भारतीय पत्रकारिता संस्थान में प्राध्यापक के रूप में मैं अपने छात्रों से लगातार अनुरोध करता रहता था कि वह सम्पादकाचार्य पंडित अम्बिका प्रसाद वाजपेयी जैसे मनीषियों का अनुकरण करें। इसका कारण है कि आज बनियावाद या मार्केटिंग के युग में भारत के पत्रकार अपनी जिम्मेदारियों से विमुख हो गए हैं।
पत्रकारिता सत्य शोधन एवं ज्ञान के संगम का प्रतीक है। स्वर्गीय वाजपेयी जी ने बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशक में ही निष्पक्ष लेखन की जो मिसाल रखी थी , उसको आज हमने भुला दिया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने भारत की राज्य व्यवस्था पर भी लगातार लेखन किया था. संभवतः भारत की सुधारवादी लोक व्यवस्था के उनके योगदान के कारण अंतर्राष्ट्रीय रेड क्रॉस ने पुलिस व्यवस्था में सुधार के लिए देश में अनेक कार्यशालाएं आयोजित की।
इनका उद्देश्य था कि ब्रिटिश सरकार के दमनकारी पुलिस सुधार के लिए नए क़ानून बनाए जाए । सुप्रीम कोर्ट के 2006 के विस्तृत निर्देशों के बावजूद उत्तर प्रदेश एवं बिहार जैसे बड़े राज्य नया पुलिस अधिनियम बनाने के लिए तैयार नहीं है । उत्तर प्रदेश सरकार तो शासन में सुधार के बजाए बुलडोज़र के इस्तेमाल में अधिक विश्वास करती है । मुझे उम्मीद है कि आज के अख़बार इस दमनकारी व्यवस्स्था को महिमामंडित कर के सरकारों के कृपाभाजन बनने का प्रयास करेंगे।कुछ वर्षों पूर्व मैंने कुछ विद्वानों को सुझाव दिया कि उनके पत्रकारिता एवं अन्य क्षेत्रों के योगदान पर शोध भी कराएं।
मुझे प्रसन्नता है कि इंदौर के देवी अहिल्या विश्वविद्यालय में उन पर शोध का कार्यक्रम चल रहा है। लखनऊ के आकाशवाणी केंद्र ने इस वर्ष कार्यक्रम भी प्रस्तुत किया था ।
वाजपेयी जी का जन्म सन 1857 के ग़दर के सिर्फ 23 सालों बाद तीस दिसम्बर सन 1880 को कानपुर में गंगा के तट पर हुआ था। इनके पितामह पंडित रामचंद्र वाजपेयी नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में न्याय एवं धार्मिक मामलों के मंत्री थे।ग़दर के दौरान ही ईस्टइंडिया कम्पनी के कारकुनों की नज़र से दूर गंगा के किनारे उनके परिवार ने शरण ले ली थी । कानपुर में प्राम्भिक पढाई करके वह पिता कन्दर्प नारायण के पास कलकत्ता चले आए, जो वहां वह व्यापार करते थे ।
अनुमान है कि उस समय उनकी इतनी आमदनी थी ग़दर के बाद विस्थापित परिवार का भरण -पोषण कर सके । उस दौरान कानपुर में आमदनी के कोई साधन ऐसे नहीं थे कि व्यापार या नौकरी करके परिवार का खर्च उठाया जा सके। परिवार की महिलाएँ कानपुर में बच्चों का लालन-पालन करती थी और वयस्क या कमाने लायक होते बेटों को ही कलकत्ते भेज दिया जाता था । बेटियों का विवाह करके परिवार उनकी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाता था।
युवा अवस्था से ही आधुनिक भारतीय पत्रकारिता के संस्थापकों में अग्रज मनाए जाने वाले एवं हिंदी के प्रथम दैनिक, भारत मित्र के संस्थापक-संपादक, उनकी रुचि राजनीति एवं अध्ययन में अधिक रुचि थी।सुभाषचंद्र बोस एवं मौलाना अबुल कलम आज़ाद के साथ कलकत्ते की जेल में भी रहे ।
वह सन १९२० में हुए कलकत्ते के ऐतिहासिक कांग्रेस सम्मलेन में, जिसकी अध्यक्षता लाला लाजपत राय ने की थे और महात्मा गाँधी के सविनय अवज्ञा आंदोलन की रूपरेखा प्रस्तुत की थे, स्वागत समिति के उपाध्यक्ष थे।
हिंदी के अतिरिक्त बंगला, उर्दू , मराठी , गुजराती एवं अंग्रेजी में उनका ज्ञान मातृभाषा जैसा ही था।उनकी पुस्तकों में व्याकरण पर लिखी गई पुस्तक, हिंदी कौमदी , पत्रकारिता का इतिहास, कला आज भी उपयोगी है। हिन्दी बंगवासी' तथा 'भारतमित्र' (1911-1919) के अतिरिक्त (1920 -1930) के अवधि में हिंदी दैनिक स्वतंत्र का संपादन किया। आज उनके जन्म दिवस के पावन अवसर पर हमारा यह प्रयास पंडित अम्बिका प्रसाद वाजपेयी जैसे मनीषियों द्वारा स्थापित उदार राजनैतिक चिन्तन, समग्रवादी दृष्टिकोण एवं पत्रकारिता की उदात्त परम्पराओं के अनुरूप निष्पक्ष पत्रकारिता की परम्पराओं के नए मानदंड स्थापित करेगा।
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