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आज का संस्करण

नई दिल्ली, 28 नवंबर 2023

अब अमेरिका अकेला सुपर पावर नहीं, चीन भी है समकक्ष

डॉक्टर सलीम ख़ान

शिया पेसेफिक इकनॉमिक को-ऑप्रेशन (APEC) प्रशांत महासागर के इर्द-गिर्द की अर्थव्यवस्थाओं का एक ग्रुप है। इस का मक़सद क्षेत्र में व्यापार, पूंजीनिवेश और आर्थिक विकास को बढ़ावा देना है। ये बलॉक एशिया पेसेफिक के बढ़ते हुए परस्पर सहयोग से फ़ायदा उठाने और इलाक़ाई आर्थिक विकास के ज़रिये क्षेत्र के लोगों के लिए ज़्यादा ख़ुशहाली पैदा करने के लिए कोशिश काती है। एपीईसी का आग़ाज़1989 में12 सदस्यों के साथ हुआ था लेकिन वक़्त के साथ ये संख्या 21 पर पहुंच गई। इस ग्रुप में अमेरिका, चीन, रूस, जापान, इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया, कनाडा, मैक्सिको, पैरौ, चिली, मलेशिया, और आस्ट्रेलिया जैसे बड़े देश के अलावा बरूनाई, हांगकांग, न्यूज़ीलैंड, पापवा न्यू गिनी, फ़िलपाइन, वियतनाम, सिंगापुर, थाइलैंड और ताइवान जैसे नन्हे मुन्ने देश भी शामिल हैं लेकिन उनमें भारत नदारद है ।1991 में सदस्यता हासिल करने की कोशिश मेजोरिटी की हिमायत के बावजूद नाकाम हो गई क्योंकि आर्थिक पालिसियों के हवाले से कुछ आशंकाएं और सुरक्षा संबंधी रुझान राह में रुकावट बन गए।1997 मैं नए सदस्यों के दाख़िला पर रोक लगी जो 2012 में उठी मगर फिर भी दाल नहीं गली । यही वजह है कि हालिया सम्मेलन में दर्शक के रूप में पियूष गोयल ने शिरकत की। प्रधानमंत्री ख़ुद नहीं जा सके।

एशिया पेसेफिक इकनॉमिक को-ऑप्रेशन (APEC) कान्फ़्रेंस में भारत की ग़ैरमौजूदगी जिस क़दर हैरत-अंगेज़ है उतनी ही ताज्जुबख़ेज़ उस में अमेरिका में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाईडन की उनके चीनी काउंटरपार्ट शि जिनपिंग से मुलाक़ात है। जी ट्वेंटी के सम्मेलन में जो रहनुमा अपने पड़ोसी देश भारत नहीं आ सका वह हज़ारों किलोमीटर की दूरी तय करके अमेरिका पहुंच गया। इस से अंदाज़ा किया जा सकता है कि बीजिंग के इन दोनों प्रोग्रामों की अहमियत में कितना फ़र्क़ है? जहां तक विश्व गुरु बनने का ख़ाब देखने वाले भारत का सवाल है उस के लिए अपने ही इलाक़े के सुरक्षा और व्सापार बाहसों से दूर रहना किस क़दर तकलीफ़दे होगा इस का अंदाज़ा लगाने की ख़ातिर प्रधानमंत्री मोदी की रूह को टटोल कर देखना होगा। अमेरिकी और चीनी सरबराह एक साल बाद ऐसे वक़्त में एक दूसरे से मिले जबकि दोनों विश्व संकटों फ़िलिस्तीन-इसराईल और यूक्रेन-रूस पर उनके बीच गंभीर मतभेद है । बीजिंग ने ग़ज़्ज़ा में शहरियों की हलाकत पर इसराईल के ख़िलाफ़ स्टैंड अपना रखा है और रूस के मामले में चीन की मुख़ालफ़त वाशिंगटन कर रहा है। उधर मोदी ने बाइडन की ख़ुशनुदी के लिए चीन से पंगा ले लिया, उधर शि जिनपिंग ने अमेरिका से हाथ मिला लिया ।

