घूम रहे कविताई में।
अनगिन गीत जनम भर गाए
लेकिन खुद रह गए अगाए,
सुनते रहे व्यथा औरों की
अपने दर्द कहाँ कह पाए,
हमने पूरी उम्र खपा दी
जलकर पीर पराई में।
इसीलिए तो चर्चित हैं हम
अब भी लोक हँसाई में।l
हमसे मत पूछो दुनिया में
क्या-क्या बुरा-भला देखा है,
न्याय देवता के हाथों में
हमने खून लगा देखा है,
चंदा से उजले मुखड़ों पर
भी काले धब्बे देखे हैं,
हमने देवों की चादर पर
भी पैबंद लगे देखे हैं,
जीभ काँपती है कहने में
फिर भी लो तुमको बतलाएँ,
सरस्वती के छद्म वेश में
पुजती देखी हैं गणिकाएँ,
इसीलिए तो आग रमाए
घूम रहे कविताई में।
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(बलबीर सिंह 'करुण')
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