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आज का संस्करण

नई दिल्ली, 21 मई 2024

आत्मनिर्भरता और मेरे मित्र सिंह साहब

प्रदीप माथुर

नाश्ते की मेज से उठकर जैसे ही मैंने कमीज पेन्ट पहनी श्रीमतीजी ने शंकित दृष्टि से मुझे देखा और पूंछा कहाँ कि तैयारी है।

“कहीं नहीं, पास ही जरा सिंह साहब से मिलने जा रहा हूँ। फोन आया था, लगता है कुछ प्राब्लम में हैं।”

“अच्छा जल्दी आ जाना। जम कर न बैठ जाना”, श्रीमतीजी ने कहा।

“क्यों कोई आनेवाला है क्या”, मैंने पूंछा।

“आयेगा कौन? कोरोना के इस टाइम में सब अपने घर में ही बंद रहते हैं। वह कपड़े धोने हैं। कल के भी पड़े हैं”, श्रीमतीजी ने कहा।

“अच्छा ठीक है”, मैने कहा।

श्रीमतीजी बोली “और सुनो वह मटरे भी छीलनी है, जो दो किलो तुम ले आए हो। मुझे वैसे ही इतने काम हैं। न जाने कब यह सब ठीक होगा और काम करने वाली बाई अपना शुरु करेगी”।

मैंने चुप रहना ही ठीक समझा। दरवाजा बंद कर लो कहकर मैं बाहर निकल आया।

सिंह साहब के घर का दरवाजा जा खुला था। मैं अंदर पहुंचा तो देखा वह सोफे की कोच पर लेटे हैं। बाये हाथ और पैर में मोटी सी पट्टी बंधी है और चेहरे पर भी खरोच के निशान है।

“अरे यह क्या हुआ”, मैंने पूंछा।

कल शाम को एक्सीडेन्ट हो गया”, सिंह साहब कुछ कराहती हुई आवाज में बोले।

“अरे कैसे”, मैंने पूंछा

“बैठिये सब बताता हूँ”, वह बोले। “कल शाम को मैंने स्कूटर निकाला और सोचा जरा दूध और सब्जी वगैहर ले आऊ। सड़क पर एक देवीजी अपने कुत्ते को लेकर जा रही थी। यकायक कुत्ता मेरी तरफ झपका और स्कूटर का संतुलन बिगड़ गया और मैं सड़क पर गिर गया”, सिंह साहब बोले।

“अरे यह तो बहुत गलत हुआ। आपने उन देवीजी से कुछ कहा नहीं”, मैंने पूंछा।

“कहा नहीं, अरे वह तो उल्टे ही मेरे पीछे पड़ गई। कहने लगी आप मुझे घूर कर सीटी बजा रहे थे और इसीलिए कुत्ता आपके पीछे झपटा। और यह कहते-कहते उन्होंने 100 नंबर डायल करके पुलिस की वैन भी बुला ली। वह तो सड़क पर ट्रैफिक नहीं था वरना सीन बड़ा हो जाता”, सिंह साहब बोले।

“तो क्या हुआ आप बड़े सरकारी अफसर हैं पुलिस के किसी अधिकारी को फोन कर देते”, मैने कहा।

“बात इतनी आसान नहीं थी। किनारे ले जाकर पुलिस वाले को पैसे देकर मामला ठीक कराया गया। फिर उसने देवीजी को समझा-बुझाकर घर भेजा”।

“पर क्यों, जब आपकी गलती ही नहीं थी तो पुलिस वाले को क्यों पैसे दिये”, मैंने पूंछा।

“आप समझे नहीं। अगर पुलिस वाले का मुंह बंद न करता तो वह इस बात की चर्चा करता और कल किसी सामाचार पत्र में छपा हुआ मिलता कि एक सरकारी अधिकारी पर महिला से छेड़छाड़ का आरोप। यदि ऐसा होता तो मैं कहीं का न रहता”, सिंह साहब बोले।

उनकी बात मेरी समझ में आई। “पर यह बताइये कि आपको स्कूटर चलाने की यह सूझी क्या। आपका ड्राइवर कहां है और फिर यह दूध सब्जी लाने का काम तो चपरासी करता है आप को जाने की क्या पड़ी थी”, मैंने कुछ नाराज होते हुए कहा।

कुछ बचाव की मुद्रा मे सिंह साहब बोले “आत्मनिर्भर होने की चाह में मैंने ड्राइवर की छुट्टी कर दी और चपरासी का घर आना बंद करवा दिया। कार की बैटरी न होने की वजह से कार स्टार्ट नहीं हो पाई। इसलिए स्कूटर निकालना पड़ा”।

मेरी नाराजगी सहानुभूति में बदल गई। सिंह साहब के कितने उच्च और आदर्शवादी विचार हैं, सोचकर मुझे उनसे अपनी मित्रता पर गर्व हुआ।

“भाभीजी नहीं दिखाई दे रहीं, गई हैं क्या”। कुछ ठहरकर मैंने पूंछा।

“क्या बताये”, सिंह साहब बोले। “आत्मनिर्भरता के चक्कर में हमने घर की बाई को भी निकाल दिया था। कुछ दिन तो चला। फिर श्रीमतीजी कहने लगीं कि मुझसे इतना घर का कामकाज नहीं होता है। मैंने समझाने की कोशिश की तो बात जरा बढ़ गई और वह नाराज होकर अपने भाई के घर चली गई हैं”।

अब स्थित की गंभीरता मेरी समझ में आयी। घर में बिना किसी नौकर के अकेले चोटिल पड़े सिंह साहब और भाभीजी मायके में। समस्या जटिल थी और इसका हल तुरंत निकालना था।

“अच्छा तो क्या किया जाय, यदि आप ठीक समझे तो मैं भाभीजी को फोन कर दूं”, मैंने कहा।

“हाँ... हाँ वह तो करना ही पड़ेगा पर इससे पहले आप किसी बाईजी को हमारे यहां काम पर लगवा दें। यह बहुत जरुरी है”, सिंह साहब बोले।

“ठीक है, मैं देखता हूं”, कहकर मैं उठ खड़ा हुआ एक ऐसी बाईजी की तलाश में जो सिंह साहब के साथ-साथ मेरे घर में भी काम पर आ सके। कहीं ऐसा न हो कि अल्टीमेटम देकर अपनी श्रीमतीजी भी मायके का रुख कर ले।

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