भारत की विदेश पालिसी का ये आलम है कि ऊपर दर्ज दोनों विवादों में वह न इधर का है और न उधर का है । यही वजह है कि इस से कोई एक भी पक्ष संतुष्ट नहीं है । मोदी सरकार ने रूस, यूक्रेन, फ़िलिस्तीन, इसराईल, चीन और अमेरिका सभी का भरोसा गंवा दिया है। इस के बरअक्स शि जिनपिंग ने अमेरिका की ज़मीन पर जाकर कमाल की ढिटाई से ऐलान कर दिया कि चीन ने ना किसी पर कभी हमला किया और न किसी की एक इंच ज़मीन ली । ये बात अगर सही है तो क्या गलवान और डोकलाम में भारत ने चीन पर हमला किया? अरूणाचल पर देश में घुसपैठ किसी एलियन ने की? विश्व सतह पर इस अकेलेपन और अपमान की ओर से ध्यान हटाने ले लिए मोदी जी ने इसी दौरान वाइस आफ़ ग्लोबल साउथ समिट का आयोजन कर दिया । उस का वर्चुअल उद्घाटन करते हुए उन्होंने फ़रमाया क्षेत्रीय तौर पर ग्लोबल साउथ तो हमेशा से रहा है लेकिन उसे इस तरह से वाइस पहली बार मिल रही है। वैसे100 से ज़्यादा देश के इस फ़ोरम की इस आवाज़ को कोई सुनता नहीं जिनके हित और तर्जीहें समान हैं।

प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में यह भी कहा कि पश्चिमी एशिया की घटनाओं से नए चैलेंजेज़ उभर रहे हैं। बस इतना कह कर अगर वे रुक जाते तो अच्छा था। उस के बाद 7 अक्तूबर के हमले को दहश्तगर्दी, शहरियों की मौत पर अफ़सोस और अध्यक्ष महमूद अब्बास से बात कर के फ़िलिस्तीन के लोगों की इन्सानी मदद का ज़िक्र करके उन्होंने एक ऐसी खिचड़ी पकाई कि जिसने सब का ज़ायक़ा बिगाड़ दिया। इलेक्शन बाज़ मोदी को ऐसा लगता है कि सबकी बात करो सब वोट देंगे लेकिन विश्व कूटनीति में सिपष्ट स्टैंड अपनाना पड़ता है, चाहे वह ग़लत ही क्यों न हो, वरना अच्छा ख़ासा मज़ाक़ बन जाता है। ऐसे देश की हालत न ख़ुदा ही मिला और न विसाले-सनम 'की सी हो जाती है। फ़िलहाल एस जयशंकर के साथ यही हो रहा है।संयुक्तराष्ट्र में जब भी कोई प्रस्ताव पेश होता है यह कहना मुश्किल हो जाता है कि यह ऊंट किस करवट बैठेगा। ऐसा भी होता है कि कभी तो यह सहरा में बगटुट दौड़ता है और कभी धूल में लोटने लगता है।

ख़ामोश रहनेवाले शि जिनपिंग की एक ख़ूबी यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरह गोल मोल बातें नहीं करते । अमेरिका और चीन के बीच गले की हड्डी बने हुए ताइवान पर वह बिना किसी रव-रियाइत के बोले कि उस को वे चीन का हिस्सा बना कर रहेंगे। शि जिनपिंग ने अमेरिका में कहा कि अमेरिका ताइवान को हथियार देना बंद कर दे। बाईडन ने चीन को जनवरी में आयोजित होने वाले तायवान के राष्ट्रपति चुनाव में हस्तक्षेप न करने को कहा तो जवाब में राष्ट्रपति शि ने ज़ोर दिया कि अमेरिका को चाहिए कि ताइवान को हथियार देने के बजाय चीन की शांतिपूर्ण एकता की हिमायत करे। उन्होंने अमेरिकियों की आँखों में आँखें डाल कर कहा चीन अमेरिका को पीछे छोड़ना या बदलना नहीं चाहता लेकिन इस के लिए ज़रूरी है कि अमेरिका भी चीन को दबाना बंद करे।अमेरिकी प्रशासन ने इस दोटूक बातचीत को सराहते हुए फ़ौजी संपर्क की बहाली से अमेरिका और चीन के बीच तनाव के कम होने की ख़ुशख़बरी सुनाई । अमेरिका की ओर से ताइवान के मामले पर भी चीन के लह्‌जे में नर्मी का एतिराफ़ किया गया।

