विश्व के इतिहास में जितनी भी महिलाएं सत्ता के सर्वोच्च शिखर तक पहुंची है, उनमें श्रीमती इंदिरा गाँधी का स्थान बहुत ऊंचा है। अपने राजनीतिक जीवन में अगर श्रीमती गाँधी दो गलतियाँ न करती तो शायद वो विश्व की अब तक की सबसे महान और सफल महिला शासक होती। अपने दोनों कार्यकाल में जो कि वर्ष 1966 से 1977 तक फिर वर्ष 1980 से लेकर 84 तक चले इंदिरा गाँधी ने एक एक बड़ी गलती करी। पहली गलती थी 1975 में आपातकाल लगाना और दूसरे कार्यकाल में उनकी गलती थी सिक्खो के सबसे पवित्र धर्म स्थल स्वर्ण मंदिर पर सैनिक कार्यवाही जो बाद में उनकी हत्या का कारण बनी।
आपातकाल के बारे में बहुत कुछ कहा जाता है। इंदिरा गाँधी को तानाशाह और लोकतंत्र विरोधी और भी जाने क्या क्या कहा गया है। आज उनकी मृत्यु के 40 साल बाद भी प्रधानमंत्री मोदी की भाजपा इसको एक राजनीतिक मुद्दा बनाकर भुनाने का प्रयास करती है। अभी पिछले दिनों जब विपक्ष ने आरोप लगाया कि भाजपा का शासन अधिनायकवादी है और मोदी जी तमाम ऐसे फैसले कर रहे हैं जो कि जनतांत्रिक नहीं है भाजपा सरकार ने कांग्रेस पर पलटवार करते हुए आपातकाल को एक नेशनल ऑब्सर्वेशन डे बना दिया। बात स्पष्ट थी कि आपातकाल के मु्द्दे को जो बहुत पुराना हो चुका है उसको दोबारा पुनः जीवित किया जाए।
आपातकाल के बारे में कई बातें कही जाती हैं। लेकिन हमें दो बातें स्पष्ट समझनी चाहिए। आपातकाल इंदिरा गाँधी ने इसलिए नहीं लगाया था कि वह अपनी कुर्सी बचाना चाहती थी या उनको किसी भी तरह से सत्ता से हटने का डर था। वह वास्तव में समझती थी कि उनकी सरकार के विरुद्ध हो रहे आन्दोलन से देश की सुरक्षा को खतरा है। सेना और पुलिस को सरकारी आदेश न माननेवाली बात कह कर सम्पूर्ण क्रांति के जननायक जय प्रकाश नारायण (जेपी) ने इंदिरा गाँधी के इस विश्वास को और भी मजबूत बनाया।
श्रीमती इंदिरा गाँधी को उनके करीबी और बहुत ही मज़े हुए और सुलझे हुए कुछ सहयोगियों ने सुझाव दिया था कि आपातकाल लगाने में कोई हर्ज नहीं है और थोड़े दिनों के बाद इसको हटाया जा सकता है। अंदर की कहानी यह है कि जब जेपी का संपूर्ण क्रांति आंदोलन चल रहा था उस समय संजय गाँधी जो कि इंदिरा गाँधी के छोटे पुत्र होने के साथ साथ उनके निकट राजनीतिक सहयोगी भी थे, बहुत परेशान थे। उनका मानना था कि यह आंदोलन देश की उस प्रगति के रास्ते में आ रहा है जिसका वह सूत्रधार बनना चाहते थे। हरियाणा के मुख्यमंत्री बंसीलाल संजय गाँधी के बहुत करीबी थे। संजय गाँधी ने उनसे बात की और बंसीलाल ने यह बात राज्य के तत्कालीन गवर्नर बीएन चक्रवर्ती से कही। चक्रवर्ती साहब ने बताया कि संविधान में इस समस्या से निबटने का प्रावधान और आपातकाल लगाकर उसके द्वारा सम्पूर्ण क्रांति का पूरा अभियान रोका जा सकता है और विरोधी नेताओं के मुँह बंद किए जा सकते हैं।
राज्यपाल बी एन चक्रवर्ती वरिष्ठ अधिवक्ता थे और उनको कानून की बहुत अच्छी जानकारी थी। उन्होंने आपातकाल के प्रावधान पर लिख कर नोट बनाया। प्रस्ताव लेकर संजय गाँधी इंदिरा गाँधी के पास गए। लेकिन श्रीमती इंदिरा गाँधी एकदम से राजी नहीं हुई। वो तभी भी अनिश्चय की स्थिति में थी और इसलिए राय लेने के लिए उन्होंने तत्कालीन मंत्री और पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे से बात करी। सिद्धार्थ शंकर रे और श्रीमती गाँधी