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आज का संस्करण

नई दिल्ली, 22 फरवरी 2024

सलीम खान

A person with a beard and glasses

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इलेक्टोरल बॉन्ड पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले ने पाठकों के मन में यह जानने की इच्छा ज़रूर पैदा कर दी होगी कि इस जादू की छड़ी में ऐसा क्या है जिससे बीजेपी के लोगों के वारे-न्यारे हो गए? उसे दुनिया की सबसे अमीर राजनैतिक पार्टी बना दिया। यह वास्तव में राजनैतिक दलों को करंसी नोट की तरह चन्दा प्रदान करने का एक क़ानूनी दस्तावेज़ है जिसे कोई भी भारतीय नागरिक या पंजीकृत कंपनी भारतीय स्टेट बैंक की नामित शाखाओं से ख़रीद सकती है और फिर अपनी पसंद की किसी भी पार्टी को बॉन्ड दान कर सकती है।

 बॉन्ड ख़रीदनेवाले को अपने बारे में बैंक को विस्तृत जानकारी देनी पड़ती है। इससे सरकार को पता चल जाता है कि किसने रिश्वत ली है और कौन विपक्ष को चन्दा देने की ग़लती कर रहा है। इसी आधार पर हर राज्य स्तरीय चुनाव से पहले विरोधियों के समर्थकों पर ईडी छापे मारती है और फिर मोदी जी उनके भ्रष्टाचार की बात करते हैं। चन्दा देनेवाले व्यक्ति या कंपनी का नाम गुप्त रखे जाने के कारण मतदाताओं को यह नहीं पता चलता कि किससे और किस पार्टी से कितना चन्दा मिला है। सुप्रीम कोर्ट ने इस गोपनीयता पर एतिराज़ को स्वीकार करके इसे अमान्य ठहरा दिया तथा इसमें विदेशी हस्तक्षेप की आशंका भी जताई है।

वर्ष 2014 में मोदी सरकार सत्ता में आई लेकिन इसका मार्ग प्रशस्त करने में, यानी इसके लिए औचित्य प्रदान करनेवाला क़ानून बनाने में,  चार साल का समय लगा था। आगे चलकर दुनिया की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी, भाजपा ने इन बॉन्डों की मदद से जिस चन्दे के धन्धे को बढ़ावा दिया, उसका अनुमान लगाने के लिए चुनाव आयोग द्वारा प्राप्त आंकड़ों पर एक सरसरी नज़र डालना काफ़ी है।

नए क़ानून के पूरी तरह लागू होने से पहले साल 2018-19 में बीजेपी को कुल 1,450 करोड़ रुपये मिले थे। अगले वर्ष, उक्त वित्तीय वर्ष के दौरान बेचे गए बॉन्डों की मदद से यह राशि 25 अरब 55 करोड़ रुपये तक पहुँच गई, यानी एक वर्ष में 75 प्रतिशत की वृद्धि हो गई। उस वर्ष कुल 33 अरब 55 करोड़ रुपये के बॉन्ड बेचे गए थे। काँग्रेस के खाते में सिर्फ़ 3 अरब 18 करोड़ रुपए आए, जो पिछले साल से 17 प्रतिशत कम थे। वर्तमान व्यवस्था में किसी राजनैतिक दल की हिस्सेदारी उसे मिलनेवाले वोटों की संख्या से आंकी जाती है। 2014 के चुनाव में बीजेपी को कुल 31 प्रतिशत वोट मिले थे, लेकिन 2019 के चुनाव से पहले बॉन्ड में उसकी हिस्सेदारी बढ़कर 76 प्रतिशत से ज़्यादा हो गई थी।

इससे सभी पार्टियों का नुक़सान हुआ, उदाहरण के तौर पर तृणमूल काँग्रेस को एक अरब, नेशनल काँग्रेस पार्टी को 29.25 करोड़, शिवसेना को 41 करोड़, डीएमके को 45 करोड़, राष्ट्रीय जनता दल को ढाई करोड़ और आम आदमी पार्टी को 18 करोड़ रुययों के इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिये चन्दा प्राप्त हुआ। होना तो यह चाहिए कि जो इलेक्टोरल बॉन्ड बेचे जाते हैं, उनका वितरण राजनैतिक दलों को मिलनेवाले वोटों के अनुपात में किया जाए, लेकिन ऐसी  बात भाजपा के गले से नीचे कैसे उतर सकती है?

