अमेरिका और चीन की बलूचिस्तान में भूमिका पर सवाल उठाना जरूरी है। क्या अमेरिका ने पाकिस्तानी एजेंडे का समर्थन किया है, जो वहां के धर्मनिष्ठ मुसलमानों के दमन के लिए काम कर रहा है, या वह चीन के दबाव में ऐसा कर रहा है, जो इस खनिज-समृद्ध क्षेत्र में हो रही मानवीय त्रासदी से घबराया हुआ है? बलूचिस्तान, जो 1947 में विभाजन के समय एक स्वतंत्र देश था, पिछले कुछ वर्षों में हिंसा और अस्थिरता से जूझ रहा है। बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी (BLA) और पाकिस्तानी सेना के बीच बढ़ती हिंसा के साथ ही, इस क्षेत्र में चीन और अमेरिका की उपस्थिति भी टकराव का एक महत्वपूर्ण कारण है।
चीन और अमेरिका के आर्थिक हित इस क्षेत्र में गहरे हैं। यहां तांबा, सोना, जस्ता और उच्च गुणवत्ता का संगमरमर जैसे कीमती खनिज पाए जाते हैं, जिनका खनन दोनों देशों के लिए फायदेमंद है। खासकर, चीनी कंपनियों ने बलूचिस्तान में भारी निवेश किया है और पाकिस्तानी सेना के साथ उनके साझा आर्थिक हित हैं। वे यहां से बड़ी मात्रा में बेहिसाब संपत्ति जुटा रहे हैं।
अमेरिका का इतिहास दिखाता है कि वह अपने आर्थिक हितों के लिए मानवाधिकारों या लोकतंत्र जैसे मुद्दों को नजरअंदाज करने में हिचकिचाता नहीं है। यही कारण है कि चीन और अमेरिका दोनों ही बलूचिस्तान में चल रहे सैन्य अभियानों का समर्थन कर रहे हैं, भले ही वहां निहत्थे नागरिकों के खिलाफ हिंसा हो रही हो। पाकिस्तानी सेना ने बलूच मुसलमानों पर होने वाले हमलों की विस्तृत जानकारी छिपाकर रखी है, लेकिन यह साफ है कि हाल के महीनों में चीन की उच्च-स्तरीय यात्राओं के बाद इस क्षेत्र में सैन्य कार्रवाई तेज हुई है।
यह सब केवल आर्थिक हितों के लिए हो रहा है। चीन और अमेरिका दोनों ही बलूचिस्तान में चल रहे विरोधों को कुचलने के पक्ष में हैं। यह स्थिति 1971 के बांग्लादेश युद्ध की याद दिलाती है, जब अमेरिका और चीन ने पाकिस्तान का समर्थन किया था और लोकतांत्रिक आंदोलनों को दबाने की कोशिश की थी। बलूचिस्तान की मौजूदा स्थिति में भी यही कुछ देखने को मिल रहा है। पाकिस्तान और चीन का दावा है कि भारत बलूच विद्रोहियों का समर्थन कर रहा है, लेकिन इसके पीछे ठोस सबूत नहीं हैं।
बलूचिस्तान में चल रही सैन्य कार्रवाई के पीछे चीनी खनन कंपनियों के बड़े वित्तीय हित हैं। ये कंपनियां बीते 20 वर्षों से इस क्षेत्र से सोना और तांबा निकाल रही हैं, लेकिन इसका फायदा स्थानीय जनता को नहीं मिला। चीनी मॉडल यूरोपीय औपनिवेशिक शक्तियों से भी ज्यादा सख्त है, जो स्थानीय संसाधनों का दोहन करने में लगा हुआ है। अमेरिका भी चीन के साथ मिलकर यहां चल रहे शोषण को अनदेखा कर रहा है, क्योंकि यह दोनों के आर्थिक हितों के अनुरूप है।
इतिहास खुद को दोहरा रहा है। 1971 में अमेरिका ने पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में लोकतांत्रिक आंदोलनों को कुचलने के लिए पाकिस्तानी सेना का साथ दिया था। उस समय राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने बंगाल की खाड़ी में परमाणु हथियार से लैस अपना बेड़ा भेजकर पाकिस्तान की मदद की थी। उसी प्रकार आज बलूचिस्तान में चीन और अमेरिका का सहयोग पाकिस्तान के हित में काम कर रहा है।
बलूचिस्तान में प्राकृतिक संसाधनों की कोई कमी नहीं है। इस क्षेत्र में तांबा, सोना, चांदी, जस्ता, क्रोमाइट, कोयला और उच्च गुणवत्ता वाला संगमरमर पाया जाता है। इसीलिए चीनी कंपनियां यहां अपनी पकड़ मजबूत बनाए हुए हैं। हालांकि, चीन के साम्यवादी मॉडल के बावजूद, यह गरीबों के लिए किसी भी तरह की भलाई करने में असफल रहा है।
पाकिस्तानी सेना भी चीनी कंपनियों के साथ मिलकर भारी मुनाफा कमा रही है। सेना के उच्च अधिकारी खनिज संसाधनों से पैसा बना रहे हैं, जबकि निचले स्तर के अधिकारी तस्करी के जरिए कमाई कर रहे हैं। बलूचिस्तान के मुसलमानों की दुर्दशा के प्रति कोई भी अंतर्राष्ट्रीय शक्ति संवेदनशील नहीं है।
गौरतलब है कि पाकिस्तान का नागरिक समाज भी सेना के इस कदम से भयभीत है। राजनीतिक विश्लेषक नजम सेठी जैसे लोग चाहते हैं कि सेना और बलूच लोगों के बीच सार्थक बातचीत हो, लेकिन मौजूदा हालात को देखते हुए यह संभव नहीं लगता। चीनी और अमेरिकी वित्तीय हित इस बातचीत में बड़ी बाधा बन रहे हैं।
ऐसे में, सवाल यह है कि क्या अमेरिका और चीन बलूचिस्तान में चल रही त्रासदी को रोकेंगे? इसका उत्तर फिलहाल नकारात्मक दिखता है, क्योंकि दोनों देशों का ध्यान अन्य वैश्विक संकटों पर केंद्रित है।
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