा, ये बड़ी ही दुष्ट रानी थी। अपने बेटे के संरक्षक के रूप में रानी बनी थी और इस से पहले कि बेटा राज काज सँभालने लायक हो उसे मरवा देती थी, फिर उस से छोटे बेटे के संरक्षक के तौर पर रानी बन जाती थी। इस तरह उसने अपने कई बेटों को मरवाया।
एक भली सी रानी थी वारंगल में, ककातीय वंश की रुद्रम्मा (1259–1288), वो अपने क़ानूनी दस्तावेजों के लिए विख्यात हैं। राज्य के सारे दस्तावेज वो ऐसी भाषा में लिखवाती थीं जो पुल्लिंग हों। उनके शाषण काल के दस्तावेज देखकर रानी के जारी किये दस्तावेज हैं ये पता करना थोड़ा मुश्किल होता है।
गृह्वर्मन जो कि कान्यकुब्ज के आखरी मुखारी वंश के राजा थे उनकी विधवा पत्नी राज्यश्री भी राज काज देखती थीं। बाद में उनके हर्ष राजा हुए। अक्कादेवी जो की चालुक्य राजा जयसिम्हा द्वित्तीय (1015–1042) की बहन थी वो भी राज पाट देखती थीं। अपने भाई के राज्य काल में ही वो एक छोटे राज्य की रानी थी। कुन्दावी प्रसिद्ध चोल राजा राजराजा प्रथम की बड़ी बहन थी। वो भी अपने भाई के राज्य में ही एक छोटे राज्य की रानी थी।
अक्कादेवी ने कई लड़ाइयों में भाग लिया था, किलों के घेराव का भी वो नेतृत्व करती थी। होयसल राजा विरबल्लाला द्वितीय (1173–1220) की रानी थी उमादेवी, वो दो बार अपने अधीनस्थ राजाओं के विद्रोह करने पर उनके ख़िलाफ़ सैन्य अभियानों के नेतृत्व में थी।
ये सारे पन्ने हमारी किताबों से गायब हो गए हैं। शुक्र है की रानी चेनम्मा और रानी लक्ष्मीबाई ज्यादा पुराने समय की नहीं हैं। लोक कथाओं ने इन्हें भारत के कल्पित इतिहास में विलुप्त होने से बचा लिया।
कल्हण की लिखी राजतरंगिनी कश्मीर के इतिहास को पहचानने का महत्वपूर्ण दस्तावेज माना जाता रहा है। इसमें 958 AD में कश्मीर की बागडोर दिद्दा नाम की एक रानी के हाथ में जाने का जिक्र है। कश्मीर की महत्वपूर्ण रानियों में से ये भी एक थीं। ये लोहार सरदार सिम्हराज की बेटी थी और खेमगुप्ता नाम के राजा से इनकी शादी हुई थी। पति के मृत्यु के बाद इन्होने करीब 45 साल शासन किया (1003 AD तक)। इस दौरान लगातार इनके पुत्रों की और फिर पोतों की मृत्यु एक एक कर के होती रही। सिर्फ इतना ही नहीं रानी के आस पास के कई मंत्री और सिपहसलार जिनसे रानी का भरोसा उठा वो भी सब मार दिए गए थे। दिद्दा नाम की ये रानी ही शायद बाद की कश्मीरी लोककथाओं में “किश्तवाड़ की डायन” के नाम से कुख्यात है।
आज ये “किश्तवाड़ की डायन” सिर्फ किस्से कहानियों में जिन्दा है। एक प्रचलित लोककथा के अनुसार डोगरा राजा महाराजा प्रताप सिंह ने एक बार इस “किश्तवाड़ की डायन” को अपने दरबार में बुलाया ताकि उस से जुड़ी भ्रांतियां दूर की जा सके। “किश्तवाड़ की डायन” ने बीच दरबार में एक सेब लाकर रख देने को कहा। थोड़ी देर बाद जब सेब को उठाया गया तो उसका सिर्फ छिलका बाकि था, अन्दर की तरफ से सेब बिलकुल खोखला था।