पिछले साल नवंबर से दोनों राष्ट्रपति के बीच संपर्क का आग़ाज़ सुरक्षा के ज़िम्मेदारों की बातचीत से हुआ था। अब दोनों देश के कमांडर फ़ौजी अभ्यास और फ़ोर्सेज़ की तैनाती जैसे  मुद्दों पर बातचीत कर रहे हैं। इस साल दस अक्तूबर को चीन के राष्ट्रपति शि जिनपिंग ने उस अमेरिकी क़ानून साज़ों के एक प्रतिथिमंडल से बीजिंग में मुलाक़ात के बाद कहा था कि चीन और अमेरिका के बीच ताल्लुक़ात इन्सानी तक़दीर पर असर डालेंगे। शि जिनपिंग ने कहा था कि दुनिया में तब्दीली और टूट-फूट के इस दौर में, चीन और अमेरिका के बीच ताल्लुक़ात के स्वरूप से, इन्सानों के मुस्तक़बिल और उनकी तक़दीर तय होगी। चीन और अमेरिका ताल्लुक़ात को दुनिया का सबसे अहम दो तरफ़ा रिश्ता क़रार देते हुए उन्होंने कहा था कि, मैंने कई राष्ट्रपतियों के साथ कई बार यह बात कही है कि हमारे पास चीन और अमेरिका के ताल्लुक़ात को बेहतर बनाने की हज़ारों वजहें हैं, लेकिन उन्हें ख़राब करने की एक भी वजह नहीं है। छः सदस्योंवाले अमेरिकी प्रतिथिमंडल का नेतृत्व करने वाले अमेरिकी सिनेट के नेता चक शोमर ने शि जिनपिंग से इत्तिफ़ाक़ करते हुए कहा था कि ”हमारे देश मिलकर इस सदी को बनाएंगे। इसलिए हमें अपने ताल्लुक़ात को ज़िम्मेदारी और एहतिराम के साथ सँभालने की ज़रूरत है।

इस से पहले सिनेट के प्रतिथिमंडल ने चीन के उच्च राजनयिकों और विदेशमंत्री वांग एई से मुलाक़ात की। इस मौक़ा पर वांग एई ने कहा, मुझे उम्मीद है कि इस दौरे से अमेरिका को चीन को ज़्यादा सही और क़रीब से देखने में मदद मिलेगी और चीन-अमेरिका ताल्लुक़ात को दुबारा मज़बूत विकास पर लाने में मदद मिलेगी।वांग ने कहा थाकि इस अमल का एक हिस्सा, मौजूदा विवादों को ज़्यादा माक़ूल तौर पर सँभालना है। उन्होंने कहा कि जिस दौर में हम जी रहे हैं वो तबदीली के साथ ही बहुत हंगामाख़ेज़ है, इसलिए उस की अहमियत पहले से भी कहीं ज़्यादा है। पिछले माह चीन के विदेशमंत्रीरिजा वांग ये ने वाशिंगटन का तीन रोज़ा दौरा किया जिसमें उन्होंने अपने अमरीकी हम मन्सब एंटनी बलंकन और मुशीर बराए क़ौमी सलामती जैक सुलीवान से मुलाक़ात करके सान फ्रांसिस्को में होने वाली दो तरफ़ा मुलाक़ात का एजंडा तय करने का रास्ता 'हमवार कर दिया गया। इस ठोस पहल का नतीजा यह निकला कि बाइडन और शि ने ए आई आर्डिफीशिसत इंटेलिजेंस को सुरक्षित और बेहतर बनाने की ज़रूरत को मंज़ूरी दी, और विश्व स्तर पर गै़रक़ानूनी दवासाज़ी और स्मगलिंग से निबटने के लिए सहयोग करने पर सहमति जताई। इस तरह यह कहा जा सकता है कि एशिया पैसेफ़िक इकोनोमी को-ऑप्रेशन का ये सम्मेलन अपने सीमित मक़सदों को हासिल करने में बड़ी हद तक कामयाब रहा। इस का सबसे अहम पैग़ाम यह है कि अब अमेरिका अकेला सुपर पावर नहीं है बल्कि चीन भी उसका समकक्ष है, इसलिए अमेरिकी साम्राज्यवाद की मनमानी नहीं चलेगी । अमेरिका के बग़ल बच्चा इसराईल के लिए यह बुरी ख़बर बहुत बुरे वक़्त में आई है। अमेरिका और चीन की दोस्ती के बाद मोदी जी ख़ुद को बहुत ठगा हुआ महसूस कर रहे होंगे।

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