संसदीय निर्वाचन के दौरान सूनसान दक्षिणी द्वीप कच्छ्तिवु भी सुनामी की भांति खबरों में उमड़ पड़ा है। आखिरी बैलेट पर्चा मतपेटी में गिरा कि यह विवाद भी तिरोभूत हो जाता है। चार-पांच सालों के लिए। क्या है यह भैंसासुररूपी रक्तबीज दानव जैसा विवाद ? अठारहवीं लोकसभा निर्वाचन में यह मात्र दो वर्ग किलोमीटर वाला मछली-बहुल द्वीप बड़ा मुद्दा बन गया है। इंदिरा गांधी और श्रीलंका प्रधानमंत्री श्रीमावो बंदरनायके के हस्ताक्षर से 1976 में भारत ने पड़ोसी को यह भूभाग भेंट दिया था। मौजूदा चुनाव प्रचार में भाजपा नेता नरेंद्र मोदी उसे जोर-शोर से उठा रहे हैं।
इंदिरा गांधी ने 26 जून 1976 को कहा था कि ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर यह भारतीय भूभाग श्रीलंका को दिया गया है। हालांकि भारतीय उच्चतम न्यायालय का निर्णय रहा कि किसी भी भारतीय भूभाग को देश से काटा नहीं जा सकता है। तभी विपक्षी दलों ने अप्रैल-मई 1968 में भुज से काटकर छाद बेट और कंजरकोट पाकिस्तान को दे देने पर सत्याग्रही भेजकर विरोध व्यक्त किया था सीमावर्ती गांव खावड़ा में। इस संघर्ष के कर्णधार थे जॉर्ज फर्नांडिस, राजनारायणजी, मृणाल गोरे (संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के), बैरिस्टर नाथ पै (प्रजा सोशलिस्ट पार्टी), अटल बिहारी वाजपेई, भारतीय जनसंघ के, आदि थे।
चुनाव 2024 में कच्छतिवु द्वीप का मामला फिर से सुर्खिओ में आया है। इस मामले पर भाजपा नेताओं ने अपनी तरफ से बड़े जोरो से बोला। 1976 में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने श्रीलंका को इस द्वीप को दिया था। लेकिन भारत के उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि किसी भी भारतीय भूमि को संविधान संशोधन के बिना किसी भी देश को नहीं दिया जा सकता है। इस मामले को तमिलनाडु में बड़ा चुनावी मुद्दा बनाया गया है। शासित और विपक्षी दलों दोनों ने इस द्वीप को भारत को वापस लाने की माँग की है। कांग्रेस पार्टी ने भी भाजपा की इस मामले पर कोई पक्का कदम नहीं उठाने के लिए निंदा की है।
उसी कालावधि में मुंबई में सात साल "टाइम्स आफ इंडिया" में कार्य करने के बाद मुझे अहमदाबाद के नवीन संस्करण में सीनियर संवाददाता के पद पर भेजा गया था। मैं इस सत्याग्रह को कवर करने तभी भेजा गया था। वहां राजनारायण (सिंह तब लिखते थे) का कटाक्ष याद आया। सत्याग्रह के दौरान 48 डिग्री की गर्मी में कच्छ कारागार से रिहा होने पर, उन्हें मैं अपनी गाड़ी में सिंध-सीमावर्ती भुज नगर घुमाने ले गया। वे बोले : "मैं खाना खाना चाहता हूं।" उन्हें लेकर मैं वैष्णव होटल ले गया। वे तत्क्षण बोले : "मैं भोजन नहीं करूंगा।" तो मैं मुस्लिम ढाबा ले गया। उन्होंने वहां मछली, मुर्गा, कलेजी खाई। तब मैंने "खाना" तथा "भोजन" में फर्क जाना।
ठीक कच्छ्तिवु को श्रीलंका को उपहार देने की भांति उसी कालखंड में इंदिरा गांधी ने बेरुबारी द्वीप समूह को बांग्लादेश को दे दिया था। उन दिनों विपक्ष नाममात्र का होता था, उग्र नहीं हुआ। मगर कच्छ्तिवु पर आज सत्तारूढ़ भाजपा-नीत राजग बवाल उठा रही हैं। उसमें दम भर गया है। विशेषतया इसलिए की इंडी गठबंधन के घटक ही पूर्व कांग्रेस प्रधानमंत्री (इन्दिरा गांधी) की आज भर्त्सना कर रहे हैं।