के बहुत पुराने संबंध थे यहां तक कि वह इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री ना कहकर इंदिरा कहकर बुलाते थे। सिद्धार्थ शंकर रे कानून के विशेषज्ञ और बहुत पढ़े लिखे विद्वान थे। उनका देश के बौद्विक समाज में बहुत आदर था जब सिद्धार्थ शंकर रे ने कहा की आपातकाल लगाने में कोई हर्ज़ नहीं है तब श्रीमती गाँधी इस बात के लिए तैयार हुई और उन्होंने तत्कालीन गृहमंत्री जगजीवन राम से कहा और देश में आपातकाल लागू कर दिया गया।
लगभग 18 महीने के आपातकाल के बाद वर्ष 1977 में चुनाव हुए और उनमें नयी बनी जनता पार्टी ने श्रीमती गाँधी की कांग्रेस को सत्ता के बाहर कर दिया। श्रीमती गाँधी और संजय गाँधी दोनों चुनाव हार गए। ये सब बाते हम जानते हैं लेकिन मूल प्रश्न यह है कि क्या आपातकाल का कारण केवल कोर्ट का वह फैंसला था जिसके तहत श्रीमती इंदिरा गाँधी का लोकसभा चुनाव अवैध पाया गया था। आइये हम इंदिरा गाँधी के राजनैतिक विरोध की पृष्ठभूमि को समझने का प्रयास करते है।
वर्ष 1966 में प्रधानमंत्री बनने के बाद श्रीमती गाँधी को कांग्रेस के तमाम पुराने नेताओं का विरोध सहना पड़ा। ये वो नेता थे जिन्होंने श्रीमती गाँधी को इस आशा से प्रधानमंत्री बनाया था या बनने में सहायता की थी कि वह एक कमजोर प्रधानमंत्री रहेंगी और वो जैसा चाहेंगे, करते रहेंगे और देश के शासन पर उनकी पकड़ बनी रहेगी। लेकिन उनकी आशा के विपरीत इंदिरा गाँधी एक लोकप्रिय और दमदार प्रधानमंत्री साबित हुई। उन्हें व्यापक जन समर्थन मिला और एक युवा नेता के रूप में उन्होंने नई पीढ़ी को पूरी तरह प्रभावित किया। श्रीमती गाँधी ने कई लोकलुभावन निर्णय लिए और एक बिलकुल स्वतंत्र लाइन पर चलना शुरू किया। कांग्रेस के पुराने नेता इससे खुश नहीं थे। उन्होंने श्रीमती गाँधी के खिलाफ़ एक मुहिम चालू कर दी। इसी के तहत कांग्रेस का विभाजन भी हुआ और आपसी संघर्ष का इतिहास शुरू हुआ ।
कैसे डॉ जाकिर हुसैन की मृत्यु के बाद राष्ट्रपति पद पर झगड़ा हुआ और श्री वीबी गिरी किस तरह राष्ट्रपति बने, इन सब बातो का इतिहास साक्षी है। लेकिन इसके पीछे एक और चीज़ थी जिस पर ध्यान नहीं गया। श्रीमति गाँधी ने स्पष्ट किया वह भारत की गरीब जनता के साथ है और इस दिशा में उन्होंने बैंको का सरकारीकरण तथा प्रिवी पर्स बंद करने जैसे कई आर्थिक रूप से क्रन्तिकारी कदम उठाये। इनसे देश के निहित स्वार्थ वाले उस वर्ग के हितो पर सोधा प्रहार हुआ जो की देश के व्यापार और अर्थव्यवस्था पर अपना पूरा शिकंजा कायम करते आये थे। उनको लगा कि श्रीमती गाँधी का पुरजोर राजनीतिक विरोध नहीं किया तो कहीं ऐसा ना हो कि अर्थतंत्र पर उनका शिकंजा और इस शिकंजे के साथ देश पर उनका वर्षों से चला आ रहा वर्चस्व ही समाप्त ना हो जाए।
जैसा हम सब जानते है वर्ष 1971 के भारत - पाक युद्ध में इंदिरा गाँधी ने पाकिस्तान को तोड़ा, बांग्लादेश को आजाद कराया और एक बड़ी ऐतिहासिक विजय हासिल करी। इसके बाद श्रीमती गाँधी का प्रभाव और लोकप्रियता बहुत ज्यादा बढ़ने लगी। श्रीमती गाँधी के विरोधियो को इससे बड़ी चिंता हुई और उन्होंने षड्यंत्र रचना शुरू किया। वर्ष 1973 में गुजरात में नवनिर्माण आंदोलन शुरू हुआ जो कि ज्यादा सफल नहीं हुआ। इसके बाद इंदिरा गाँधी के विरोधी दलों ने जय प्रकाश नारायण को पकड़ा। जय प्रकाश नारायण नेहरू जी के बड़े करीब थे और इंदिरा गाँधी को अपनी पुत्री की तरह मानते थे, लेकिन किसी बात पर उनका और इंदिरा गाँधी के अहम का टकराव हो गया और जय प्रकाश नारायण ने इंदिरा गाँधी के विरूद्ध सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन शुरू किया।
