विधायिका, प्रशासन और न्यायपालिका राजनीतिक व्यवस्था के तीन स्तंभ हैं। चूँकि उनमें से पहले दो सत्तारूढ़ दल के अधीनस्थ होते हैं, इसलिए उन्हें संतुलित करने के लिए संचार माध्यमों को जोड़ा गया और उन दोनों को सरकारी प्रकोप से बचाने के लिए, उन्हें विपक्ष का आश्रय बनाया गया।
विपक्ष और मीडिया के सहयोग से वंचित विपक्ष तथा जनता का एकमात्र आश्रय वर्तमान में न्यायपालिका ही है। यही कारण है कि राजनीतिक दल और आम लोग अक्सर अपने मौलिक अधिकारों के लिए कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटते नज़र आते हैं। न्यायपालिका और प्रशासन के बीच एक आंतरिक समझ हुआ करती थी, जिसके कारण न्यायपालिका कुछ हद तक सरकार की रिआयत कर लेती थी। वर्तमान सरकार द्वारा जजों को ब्लैकमेल करने और उनके लालच ने इसे आसान बना दिया है और ऐसी घटनाएँ बढ़ती ही जा रही हैं। बाबरी मस्जिद का फ़ैसला इसका स्पषट उदाहरण है सरकार को धड़ाधड़ मिलने वाली क्लीन चिट भी इसका संकेत करती है, उदाहरण के लिए राफ़ेल और हिंडनबर्ग मामलों में प्रतिवादियों का बरी होना।
न्यायपालिका के विभिन्न मुख्य न्यायाधीश सीधे तौर पर अपने दिल से दिए जाने वाले परामर्श में सरकार की आलोचना भी करते रहे हैं, लेकिन फ़ैसले के समय सरकारी पलड़ा भारी पड़ता रहा, जो आंतरिक समझौते का को ज़ाहिर कर रहा था, लेकिन पिछले साल जनवरी 2023 में इस रिश्ते में सरकार की धाँधली से दरार आ गई। वह मामला चुनाव आयोग में नियुक्तियों का था। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने अनूप बरनवाल मामले में टिप्पणी की थी कि चुनाव आयुक्त की नियुक्ति प्रशासन के हाथ में होना स्वतंत्र लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। सुप्रीमकोर्ट की संवैधानिक पीठ ने 2 मार्च 2023 को यह फ़ैसला सुनाया था कि जब तक कोई क़ानून नहीं बनता, मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति एक समिति के परामर्श से होगी। राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त समिति में प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और मुख्य न्यायाधीश शामिल होंगे। इस फ़ैसले में सरकार की मनमानी पर रोक लगा दी गई, क्योंकि अगर सरकार और न्यायपालिका के बीच किसी व्यक्ति को लेकर असहमति होती है तो विपक्ष अनिवार्य रूप से न्यायपालिका का साथ देगा। इस प्रकार, न्यायपालिका की इच्छा के विरुद्ध प्रधानमंत्री की नियुक्ति करना व्यावहारिक रूप से असंभव हो गया।
मोदी जैसे अहंकारी प्रधानमंत्री मोदी ने इसे अपमान के रूप में लिया और एक क़ानून पारित किया जिसने मुख्य न्यायाधीश का काँटा निकाल दिया और नियुक्तियों पर अपना दबदबा बनाए रखने के लिए विपक्षी नेताओं और एक कैबिनेट मंत्री की सिफ़ारिश कर दी। इस तरह समिति में विपक्ष की उपस्थिति को भी निरर्थक कर दिया गया क्योंकि कैबिनेट मंत्री द्वारा प्रधानमंत्री के विरोध की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह वह अपमान था जिसे न्यायपालिका ने दिल पर ले लिया और एक शीत युद्ध शुरू हो गया। इसके बाद समय-समय पर सरकार के ख़िलाफ़ फ़ैसलों का सिलसिला चलता रहा, मसलन, राहुल गाँधी की संसदीय सदस्यता की बहाली, तीस्ता सीतलवाड़ की ज़मानत और बिलक़ीस बानो पर ज़ुल्म करनेवालों की जेल वापसी आदि। लेकिन चुनाव क़रीब आते ही प्रतिशोध की आग भड़क उठी और शीत युद्ध अचानक गर्म हो गया। फ़िलहाल एक के बाद एक जो फ़ैसले हो रहे हैं उन्हें प्रशासन और न्यायपालिका के बीच छिड़ा युद्ध कहा जा सकता है।