कोरोना संकट के दौरान आम भारतवासियों को खाने के लाले पड़ गए, लेकिन उनका प्रतिनिधित्व करनेवाले राजनैतिक दलों की चाँदी ही चाँदी रही। चुनाव आयोग को सौंपी गई रिपोर्ट के मुताबिक़, वित्तीय वर्ष 2020-21 में बीजेपी को 477.54 करोड़ रुपये मिले, जबकि इसी अवधि में काँग्रेस को 74.5 करोड़ रुपये मिले। चुनाव सुधारों पर काम करनेवाली संस्था एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म्स (एडीआर) के मुताबिक़, कॉरपोरेट्स और व्यक्तियों से कुल 258.4915 करोड़ रुपये मिले। इसमें से बीजेपी को 212.05 करोड़ रुपये और बाक़ी सभी पार्टियों को इलेक्टोरल ट्रस्ट का 82.05 प्रतिशत मिला। एडीआर ने रहस्योद्घाटन किया था कि बीजेपी ने वित्तीय वर्ष 2019-20 के दौरान कुल 3,623.28 करोड़ रुपये की आय घोषित की थी, जबकि इसी अवधि के दौरान काँग्रेस की कुल आय 682.21 करोड़ रुपये थी। 2022-2023 में भाजपा की आय पिछले वर्ष की तुलना में लगभग 23 प्रतिशत बढ़कर 2,360.84 करोड़ रुपये हो गई, जो काँग्रेस से पाँच गुना अधिक है। 2022-2023 में भारतीय स्टेट बैंक द्वारा कुल 2800.36 करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड बेचे गए। इस साल बेचे गए इलेक्टोरल बॉन्ड की कुल राशि का 46 प्रतिशत हिस्सा बीजेपी ने हासिल किया।

इस गोरखधन्धे से पहले, वाणिज्यिक उद्यमों को अपने लाभ का साढ़े सात प्रतिशत से अधिक राजनैतिक दलों को देने पर प्रतिबंध था, लेकिन बॉन्ड ने इसे भी समाप्त कर दिया  लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने बॉन्ड समाप्त करके पुरानी सीमाओं और शर्तों को फिर से लागू कर दिया।

 

 वैसे तो चुनावी बॉन्ड का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट में पाँच साल से ज़्यादा समय तक लटका रहा, लेकिन इसपर आख़िरी बहस बेहद दिलचस्प रही।  चुनाव आयोग ने बॉन्ड का समर्थन किया और सुप्रीम कोर्ट में कहा कि इसके अभाव में राजनैतिक दल नक़द चन्दा लेंगे जबकि चुनावी बॉन्ड योजना में पारदर्शिता है। ये दोनों बातें ग़लत हैं क्योंकि बॉन्ड की मौजूदगी में भी नक़द चन्दा ज़ोर-शोर से लिया और ख़र्च किया जाता है और चूँकि बॉन्ड ख़रीदनेवाले का नाम भी ज़ाहिर नहीं किया जाता, इसलिए पारदर्शिता नहीं होती है। सुप्रीम कोर्ट ने पारदर्शिता बनाने के लिए चुनाव आयोग को सभी चन्दा देनेवालों के नाम अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित करने का निर्देश दिया है। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के ईमानदारी से क्रियान्वयन के बाद कुछ हद तक पारदर्शिता संभव है।

