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हमारे संवाददाता द्वारा

नई दिल्ली | सोमवार  | 6 जनवरी 2025

किसी भी देश में यदि शिक्षा की पहुंच समाज के सबसे कमजोर समूहों तक नहीं हो पाती है, तो वहां का विकास सवालों के कठघरे में खड़ा होगा। भारत में आजादी के बाद से लेकर अब तक सरकार द्वारा शिक्षा के प्रसार के लिए किए गए प्रयासों से वंचित सामाजिक समूहों के बीच साक्षरता की स्थिति में कुछ सुधार हुआ है। परंतु विडंबना यह है कि अर्थव्यवस्था के चमकते आंकड़ों के बीच देश में शिक्षा के मोर्चे पर अब भी जो स्थिति है, उसे संतोषजनक नहीं कहा जा सकता।

उच्च शिक्षा तक पहुंच तो दूर की बात है, आज भी लाखों बच्चे स्कूली शिक्षा से वंचित हैं और विभिन्न कारणों से हर वर्ष अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं। केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय की एकीकृत जिला शिक्षा सूचना प्रणाली (UDISE) की एक रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया है कि वर्ष 2022-23 में स्कूलों में कुल 25.17 करोड़ विद्यार्थी नामांकित थे, जबकि 2023-24 में यह संख्या घटकर 24.80 करोड़ रह गई। रिपोर्ट के अनुसार, प्राथमिक, उच्च प्राथमिक और उच्चतर माध्यमिक स्कूलों में विद्यार्थियों के नामांकन में 37.45 लाख की कमी आई है। इस अवधि में पढ़ाई बीच में ही छोड़ने वाले बच्चों की संख्या में भी खासी बढ़ोतरी दर्ज की गई। शिक्षा से वंचित रहने वालों में अधिकतर समाज के कमजोर और वंचित तबकों के बच्चे हैं।

 

लेख एक नज़र में
शिक्षा की पहुंच यदि समाज के कमजोर वर्गों तक नहीं हो पाती, तो किसी देश का विकास संदिग्ध हो जाता है। भारत में आजादी के बाद से शिक्षा के प्रसार के लिए कई प्रयास किए गए हैं, लेकिन स्थिति संतोषजनक नहीं है।
लाखों बच्चे आज भी स्कूली शिक्षा से वंचित हैं और हर साल पढ़ाई छोड़ देते हैं। केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार, 2022-23 में 25.17 करोड़ विद्यार्थी नामांकित थे, जो 2023-24 में घटकर 24.80 करोड़ रह गए। सरकारी स्कूलों में केवल 57% में कंप्यूटर और 53% में इंटरनेट की सुविधा है, जबकि ऑनलाइन शिक्षा पर जोर दिया जा रहा है।
वंचित तबकों के बच्चों को गुणवत्ता आधारित शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए ठोस नीतियों की आवश्यकता है। यदि कमजोर समुदायों के बच्चे शिक्षा से वंचित रहेंगे, तो यह देश के विकास के लिए एक गंभीर चुनौती बनेगा।

 

सवाल यह है कि जब शिक्षा के व्यापक प्रसार और सब तक इसकी पहुंच सुनिश्चित करने के लिए सरकार हर स्तर पर कदम उठाने के दावे कर रही है और नई नीतियां घोषित हो रही हैं, तब स्कूलों में दाखिला लेने वाले बच्चों की संख्या में इतनी बड़ी गिरावट क्यों हो रही है? शिक्षा मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक, देश में केवल 57% स्कूलों में कंप्यूटर उपलब्ध हैं, जबकि 53% स्कूलों में ही इंटरनेट की सुविधा है। दूसरी ओर, हाल के समय में विभिन्न कारणों से स्कूलों में ऑनलाइन या डिजिटल पढ़ाई पर जोर दिया जा रहा है। जबकि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकांश बच्चे ऐसे परिवारों से आते हैं, जहां सभी के लिए अलग-अलग कंप्यूटर या स्मार्टफोन की सुविधा अभी भी एक सपना है।

प्रश्न यह उठता है कि वंचना की कई परतों का सामना कर रहे परिवार अपने बच्चों को स्कूल भेज सकें और उन्हें गुणवत्ता आधारित शिक्षा मिल सके, इसके लिए वंचित तबकों के अनुकूल नीतियां जमीन पर कब उतरेंगी? स्कूली शिक्षा की स्थिति में सुधार केवल सरकारी आश्वासनों और दावों तक सीमित क्यों है, जबकि जमीनी हकीकत निराशाजनक तस्वीर पेश करती है?

साक्षरता की औपचारिकता गुणवत्ता आधारित शिक्षा सुनिश्चित नहीं करती। आर्थिक रूप से सक्षम परिवार अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजकर उनका भविष्य बेहतर बना सकते हैं। लेकिन उन तबकों के बच्चों को गुणवत्ता आधारित शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए क्या किया जा रहा है, जो लगातार अभाव और जीवन संघर्ष से जूझते रहते हैं?

यह निश्चित है कि अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर मजबूती देश के लिए आवश्यक है। परंतु यदि कमजोर सामाजिक समुदायों के बच्चे किसी भी कारण से शिक्षा से वंचित हो रहे हैं, तो इसकी जिम्मेदारी किसकी होगी? शिक्षा का अधिकार और सामाजिक कल्याण के अन्य कार्यक्रमों के बावजूद गरीबी और संसाधनों के अभाव के कारण यदि बच्चे स्कूल के दरवाजे तक नहीं पहुंच पा रहे हैं, तो यह स्थिति देश के विकास के लिए गंभीर चुनौती है।

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