चंडीगढ़ मेयर चुनाव का मामला इस सिलसिले की पहली कड़ी थी। पहले तो इसे मामूली टिप्पणी के साथ हाई कोर्ट भेजा गया, लेकिन जब पता चला कि सरकार के दबाव में इसे ठंडे बस्ते में डाला जा रहा है तो सुप्रीम कोर्ट के तेवर चढ़ गए और फिर जो हुआ वह आश्चर्यजनक था। उम्मीद थी कि सुप्रीम कोर्ट ज़्यादा से ज़्यादा दोबारा चुनाव की सिफ़ारिश कर देगा। इसकी तैयारी में बीजेपी ने हमेशा की तक आम आदमी पार्टी के कुछ पार्षदों को ख़रीद लिया था और मेयर से इस्तीफ़ा दिलवाकर इसके लिए रास्ता बना लिया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने रिटर्निंग ऑफ़िसर अनिल मसीह को तलब कर लिया। जब वह पेश हुए तो सीजेआई ने पूछा कि आप कैमरे की तरफ़ क्यों देख रहे थे? अनिल मसीह ने कहा, “कैमरे की तरफ बहुत शोर था, इसलिए मैं उधर देख रहा था।” कोर्ट ने पूछा कि क्या उन्होंने कुछ मतपत्रों पर एक्स का निशान लगाया है। मसीह ने कहा “हाँ, मैंने 8 पेपर मार्क किए थे। लेकिन आम आदमी पार्टी के मेयर प्रत्याशी ने बैलेट पेपर छीनकर फाड़ दिया और भाग गये।” कोर्ट ने पूछा लेकिन आप क्रास क्यों लगा रहे थे? आपने किस सिद्धांत के तहत यह क़दम उठाया? मसीह ने उत्तर दिया कि वे एक अवैध पेपरमार्क बनाने की कोशिश कर रहे थे। इस बिंदु पर सरकार ने अदालत को एक साज़िश में फँसाने का कुत्सित प्रयास किया क्योंकि जब सीजेआई ने पूछा, “क्या इसका मतलब यह है कि आप (अनिल मसीह) स्वीकार कर रहे हैं कि आपने वहाँ निशान लगाया था?” मसीह ने ‘हाँ’ में सिर हिलाया। कोर्ट के बाद सरकारी वकील तुषार मेहता ने कहा कि मसीह ने स्वीकार किया है कि उन्होंने निशान बनाया है, ऐसे में उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई होनी चाहिए। यानी पहले तो सरकारी मोहरे को बलि का बकरा बनाने की सिफ़ारिश की और फिर यह पेशकश कि “हम डिप्टी कमिश्नर से एक नया रिटर्निंग ऑफ़िसर नियुक्त करने के लिए कहेंगे। हम इसकी निगरानी पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल से कराएँगे।” यह पुनः चुनाव कराने का एक मायावी जाल था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने काट दिया। चीफ़ जस्टिस ने अमान्य किये गये 8 वोटों को सही ठहराया और अनिल मसीह की आड़ में सरकार को फटकार लगाते हुए कहा कि यह लोकतंत्र का मज़ाक़ है। इस चुनाव में रिटर्निंग ऑफ़िसर की हरकतों का वीडियो देखने से पता चलता है कि लोकतंत्र की हत्या हो गई है, ये रिटर्निंग ऑफ़िसर क्या कर रहे हैं? हम नहीं चाहते कि देश में लोकतंत्र की हत्या हो। हम ऐसा नहीं होने देंगे, सुप्रीम कोर्ट ऐसी स्थिति में आँखें नहीं मूँदेगा।
चुनाव के क़रीब वर्तमान सरकार के लिए यह पहला झटका था, लेकिन जब चुनावी बॉन्ड का मामला सुनवाई के लिए आया तो कोर्ट ने इसे असंवैधानिक क़रार देकर सरकार के होश उड़ा दिए। इस मामले में एसबीआई की आड़ में सरकार ने ब्योरा छिपाने के लिए 30 जून की हास्यास्पद समयसीमा माँगी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे भी ख़ारिज कर दिया और फिर जब आधी-अधूरी जानकारी देकर न्यायपालिका की आँखों में धूल झोंकने की कोशिश की गई तो इस कोशिश को असफल कर दिया। इस तरह चुनाव से ठीक पहले कोर्ट ने सरकार की पीठ पर ऐसी लात मारी कि सरकार दर्द से कराह रही है। वहीं अभी चुनाव आयोग का मामला विचाराधीन है और इस पर पूरे देश की नज़रें लगी हुई हैं। भारत में कहने को तीन सदस्यीय चुनाव आयोग है, लेकिन मोदी सरकार ने उसकी हालत भी ईडी, सीबीआई और आयकर विभाग जैसी बना दी है। इसे पूरी तरह से कमल के पिंजरे का तोता बना दिया गया है।