हालाँकि इन घटनाओं पर विश्वास करना लगभग नामुमकिन है, इतिहास में भी कहीं किसी “किश्तवाड़ की डायन” का कोई जिक्र नहीं आता। लेकिन अगर कश्मीर की लोक परम्पराएँ देखें तो आज भी बच्चों को डराने के लिए कहा जाता है की “किश्तवाड़ की डायन” उठा ले जायेगी! और बच्चे तो बच्चे हैं, सीधे से भोले भाले से वो बेचारे डर भी जाते हैं “किश्तवाड़ की डायन” का नाम सुनकर।
हम तथ्यों के लिए समाचार चैनल देखते हैं। इनमें जो तथ्य नहीं बताये जाते उनपर जरूर सोचते हैं।
कश्मीर की महारानी दिद्दा का इतिहास जो पुस्तकों में नही मिलेगा:
उत्तर पंथ के इतिहास में रज़िया सुल्तान को छोड़कर और कोई रानी हुई ही नहीं। भारतवर्ष में कुल 35,000 ऐसी रानियाँ हैं जिन्होंने मंगोल, मुग़ल, अश्शूर, तुर्क, यवन, हून इत्यादि क्रूर आक्रमणकारियों को परास्त की थी एवं ऐसे और रानी हुए जिन्होंने भारत से लेकर यूरोप, एशिया, इत्यादि अन्य कई देशो पर भगवा परचम लहराया था।
पर कहा हैं ऐसे वीरांगनाओं की गाथा, खो गया। इतिहासकारों की चाटुकारिता ने कई विदुषी एवं राष्ट्रभक्त वीरांगनाओं को
इतिहास से मिटा दिया गया।
कश्यपमेरु (कश्मीर) के प्राचीन इतिहास का प्रमाणिक इतिहास महाकवि "कल्हण" ने सन 1148-49 में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "राजतरंगिणी" में लिखा था। इस पुस्तक में 8 तरंग यानि अध्याय और संस्कृत में कुल 7826 श्लोक हैं। इस पुस्तक के अनुसार कश्यपमेरु (कश्मीर) का नाम "कश्यपमेरु" था। कश्यपमेरु (कश्मीर) की उत्पल्वंशीय वीरव्रती महारानी दिद्दा (958 ई.-1003 ई.) कश्यपमेरु (कश्मीर) की महारानी थी। महारानी दिद्दा, राजा सिंहराज की पुत्री और कुम्भा (वर्तमान काबुल) के हिन्दु शाही भीम शाही की पोत्री थी। सन् 950 ई. में दिद्दा का पति सम्राट क्षेमगुप्त कश्यपमेरु (कश्मीर) के राज सिंहासन पर बैठा राजा के अस्वस्थ हो जाने पर महारानी दिद्दा ने सम्राट क्षेमगुप्त एवं प्रशासन की डोर इतनी व्यवहार कुशलता से पकड़ी हुई थी कि लोग सम्राट को दिद्दाक्षेम कहने लग गए। सन् 958 ई. में सम्राट क्षेमगुप्त की मृत्यु हो गई। उसका पुत्र अभिमन्यु यद्यपि छोटा था प्रजाओ के मत एवं राजदरबारी राजाओ की सहमति से महारानी दिद्दा सम्राज्ञी बन गई। अब दिद्दा ने स्पष्ट रूप से संवैधानिक प्रमुख के रूप में सत्ता संभाली और एक शक्तिशाली सम्राज्ञी के रूप में कश्यपमेरु (कश्मीर) प्रदेश पर शासन करने लगी।
रानी दिद्दा का राज्य कश्यपमेरु (कश्मीर) से लेकर मध्य एशिया तक फैला हुआ था।
