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डॉ. नीरज कुमार

नई दिल्ली | बुधवार | 1 जनवरी 2025

बिहार में पेपर लीक एक सामान्य प्रचलन हो गया है। वह भी उस दौर में, जब बिहार में नीतीश कुमार पिछले 19 वर्षों से सुशासन के नाम पर राज कर रहे हैं। सवाल उठता है कि लगातार पेपर लीक होने के बावजूद इतने बड़े स्तर पर बहाली कैसे हो जाती है?  सरकार आखिर इस लीक को रोक पाने में सफल क्यों नहीं हो रही है? बिहार के युवाओं को हर एक लीक के बाद आंदोलन करने के लिए सड़क पर उतरना पड़ता है। लेकिन, बिहार के नेताओं का साथ क्यों नहीं मिल पाता? पेपर लीक का मामला मेनस्ट्रीम  मीडिया में प्राइम डिबेट का हिस्सा क्यों नहीं होता? हर पेपर लीक के बाद सरकार के नौकरशाह इसकी लीपापोती में क्यों जुट जाते हैं? आखिर पेपर लीक से किसके हितों को साधा जा रहा है? क्या परीक्षा माफिया इतने मजबूत हैं कि वो सरकार पर दबाव बनाने में सफल हो जाते हैं कि उनके खिलाफ़ कोई कठोर कार्रवाई नहीं हो पाती? अगर हाँ, तो इन माफियाओं का एक मजबूत गठजोड़ है सरकार एवं सरकारी तंत्रों के साथ। 

लेख एक नज़र में
बिहार में पेपर लीक एक गंभीर समस्या बन गई है, जबकि नीतीश कुमार पिछले 19 वर्षों से शासन कर रहे हैं। बार-बार पेपर लीक होने के बावजूद सरकार इसे रोकने में असफल है, जिससे युवाओं को आंदोलन करना पड़ता है।
बिहार लोक सेवा आयोग की 70वीं प्रिलिम्स परीक्षा में भी धांधली हुई, जो आयोग की संरचना, प्रक्रिया और कार्यप्रणाली में खामियों को दर्शाती है। आयोग के अध्यक्ष पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं, जिससे परीक्षा की निष्पक्षता पर सवाल उठता है।
परीक्षा के प्रश्नपत्रों में कोचिंग सेंटर के प्रश्न शामिल होने की बात भी सामने आई है। इसके अलावा, परीक्षा के दिन छात्रों को कई समस्याओं का सामना करना पड़ा। इन सभी कारणों से सरकार को चाहिए कि वह छात्रों के हितों को ध्यान में रखते हुए पुनः परीक्षा का निर्णय ले।

उपरोक्त सन्दर्भ में अगर देखा जाय तो बिहार सरकार पूरी तरह से प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षा को कदाचार मुक्त बनाने में विफल हुई है। चाहे वो बिहार पुलिस भर्ती परीक्षा हो, कम्युनिटी हेल्थ ऑफिसर की परीक्षा हो, बिहार शिक्षक सक्षमता परीक्षा हो या तत्काल में बिहार लोक सेवा आयोग 70वीं प्रिलिम्स की परीक्षा हो। इतने बड़े स्तर के एग्जाम में इतनी बड़ी धांधली कैसे संभव है? यह एक सोचनीय विषय है। वह भी तब, जब राज्य की एजेंसी के माध्यम से इन भर्ती परीक्षाओं को लिया जाता है, जिसके पास न केवल इन परीक्षाओं को संचालित कराने का करने अनुभव है, बल्कि उसके पास पर्याप्त संसाधन के साथ -2 निर्णय लेने की  क्षमता एवं उसके क्रियान्वयन के लिए पूरी मशीनरी उपलब्ध है। मोटे तौर पर देखा जाए तो बिहार के पूर्व डीजीपी अभ्यानंद जी के शब्दों में ” अगर कहीं जॉइन्ट होगा तो लीक की सम्भावना बनी रहेगी “। यानी उनका मानना है कि परीक्षा कराने वाली एजेंसी को उतरदायी होना पड़ेगा। बिना उतरदायित्व के लीक को रोकना संभव नहीं।

इतनी बड़ी धांधली को सीधे शब्दों में समझना थोड़ा मुश्किल है। सामान्यतया देखा जाए तो किसी भी एग्जाम के तीन पार्ट होते हैं – पहला संरचनात्मक, दूसरा प्रक्रियात्मक एवं तीसरा जो कि दूसरे से जुड़ा हुआ है, वो है फंक्शनल। इस कसौटी पर देखने की कोशिश करते हैं। 

बिहार लोक सेवा आयोग के 70वीं प्रिलिम्स को देखा जाय तो समझ में आ जाएगा कि कैसे तीनों स्तर पर सरकार से चूक हुई है। जैसे कि संरचनात्मक तरीक़े पर गौर किया जाय तो इसके तहत आयोग एवं उसकी पूरी मशीनरी को देखना होगा। सवाल उठता है कि जब आयोग की संरचना में ही खामी है तो कदाचार मुक्त परीक्षा कैसे संभव है? कहने का तात्पर्य है कि जब बिहार लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष पर ही भ्रष्टाचार का आरोप लगा हो तो वह भ्रष्टाचार मुक्त परीक्षा कैसे ले सकता है। वर्तमान में आयोग के अध्यक्ष परमार रवि मनुभाई हैं। इन महोदय पर निगरानी विभाग ने खुद एफआईआर दर्ज कर रखा है कि इन्होंने बिहार सरकार के महादलित विकास निगम में साढ़े चार करोड़ का घपला कर रखा है। दूसरी बात कि आयोग के अध्यक्ष के रूप में इनकी कार्यशैली भी संदेह के घेरे में है। यह अपने प्रेस-ब्रीफिंग में बोलते हैं कि इस बार की परीक्षा में प्रश्न पत्र स्तरीय होगा, जबकि प्रश्नपत्र छिछोला क़िस्म का निकला। यहाँ तक कि एक कोचिंग सेंटर के प्रैक्टिस सेट से ही ज्यादातर प्रश्न थे।