यह चुनाव आयोग जैसी महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्था के प्रति आधिकारिक रूप से बेवफ़ाई का ही संकेत है कि पिछले सप्ताह तीन सदस्यों की जगह केवल मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ही बचे थे। उनके एक सहयोगी चुनाव आयुक्त अनूप चंद्र पांडे एक महीने पहले 65 साल की उम्र में सेवानिवृत्त हो गए। चूँकि पीएम मोदी इस समय चुनाव प्रचार में पूरी तरह से डूबे हुए हैं, इसलिए शायद उन्हें इसके बारे में पता नहीं था और अगर पता भी था तो नए चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी या उनके पास समय ही नहीं था। ख़ैर, कारण जो भी हो, चुनाव आयोग दो लोगों तक सीमित हो गया है। मोदी की अगर काम करनेवाली सरकार होती तो पांडे की सेवानिवृत्ति से पहले ही उनके स्थान पर चुनाव आयुक्त की नियुक्ति हो जाती और वह तुरंत कार्यभार संभाल लेते, लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि यह एक ‘जुमलेबाज़’ सरकार है जो केवल दिखावा करना जानती है। तीसरे चुनाव आयुक्त अरुण गोयल ने अपने सहयोगी के रिक्त पद भरने का भी इंतिज़ार नहीं किया और अचानक ही झोला उठाकर यानी इस्तीफ़ा देकर चल दिए।
अरुण गोयल ने सरकार के आदेश पर ही इस्तीफ़ा दे दिया होगा, लेकिन उनकी छुट्टी करनेवाली मोदी सरकार ने यह नहीं सोचा था कि उनकी मूर्खता से तीन सदस्यीय भारतीय चुनाव आयोग में केवल एक सक्रिय सदस्य रह जाएगा। पीएम मोदी तो ख़ैर अपने शब्दों में ‘एक अकेला सबपर भारी’ हैं, लेकिन बेचारे मुख्य चुनाव आयुक्त तीन की जगह कैसे ले सकते हैं? यह गंभीर स्थिति उस समय उत्पन्न हुई जब राष्ट्रीय चुनाव के बादल चारों ओर मंडरा रहे हैं। बीजेपी के अलावा काँग्रेस पार्टी भी अपने उम्मीदवारों की दो सूचियाँ जारी कर चुकी है। पीएम मोदी इन समस्याओं से अछूते हैं क्योंकि उन्हें न तो चुनाव की ज़रूरत है और न ही चुनाव आयोग की। वे तो ख़ुद को एक ऐसा अवतार मानते हैं जिसे चुनावी सफलता की ज़रूरत ही नहीं है।
हालाँकि, दिखावे के लिए मोदी सरकार ने मनमाने ढंग से सुखबीर सिंह सिंधु और ज्ञानेश कुमार को देश का अगला चुनाव आयुक्त नियुक्त कर दिया है। इन दोनों नौकरशाहों को चुनाव आयुक्त के रूप में नियुक्त करने का निर्णय प्रधान मंत्री मोदी के नेतृत्व वाली चयन समिति द्वारा जल्दबाज़ी में किया गया था, क्योंकि एक मामला अदालत में लंबित था और वे फ़ैसले से पहले मामले को निबटाना चाहते थे। ऐसी सरकारी धाँधली के ख़िलाफ़ एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म्स (एडीआर) और काँग्रेस नेता डॉ॰ जया ठाकुर ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया है। इसमें मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए बनाये गये नये क़ानून को चुनौती देते हुए शीघ्र सुनवाई का अनुरोध किया गया है। जिस दिन यह मामला जस्टिस खन्ना की बेंच के सामने आया, सरकार ने घबरा कर आयोग में दो लोगों की नियुक्ति कर दी। उनमें से एक को लोकपाल बने एक महीना भी नहीं हुआ था। इस प्रकार, संकटग्रस्त सरकार ने ये निर्णय लिए ताकि अदालत के किसी भी आदेश या बाधा से पहले उसके आदमी को नियुक्त किया जा सके। उक्त याचिका में कहा गया है कि यह नया क़ानून संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है।
मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का मामला इसी महीने की 11 तारीख़ को सुप्रीम कोर्ट पहुँचा। कोर्ट में अर्ज़ी दाख़िल करते हुए सरकार को नए क़ानून के तहत मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्त की नियुक्ति करने से रोकने की माँग की गई। इसके साथ ही याचिका में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के फ़ैसले के मुताबिक चुनाव आयोग के सदस्य की नियुक्ति के निर्देश देने की भी माँग की गई है। चुनाव आयुक्त अरुण गोयल के इस्तीफ़े के बाद इस मामले ने तूल पकड़ लिया है। मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर केंद्र के नये क़ानून को चुनौती देने का मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में लंबित ही था कि अचानक 14 मार्च को चयन समिति की बैठक हुई। केंद्रीय क़ानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल को दोनों पदों के लिए पाँच-पाँच नामों के दो अलग-अलग पैनल तैयार करने थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसलिए 220 लोगों की लंबी सूची रखने के बाद अचानक 6 लोगों की एक संक्षिप्त सूची पेश की गई और उनमें से दो पर मुहर लगा दी गई।
सुप्रीम कोर्ट ने मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति से संबंधित मामले में दायर एक याचिका में अपनी पसंद के सेवारत नौकरशाहों को सीईसी और ईसी के रूप में नियुक्त करने की केंद्र की वर्तमान प्रणाली पर भी सवाल उठाया है। ऐसे में नए चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार और डॉ॰ सुखबीर सिंह सिंधु को चुनाव आयुक्त बनाए जाने पर अस्थिरता की तलवार लटकने लगी है। हालाँकि क़ानून एवं न्याय मंत्रालय की अधिसूचना पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने कुछ ही घंटों में हस्ताक्षर कर दिये। ऐसा लगता है कि वे तैयार बैठी थीं और उन्होंने अदालत के फ़ैसले का इंतिज़ार करने का कष्ट भी नहीं किया। काँग्रेस के वरिष्ठ नेता अधीर रंजन चौधरी भी समिति का हिस्सा थे, लेकिन वह नियुक्तियों से सहमत नहीं थे, बल्कि उन्होंने एक असहमति नोट लिखा, जिसे बड़े आराम से कूड़ेदान की भेंट चढ़ा दिया गया।
इस समिति में सरकार ने गृह मंत्री अमित शाह को नियुक्त किया गया था, लेकिन इस नियम का उल्लंघन करते हुए क़ानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल को भी बुलाया गया था। यदि उन्होंने संक्षिप्त सूची बनाने की ज़िम्मेदारी पूरी की होती तो यह उचित होता, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अब अगर क़ानून मंत्री ही नियमों का उल्लंघन करेंगे तो किससे उम्मीद की जा सकती है? अधीर रंजन चौधरी की शिकायत है कि बैठक में शामिल होने से पहले उन्होंने संक्षिप्त सूची माँगी थी और यही परंपरा है लेकिन उन्हें जो सूची दी गई उसमें 212 नाम थे, इसलिए सभी नामों के बारे में जानना मुश्किल था। वैसे भी चूँकि समिति में बहुमत सरकार के पक्ष में है, इसलिए इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि वे कुछ कहते हैं या नहीं, निर्णय वही होता जो सरकार चाहती थी, यानी चुनाव आयुक्त की नियुक्ति अधिकारी की इच्छा के अनुसार होनी थी। अधीर रंजन चौधरी के अनुसार, भारत के मुख्य न्यायाधीश को समिति में होना चाहिए था, लेकिन पिछले साल मोदी सरकार द्वारा पारित एक क़ानून ने बैठक को औपचारिक बैठक में बदल दिया है। यह तथ्य कि मुख्य न्यायाधीश ने लंबित मामले में दो दिनों के भीतर सुनवाई की तारीख़ दी है, उनके विचारों को दर्शाता है। मीडिया के लिए सरकार के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान फ़ैसलों को नज़रअंदाज करना असंभव होता जा रहा है। मौजूदा खींचतान के कारण अगर सुप्रीम कोर्ट सरकार के ख़िलाफ़ कोई सख्त फ़ैसला लेता है तो चुनावी मौसम में मोदी सरकार के पास मुँह छिपाने की कोई जगह नहीं बचेगी। (शब्द 2225)
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[डॉ॰ सलीम ख़ान परमाणु रसायन विज्ञान में पीएचडी हैं जिनके लेख देश-विदेश में व्यापक रूप से पढ़े जाते हैं।]
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