चुनाव आयोग के ख़िलाफ़ वादी संगठन एडीआर की पैरवी करनेवाले जाने-माने वकील प्रशांत भूषण का कहना था कि इलेक्टोरल बॉन्ड चन्दे के नाम पर सत्ताधारी पार्टी को रिश्वत देने का ज़रिया बन गया है। इस दलील को सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार करने के बाद यह भी कहा कि यह रिश्वत का चन्दा हमेशा न केवल सत्तारूढ़ दल को दिया जाता है, बल्कि उस दल को भी दिया जाता है जिसके भविष्य में सत्ता संभालने की सबसे अधिक संभावना होती है। यह सच है, लेकिन इस मामले में भी इलेक्टोरल बॉन्ड रिश्वत ही ठहरते हैं, इसलिए इन्हें रद्द करना ही सही है। प्रशांत भूषण ने यह तर्क भी दिया कि स्वयं भारतीय रिज़र्व बैंक ने भी इसपर आपत्ति जताई थी, क्योंकि आरबीआई के अनुसार बॉन्ड योजना आर्थिक भ्रष्टाचार का एक उपकरण या साधन है। रिज़र्व बैंक ने इस जोखिम के बारे में भी चेतावनी दी कि लोग इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदने के लिए विदेश से धन जुटा सकते हैं।

हिंडनबर्ग रिपोर्ट ने साबित कर दिया है कि गौतम अडानी के भाई ने सिंगापुर और दुबई आदि में कई शेल (बेनामी) कंपनियां स्थापित की हैं। इसमें चीनी मालिक भी शामिल हैं। वे बॉन्ड ख़रीदकर भारतीय चुनावों को प्रभावित कर सकते हैं। अत: रिज़र्व बैंक की यह आपत्ति सही प्रतीत होती है कि भ्रष्टाचार का एक मकड़जाल है। यह वास्तव में काले धन के ख़िलाफ़ भाजपा के कथित अभियान के नाटक को बेनक़ाब करके उसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाता है। सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश ने पूछा कि क्या इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदने वाला यह साबित करता है कि इस ख़रीद में इस्तेमाल किया गया पैसा उसकी घोषित संपत्ति का हिस्सा है। यानी यह भी तो संभव है कि कोई बेनामी बॉन्ड ख़रीद ले। जब एजी के के वेणुगोपाल ने कहा कि लोग अपने बैंक खातों से चेक के माध्यम से बॉन्ड ख़रीदते हैं, तो कोर्ट इस जवाब से संतुष्ट नहीं हुआ और आगे पूछा कि क्या वह राशि ख़रीदनेवाले के घोषित आयकर के अन्तर्गत आती है या अघोषित सम्पत्ति का अंग?

एजी के पास इन कठिन सवालों का कोई जवाब नहीं था, लेकिन वादी के वकील प्रशांत भूषण ने कहा कि ज़्यादातर लोग नक़द भुगतान करके बॉन्ड ख़रीदते हैं, ख़रीदार को बैंक द्वारा कोड दिया जाता है और उसके द्वारा अपनी पहचान बताकर वह बॉन्ड का मालिक बन जाता है।

बॉन्ड के माध्यम से आतंकवादियों को वित्तपोषण के बारे में पूछे जाने पर सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि केवल राजनैतिक दल ही इसे भुना सकता है। सीजेआई ने पूछा कि अगर कोई पार्टी किसी आतंकवादी अभियान या गुप्त एजेंडे के तहत किसी विरोध प्रदर्शन में भाग लेने के अभियान का समर्थन करती है तो क्या होगा? क्योंकि कई पार्टियों का अघोषित एजेंडा भी होता है। इस पर अटॉर्नी जनरल ने कहा कि सभी पार्टियाँ अपनी आय का ब्योरा चुनाव आयोग को देती हैं, लेकिन जो लोग दिन-रात झूठ बोलते हैं, उनके द्वारा पेश किए गए ब्यौरे पर कौन यक़ीन कर सकता है? सुप्रीम कोर्ट ने इन सभी तर्कों के आलोक में इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को असंवैधानिक ठहराते हुए इसे अमान्य घोषित कर दिया। इस फ़ैसले से सुप्रीम कोर्ट ने अपने  आत्मविश्वास और गरिमा को बहाल करने का सराहनीय कार्य किया है। (शब्द  1395)

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