सम्राज्ञी दिद्दा शस्त्र प्रशिक्षण:
सम्राज्ञी दिद्दा शस्त्र प्रशिक्षण में महारथ प्राप्त किये थी। चारो दिशा में ऐसी वीर नारी ध्वज का परचम अश्शूर राज्य तक लहराई थी। महारानी दिद्दा नियुद्ध कला में निपुण थी। यह एक प्राचीन भारतीय युद्ध कला (मार्शल आर्ट) है। नियुद्ध का शाब्दिक अर्थ है 'बिना हथियार के युद्ध' अर्थात् स्वयं निःशस्त्र रहते हुये आक्रमण तथा संरक्षण करने की कला, यन्त्र मुक्ता कला अस्त्र शस्त्र के उपकरण जैसे घनुष और बाण चलने की कला, पाणि मुक्ता कला, हाथ से फैंके जाने वाले अस्त्र जैसे कि भाला, मुक्ता कला, हाथ में पकड कर किन्तु अस्त्र की तरह प्रहार करने वाले शस्त्र जैसे कि बर्छी, त्रिशूल आदि, हस्त शस्त्र कला, हाथ में पकड कर आघात करने वाले हथियार जैसे तलवार, गदा अदि ऐसे 52 युद्ध कला की प्रशिक्षण लेकर गुरुकुल से योद्धा बनकर निकली योद्धा दिद्दा भविष्यकाल में सम्राज्ञी दिद्दा बन कर अपने ध्वज का परचम मध्य एशिया तक लहराकर भारतवर्ष एवं सनातन धर्म की गौरवमयी एवं स्वर्णिम इतिहास रच डाले थे।
देशद्रोहियों को मौत की सजा:
दिद्दा ने देशभक्त एवं योग्य लोगों को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त करके देशद्रोहियों एवं अक्षम प्रशासनिक अधिकारियों को बाहर का रास्ता दिखाया। इस शक्तिशाली रानी ने अनेक गद्दार लोगों को उम्रकैद तथा मृत्युदंड तक दिए। कश्यपमेरु (कश्मीर) राज्य की सुरक्षा के लिए ऐसा करना आवश्यक था। दिद्दा को जहां इतिहासकारों ने निष्ठुर निर्दयी कहा, वहीं इस रानी को न केवल भारतीय राष्ट्रभक्त बल्कि विदेशी इतिहासकारों द्वारा कुशल एवं शौर्यशाली प्रशासिका भी कहा गया। रानी दूरदर्शी थी अपने राज्य को अपने देश को सुरक्षित रखने के लिए अन्दर पल रहे आस्तीन के सांपो का सर कुचलना सबसे ज्यादा आवश्यक लगा उन्हें पता था बाहर से आक्रमण होते नहीं हैं करवाए जाते हैं जैसे शरीर के किसी हिस्से में घाव हो जाये तो उसका अंदरूनी इलाज सबसे ज्यादा आवश्यक होता अंदरूनी कीटाणु मरेंगे तभी बाहर का घाव सूखेगा ठीक उसी तरह देश के अंदर के गद्दारों का जब तक अंत नहीं होता तब तक देश की सीमा सुरक्षित नहीं हो सकती देश को बाहरी आक्रमण झेलने पड़ेंगे। और इसी वजह से रानी इतिहासकारों की नज़र में क्रूर थी।
रानी दिद्दा के शौर्य ।।।
रानी दिद्दा १५० से अधिक युद्ध लड़नेवाली प्रथम महिला शासिका थी जिसमे से कुछ युद्ध की वर्णन ।
सन ९६५ ईस्वी में ज़ियारिद साम्राज्य के सुल्तान वुश्मगीर (Vushmgir) इस जिहादी का साम्राज्य खोरासन, बगदाद, गजनी, तबारिस्तान था इसने अपनी जिहादी सेना का प्रधान अबू मुहम्मद गिलान ने कश्यपमेरु (कश्मीर) पर आक्रमण किया था।