वर्तमान में संसद में डीएमके तीसरी बड़ी पार्टी है। हालांकि उसके सांसद पहले अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार का भी समर्थन कर चुके हैं। तमिलनाडु सागरतट से सटा कच्छतिवु मछुवारों का खास द्वीप है। इसे वापस लेने का संघर्ष तमिल अस्मिता और भावना के साथ आत्मीयता से जुड़ा हुआ है। कोई भी द्रविड़ पार्टी इस मुद्दे पर किसी भी सीमा तक जा सकती है। स्तालिन के पिता स्वर्गीय एम. करुणानिधि ने मुख्यमंत्री के नाते भी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से कच्छतिवु द्वीप श्रीलंका को (1974) दे देने पर सरकार का कड़ा विरोध जताया था। करुणानिधि का आरोप था इंदिरा गांधी ने अपने मित्र (प्रथम महिला प्रधानमंत्री बनी) श्रीमती सिरीमावो बंदरानायको को यह द्वीप उपहार में दे दिया।
अन्ना डीएमके नेता और मुख्यमंत्री जयललिता 2008 में इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंची। उनका दावा था कि बिना संविधान संशोधन के सरकार ने भारत की जमीन दूसरे देश को दे दी। मुख्यमंत्री बनने के बाद 2011 में उन्होंने विधानसभा में प्रस्ताव भी पारित करवाया था। इस मामले पर 2014 में अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने कोर्ट में कहा था : “कच्छतिवु द्वीप एक समझौते के तहत श्रीलंका को दिया गया। अब ये अंतर्राष्ट्रीय बाउंड्री का हिस्सा है। इसे वापिस लेने के लिए भारत को युद्ध करना पड़ेगा।”
मगर इन्दिरा सरकार पीछे नहीं हटी। इसका एक कारण रहा श्रीलंका की तत्कालीन प्रधानमंत्री सिरीमा बंदरानाइक। वे दुनिया की पहली महिला थीं, जो किसी देश की प्रधानमंत्री मंत्री चुनी गई। इंदिरा की तरह वे भी एक ताकतवर नेता थीं। उन्होंने भी अपने देश पर आपातकाल लादा था। यह साल 1980 की बात है। भारत में जून 1975 की तरह।
दोनों देशों के बीच 1976 में समुद्री सीमा को लेकर एक और समझौता हुआ था। मुख्यतः यह मन्नार और बंगाल की खाड़ी में सीमा रेखा को लेकर हुआ था। लेकिन इसी समझौते में एक और चीज जुड़ी थी, जिससे कच्छतिवु का विवाद सुलगा दिया गया। नियम बना कि “भारत के मछुवारे और मछली पकड़ने वाले जहाज श्रीलंका के ‘एक्सक्लूसिव इकनोमिक ज़ोन’ में नहीं जाएंगे।” समुंदर के श्रीलंका वाले हिस्से में कच्छतिवु भी आता था। ये एक बड़ी दिक्कत थी, क्योंकि इस समझौते से पहले भारतीय मछुवारे कच्छतिवु द्वीप तक निर्बाध मछली पकड़ने जाते थे।
इस मामले में 2015 में श्रीलंका के तत्कालीन प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे के एक बयान से विवाद हुआ था। उन्होंने एक टीवी चैनल पर ऐलान किया था : “अगर भारतीय मछुवारे इस इलाके में आएंगे तो उन्हें गोली मार दी जाएगी।” दक्षिण के नेताओं की इस बयान पर काफी तीखी प्रतिक्रिया भी आई थी। चूंकि ये मछुवारों की रोजी रोटी से जुड़ा मुद्दा है, इसलिए समय समय पर तमिलनाडु की राजनीति इसको लेकर गर्माती रहती है।
कच्छतिवु द्वीप का मुद्दा दो देशो से जुड़ा है। इसलिए इस विषय पर भारत एकतरफा कदम नहीं उठा सकता है। तमिलनाडु विधानसभा ने इस द्वीप को वापस लेने की मांग की। कच्छतिवु द्वीप को लेकर हुए समझौते को अमान्य घोषित करने की अपील की। उन्होंने कहा कि श्रीलंका को कच्छतिवु दान में देना असंवैधानिक है। जलडमरूमध्य में निर्जन द्वीप वाले पर 14वीं शताब्दी में ज्वालामुखी विस्फोट के कारण यह द्वीप बना था। ब्रिटिश शासन के दौरान 285 एकड़ की भूमि का भारत और श्रीलंका संयुक्त रूप से इस्तेमाल करते थे। यह द्वीप बाद में मद्रास प्रेसीडेंसी का हिस्सा बना। भारत और श्रीलंका दोनों ने 1921 में मछली पकड़ने के लिए इस भूमि पर अपना-अपना दावा किया था। विवाद अनसुलझा अभी तक रहा। आज चुनावी मसला बन गया है।
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