प्रक्रियात्मक स्तर पर देखें। इसके तहत प्रश्नों के स्वरुप या पैटर्न, प्रश्नपत्रों की प्रिंटिंग, सेंटर का निर्धारण एवं सीटिंग अरेंजमेंट आता है। आज तक हमने यह नहीं देखा था कि आयोग अपनी निर्णय-प्रक्रिया में कोचिंग संचालकों से सलाह मशविरा करता है। आयोग को अगर बदलाव करना होता है तो वह एक्सपर्ट कमिटी का गठन करके उसकी रिपोर्ट के आधार पर।बदलाव कर देता है. यहाँ पर एक्सपर्ट कमिटी का अर्थ है, वैसे एक्सपर्ट जो पिछले कई वर्षों से इस तरीक़े की परीक्षा में विशेषज्ञ हों। साधारणतया इसमें वैसे प्रोफेसर होते हैं, जिन्हें दस वर्षों का अनुभव होता है। वहीं इस बार परीक्षा से पहले ही आयोग ने कुछ चुने हुए कोचिंग संचालकों से पैटर्न में बदलाव के लिए सलाह मशविरा कर लिया। अब जबकि कोचिंग संचालक परीक्षा पैटर्न तय करने लगेंगे तो निष्पक्ष परीक्षा कैसे संभव है? रही बात सेंटर निर्धारण की तो आयोग को इस बात के लिए सूक्ष्म स्तर तक जाँच-परख करके निर्धारण करना होता है। महज सेंटर का रिकॉर्ड कैसा है, सेंटर किस प्रकार के वीक्षक को रखेगा, सेंटर सुप्रीटेंडेंट एवं सेंटर ऑब्जर्वर का कैसा सम्बन्ध है, इत्यादि। मीडिया रिपोर्ट में यह चल रहा है बापू सभागार में पहले से किसी खास कोचिंग संचालक की पकड़ थी। फिर उसे सेंटर बनाने के बाद वहाँ पर निष्पक्ष सेंटर सुप्रीटेंडेंट एवं सेंटर ऑब्जर्वर को क्यों नहीं तैनात किया गया? आयोग का प्रश्न कभी किसी एक सेट से नहीं मिल सकता है। क्योंकि प्रश्नों को तैयार करने के लिए भी यह विशेषज्ञों से मदद लेता है। जैसे, यदि राजनीति विज्ञान से प्रश्न पूछना है तो यह उस विषय के प्रतिष्ठित प्रोफेसर से आग्रह करता है कि आप हमको पाँच सौ ऐसे प्रश्न बना कर दें। अब उस प्रोफेसर को भी पता नहीं होता है कि कौन सा प्रश्न आने वाला है। साथ-ही-साथ आयोग उस प्रोफेसर पर ख़ुफ़िया निगरानी भी बनाए रखता है। अंततः आयोग कोचिंग के प्रैक्टिस सेट को भी सरसरी निगाह से देख लेता है कि उसने बाजार में कैसे प्रश्न दे रखे हैं। इतने सारे उपायों के बावजूद  हू-ब-हू प्रश्नों के मिल जाने को महज़ संयोग नहीं कहा जा सकता है।

रही बात फंक्शन की तो इसके स्तर पर यह देखा जाता है कि परीक्षा के दिन किसी प्रकार की समस्या या अफवाह की स्थिति नहीं बने। छात्रों की सुविधाओं को ध्यान में रखा जाता है। मसलन छात्रों को सेंटर तक पहुँचने में किसी प्रकार की परेशानी नहीं हो। छात्रों को सही समय पर प्रश्नपत्र एवं ओएमआर शीट मिल जाए। इस स्तर पर भी सोशल मीडिया में पेपर लीक की खबरें, देर से प्रश्नपत्र मिलना, प्रश्नपत्रों की कमी आदि कई ऐसे पहलू हैं, जो आयोग के कार्यात्मक विकार (फंक्शनल डिसऑर्डर) को उजागर करते हैं।  

वर्तमान परीक्षा में जो भी खामी हुई है, वह तीनों स्तर पर हुई है। अतः सरकार को चाहिए कि वो छात्रों के हितों का ध्यान रखते हुए पुनः परीक्षा का निर्णय ले।

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लेखक वर्तमान में विजिटिंग सहायक प्राध्यापक, आईसीफाई लॉ स्कूल, आईसीफाई विश्वविद्यालय, देहरादून से संबद्ध है। उनकी कानून में विशेषज्ञता और उनके अकादमिक प्रयासों ने विधिक शिक्षा और विद्वता में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उनका कार्य विधिक सिद्धांत और व्यवहार के बीच पुल का कार्य करता है।

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