सुल्तान वुश्मगीर (Vushmgir) एक कायर सुल्तान था। इसने कभी खुद युद्ध नहीं किया, हमेशा इसने अपनी सेनापति भेजा दुसरे देशो पर आक्रमण करने के लिये पर इस बार इसने भारतवर्ष पर आक्रमण कर के बड़ी गलती कर दिया। रानी दिद्दा ने युद्ध में इस कायर सुल्तान के सेना को परास्त कर दिया एवं म्लेच्छों के सेना को भागने का अवसर न देते हुए सेनापति मुहम्मद गिलान को पकड़कर हाथी के पैरो तले कुचलवा कर मार दिया।
रानी दिद्दा का मानना था “घायल शत्रु को क्षमादान करके छोड़ देना अंतत: शत्रु दुगनी ताकत के साथ वापस आता है ”। रानी दिद्दा ने खोरासन में सैन्य अभियान चला कर खोरासन, अमोल, गोरगन पर विजय पाकर अपना ध्वज लहराई थी।
बाल्कन की कृम साम्राज्य के शासक बोरिस द्वितीय सन ९६९ ईस्वी में कु्रम पर आक्रमण किया था (जिन्हें आज बल्ख के नाम से जाने जाते हैं) किसी समय वह सम्राज्ञी दिद्दा के राज्य का हिस्सा हुआ करता था। महारानी दिद्दा केवल कुशल शासिका ही नहीं एक कुशल रणनीतिज्ञ भी थी। दिद्दा एक कुशल सेना संचालिका होने के नाते सोचा ना जा सके ऐसा युद्धव्यूह की रचना की और यवन शासक बोरिस की शक्तिशाली सेनाबल आधे घंटे के अन्दर घुटने टेक दिए। जहाँ कायर बोरिस दस बारह हज़ार सैनिक की आड़ लेकर लड़ रहा था वही सम्राज्ञी दिद्दा स्वयं मोर्चा सँभालते हुए सेनाबल के आगे खड़ी थी।
सर्प व्यूह का प्रहार झेल नहीं पाया।
प्राचीन भारतीय युद्ध व्यूह की रचना यवन के समझ के बाहर था रानी दिद्दा के आगे बचे सैनिक के साथ हथियार डाल कर आत्मसमर्पण किया एवं बाल्कन, बुल्गरिया की साम्राज्य पर रानी दिद्दा ने परचम लहराकर भारतीय इतिहास में स्वर्णिम इतिहास की एक और पृष्ठ जोड़ दिया था।
संदर्भ: प्रारंभिक मध्यकालीन बाल्कन, एन आर्बर, 1983
सन ९७२ ईस्वी में यारोपोल्क प्रथम को हरा कर रूस साम्राज्य की एक चौथाई हिस्से पर सम्राज्ञी दिद्दा ने अपना अधिपत्य स्थापित किया था। इस विदुषी अवतरित नारी की रणकौशल को देख पराजित रूस राजा स्वयं अपने किताब दक्षिण एशिया नारी (South Asian Women) किताब में सम्राज्ञी दिद्दा बुद्धि एवं शक्ति की वर्णन करते हुये कहा है, भारतभूमि की मिट्टी की वंदना करने की बात लिखा गया हैं। भारत की मिट्टी विश्वभर में सबसे चमत्कारी मिट्टी हैं जहाँ की नर नारी दोनों पराक्रमी होते हैं। और भी सम्राज्ञी दिद्दा के बारे में उल्लेखनीय वर्णन किया है और आगे लिखता है उनकी (यारोपोल्क प्रथम) हार के पीछे यह कारण था कि उसका युद्ध (सम्राज्ञी दिद्दा) एक कुशल रणनीतिज्ञ एवं एक बुद्धिमती, पराक्रमी अद्भुत सैन्यसंचालिका से हुई थी। इसलिए उसके पास एक ही रास्ता था मृत्यु या आत्मसमर्पण जिसमे से यारोपोल्क प्रथम ने आत्मसमर्पण करना उचित समझा था।