जय प्रकाश नारायण समाजवादी विचारधारा से आए थे। भारत में समाजवाद की स्थापना में उनका बहुत बड़ा नाम था l जय प्रकाश नारायण को चुपचाप आरएसएस ने समर्थन देना शुरू किया। अगर आज संघ परिवार देश में सत्ता पर काबिज है तो इसकी जड़ें उसी आन्दोलन से आती हैं। उन्होंने जय प्रकाश नारायण के सम्पूर्णक्रान्ति आंदोलन में घुसपैठ करी और धीरे धीरे देश की राजनीति में अपना स्थान बनाया। जय प्रकाश नारायण से उनके कुछ लोगों ने कहा भी की इस आंदोलन में संघ परिवार के सांप्रदायिक लोग आ गए हैं, लेकिन जय प्रकाश नारायण ने इस बात की परवाह नहीं करी l
धीरे धीरे सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन बढ़ता चला गया। पर हद तब हुई की जब जय प्रकाश नारायण ने एक दिल्ली में रैली करी और यहाँ तक कहा कि देश की सेना और पुलिस को सरकार की बात नहीं माननी चाहिए क्योंकि ये सरकार भ्रष्ट है। पुलिस और सेना को सरकार का विरोध करने के लिए उकसाने वाली बात तो राष्ट्रद्रोह की बात थी और सचमुच बहुत गम्भीर बात थी। तब श्रीमती गाँधी को इस स्थिति से निबटने के लिए कुछ कुछ कदम उठाने के बारे में सोचना पड़ा और आपातकाल लगा।
ये निर्णय गलत साबित हुआ। श्रीमती गाँधी को इसका परिणाम भुगतना पड़ा और इतनी लोकप्रिय नेता होने के बाद भी वर्ष 1977 के चुनाव में उनकी और उनके पुत्र संजय गाँधी की हार हुई।
आपातकाल की पृष्ठभूमि क्या थी, इसके बारे में लोग नहीं जानते l पृष्ठभूमि थी श्रीमती इंदिरा गाँधी के खिलाफ़ एक षड्यंत्र जो की देश की व्यापारिक, आर्थिक निहित स्वार्थ और साम्प्रदायिक शक्तियों की सयुक्त परियोजना थी। इसमें उन्होंने जय प्रकाश नारायण को मोहरा बनाया और एक प्रतिष्ठित राजनेता होने के बावजूद भी वह उस चक्रव्यूह में फंस गए। जब जनता पार्टी सरकार बनी जय प्रकाश नारायण को उन्होंने भुला दिया और उनका पूरा वचर्स्व समाप्त हो गया। मृत्यु होने पर जय प्रकाश नारायण को कोई उस तरह का सामान नहीं मिला जिसके वह हकदार थे जबकि उन्होंने उस आंदोलन का सूत्रपात किया था जिसने श्रीमती इंदिरा गाँधी को सत्ता से हटाया था ।
अन्त में हम कह सकते है कि आपातकाल खास तरह की परिस्थितियों में हुआ जिनकी पृष्ठभूमि में इंदिरा गाँधी के विरुद्ध एक सोचे समझे षड्यंत्र की रूपरेखा बनी थी। लेकिन जो भी हो इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि यह श्रीमती गाँधी की एक बहुत बड़ी भूल थी जिसका उनको खामियाजा भुगतना पड़ा और देश की जनतांत्रिक छवि पर एक धब्बा लगा। इंदिरा गाँधी की जयंती के अवसर पर हम ये कह सकते हैं कि किसी भी बड़े नेता को ना सिर्फ अच्छा जन प्रतिनिधि, कुशल प्रशासक और लोकप्रियव्यक्त होना चाहिए, उसको उन सब राजनीतिक षडयंत्रों के बारे में भी जानकारी रखनी चाहिए जो निहित स्वार्थ रखनेवाले विरोधी चुपचाप उसके खिलाफ़ करते हैं।
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लेखक : वरिष्ठ पत्रकार , मीडिया गुरु एवं मीडिया मैप के संपादक है।
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