आज पूरी दुनिया में दक्षिणपंथी राजनीति का उभार हो रहा है। चाहे वह जापान हो, हंगरी या पोलैंड हो, स्लोवाकिया, इटली और अब नीदरलैंड्स हो, अमेरिका हो या तुर्की, ब्राजील हो या अर्जेंटीना। सब जगह राइट-विंग का प्रभुत्व बढ़ता नजर आ रहा है। यह प्रगतिशील समाज, सभ्यता के लिए शुभ संकेत नहीं।
दक्षिणपंथ व्यक्तिवादी होता है- वह पर्सनैलिटी कल्ट का जश्न मनाता है। जबकि वामपंथ सामूहिक होता है। इसी वजह से वामपंथ साहित्य ,कला और शिक्षा आदि क्षेत्रों को प्रभावित करता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने संस्था-निर्माण पर ध्यान केंद्रित किया तो लोगों ने व्यवस्थित रूप से दक्षिणपंथ को वोट देना शुरू कर दिया। लेकिन यह उसने वामपंथ से ही सीखा था।जैसा कि लेखक मनु जोसेफ कहते हैं- राइट-विंग स्थानीय होता है और लेफ्ट विंग वैश्विक ।
अर्जेंटीना से अमेरिका, ब्रिटेन से रूस और भारत से जापान तक हर जगह वामपंथियों की पद्धति और विचारधारा एक जैसी है।
लेकिन भारतीय दक्षिणपंथी जापानी दक्षिणपंथी जैसा नहीं है। और ये दोनों ही यूरोपियनों से भिन्न हैं। हंगरी के ओर्बन, पोलैंड के डूडा, इटली की मेलोनी और नीदरलैंड्स के वाइल्डर्स को लें। वे सभी एक बहुत ही मौलिक बात पर सहमत हैं- वे चाहते हैं कि यूरोप अपने मूल में ईसाई बने, लेकिन उसके मानदंड और नियम सभी के लिए समान हों। लोगों को स्थानीय भाषा और संस्कृति को अपनाकर उसमें फिट होना होगा, अलग- रहने की आदत को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। इसका मतलब यह नहीं है कि मेलोनी, डूडा और ओर्बन इस बात पर जोर देते हैं कि हर कोई एक जैसा ही भोजन करे। बल्कि वे चाहते हैं कि सार्वजनिक जीवन राज्यसत्ता के सभ्यतागत चरित्र के अनुरूप हो।
भारत में हिंदू धर्म के अंतर्गत कई अलग-अलग शाखाएं समाहित हैं जैसे कि शाक्त, शैव, वैष्णव। दक्षिणपंथी आरएसएस तो बौद्ध, जैन, सिख धर्मों को भी एक व्यापक सनातन परम्परा का ही हिस्सा मानता है। एक बड़ा तबका भी ऐसा ही मानता है। आरएसएस इस एक बुनियादी सांस्कृतिक और सभ्यतागत एकता का लाभ उठाती रही है। जबकि यूरोप में कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट, कैल्विनवादी, लूथरन, ऑर्थोडॉक्स आदि होने के बावजूद सभ्यतागत एकता पर जोर नहीं दिया गया था।
भारतीय दक्षिणपंथ छद्म हिंदुत्व, सांस्कृतिक-राष्ट्रवाद के नाम पर राष्ट्रीय फलक पर अपनी पहचान बनाने में जरूर सफल रहा है, किन्तु भारत विभिन्न धार्मिक, सांस्कृतिक,भौतिक, भौगोलिक विविधताओं से भरा राष्ट्र है, जिसमें विभिन्न जाति, पंथ, बोली,भाषा, खान पान, रहन सहन शामिल है। जिसका नतीजा है कि राजनीतिक और वैचारिक स्तर पर भारत में वामपंथी, अंबेडकरवादी, गांधीवादी लोगों का टोटल मत प्रतिशत 67% रहा है जबकि वहीं छद्म हिंदुत्व, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद वाली दक्षिणपंथी पार्टी भाजपा आज भी 33% से अधिक मत पाने मे विफल रही है।
हर दक्षिणपंथी पार्टी की तरह सामाजिक तौर पर नस्ल, जाति, मजहब तो आर्थिक तौर पर पूंजीवादी सिस्टम को सर्वोच्च नेता के पर्सनालिटी कल्ट से मिश्रण करते हुए भाजपा मात्र एक तिहाई मत पाकर भी देश के सत्ता पर काबिज है। जबकि विपक्षी वामपंथी, अंबेडकरवादी, गांधीवादी दो तिहाई मत पाने के बावजूद सत्ता से दूर हैं, क्योंकि ये आपस में विभाजित हैं।
शंका करने की कोई गुंजाइश नहीं है कि यदि भाजपा पुन:सत्ता पर काबिज होती है तो संविधान, सांस्कृतिक विरासत एवं सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक ताने बाने को तहस नहस कर देगी।
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