नारी शिक्षा एवं उत्थान:
दिद्दा ने नारी शिक्षा एवं उत्थान के अनेकों प्रकल्प शुरू करवाए। कई विकास योजनाएं प्रारंभ हुईं। भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में अनेक योग्य लोगों को निर्माण कार्यों में दायित्व दिए गए। एक बड़ी योजना के अधीन कई नगर एवं गांव बसाए गए। दिद्दा ने मठ/मंदिरों के निर्माण में भी पूरी रुचि ली। श्रीनगर (कश्मीर) में आज भी एक मोहल्ला 'दिद्दामर्ग' के नाम से जाना जाता है। यहीं पर एक विशाल सार्वजनिक भवन दिद्दा मठ के नाम से बनवाया गया। इस विशाल मठ के खंडहर आज भी मौजूद हैं।
इस संदर्भ में दिद्दा को एक वीरांगना पराक्रमी सफल शासिका की संज्ञा दी जा सकती है। इतिहास में दिद्दा की सफलताओं, उसकी प्रजा हितेशी शासन व्यवस्था और राष्ट्रद्रोहियों एवं भारतवर्ष पर विदेशी लुटेरों को खदेड़ा इससे उसकी क्षमता के उदाहरण तो मिलते हैं, परंतु उसपर इतिहासकारों ने विशेषतया लेखकों ने भीरूता के आरोप लगाए हैं उनका कोई ठोस आधार नहीं मिलता।
पचास वर्षों तक शासन पर निरंतर एक महिला का अधिकार रहना अपने आपमें उसकी क्षमता, सफलता और प्रबल इच्छाशक्ति का मापदंड है। विश्व के इतिहास में अन्यत्र ऐसा उदाहरण मिलना कठिन है। पहले रानी के रूप में, फिर प्रत्यक्ष शासिका के रूप में वह कश्मीर पर अपना अधिपत्य जमाए रही। दिद्दा भारत के इतिहास के उन महत्वपूर्ण चरित्रों में से है, जिन्होंने षड्यंत्रों और हत्याओं की राजनीति एवं आक्रमणकारी पर निरंतर विजय प्राप्त की। इस वीरव्रती साम्राज्ञी ने विद्रोहों एवं कठिनाइयों से ग्रस्त कश्मीर राज्य को अपने साहस और योग्यता से संगठित रखा।
पराक्रमी उत्पलवंश के एक अति यशस्वी सरदार सिंहराज की पुत्री दिद्दा ने एक शक्तिशाली कूटनीतिज्ञ के रूप में पचास वर्षों तक अपना वर्चस्व बनाए रखा। उत्पलवंश के ख्याति प्राप्त राजाओं ने कश्मीर के इतिहास में अपना गौरवशाली स्थान अपने शौर्य से बनाया है। स्थानीय लोग आज भी लोक कथाओं में दिद्दा की हिम्मत और कुशलता का गुणगान करते हैं।
जब महारानी दिद्दा वृद्धावस्था में पहुंचीं तो उसने अपने भाई उदयराज के युवा पुत्र संग्रामराज का स्वयं अपने हाथों से राज्याभिषेक कर दिया। आगे चलकर इसी सम्राट संग्रामराज ने काबुल राजवंश के अंतिम हिन्दू सम्राट राजा त्रिलोचनपाल के साथ मिलकर ईरान, तुर्किस्तान और भारत के कुछ हिस्सों में भयानक अत्याचार व लूटमार करने वाले क्रूर महमूद गजनवी को पुंछ (जम्मू-कश्मीर) के लोहरकोट किले के निकटवर्ती जंगलों में दो बार पराजित किया था।
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