जो लोग समझते हैं इस देश के मतदाता मूर्ख हैं वे सबसे बड़े मूर्ख हैं। इस देश के मतदाता महान हैं ।सबसे महान वे हैं जो अनपढ़ हैं। गरीब हैं। मुफलिस हैं। वे बड़े से बड़े दल को, उसके नेताओं को कब रास्ता दिखा देंगे- कोई नहीं जानता। उनके ऊपर न तो मीडिया का प्रभाव पड़ता है और न ही सोशल वेबसाइटों का । वे घड़ी देखकर वक्त नही बताते बल्कि सूरज की परछाई से वक्त नापते हैं।
कहे कोई कुछ भी लेकिन जब तक ईवीएम की मशीन से परिणाम छन कर नही आता बड़े से बड़े चुनाव सूरमाओं का जी धक धक करता रहता है। पहले चुनाव के पहले मुद्दों पर लम्बी चुनावी बहस चलती थी। मतदाता मुखर हुआ करते थे। लेकिन अब आमने सामने की बात नही रही। राजनीति डिजिटल मोड़ पर चलने लगी तो मतदाता ने भी होंठ सी लिए। अब उसे टटोलना आसान नही रहा। नुक्कड़ सभाएं, पदयात्रा, चुनावी रैलियां को मंझाकर भी हम नही जान पाते कि जनता का रुख क्या है। नतीजा यह है कि मीडिया ने भी अपना पैंतरा बदल लिया है ।अब वह भी दुकान लगाकर बैठे ज्योतिषी की ठकुरसुहाती की तर्ज पर सर्वेक्षण की कलाबाजी दिखाने लगा है।
मतदाताओं को मूर्ख समझने वाले लोग सबसे बड़े मूर्ख हैं। मतदाताओं ने अपने विवेक से राजनीतिक दलों को हराया और जिताया। चुनावी सर्वेक्षण कराना चुनाव प्रणाली का हिस्सा बन चुका है, लेकिन कोई भी चुनावी सर्वेक्षण तब तक तथ्यपरक नहीं हो सकता जबतक पूर्वाग्रहों को दरकिनार करके आंकलन न किया जाये।
मतदाताओं का विवेक से फैसला करना है। मतदाता कानून और न्याय व्यवस्था की गारंटी भी चाहता है। लोकतंत्र की वैचारिक परंपराओं के विमर्श को ताक पर रखकर अमेरिकी और फ्रांसीसी शैली मेम व्यक्तिवादी चरित्र को जिस तरह से फोकस किया जा रहा है उससे भी बेखबर नहीं है।
मतदाता जानता हैं में मतदान के लिए जब वह खड़ा होता तब सबके सामने हिन्दुस्तान का नक्शा होता है और नक्शे में भारत बोलता हैं। इस देश के मतदाता दूध का दूध और पानी का पानी कर के रहेगा। बस इन्तजार करें।
हकीकत में लोगों के मन को पढ़ने के लिए किसी बड़े तामझाम और दिखावे के नेटवर्क की जरूरत नही होती। यदि चुनावी सर्वेक्षण के परिणामो पर यह देश चलता तो २००४ में बाजपेयी सरकार किसी भी कीमत पर न जाती और इंडिया फीलगुड करता हुआ शाइनिंग कर रहा होता। । दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस धराशायी हो गयी होती और श्रीमती शीला दीक्षित की जगह विजय मल्होत्रा मुख्यमंत्री बन गये होते । कर्नाटक मे हुए चुनाव में त्रिशंकु विधान सभा बनी होती। मगर ऐसा कुछ नही हुआ। मतदाताओं ने अपने विवेक से राजनीतिक दलों को हराया और जिताया। यही नही ,२००७ में जब उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव हो रहे थे तो कोई भी सर्वेक्षण नहीं कह रहा था कि सुश्री मायावती की पार्टी बसपा को पूर्ण बहुमत प्राप्त हो जायेगा और २०१२ के चुनाव में तो कमाल ही हो गया। इस राज्य की मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी को खुद यकीन नहीं था कि वह २२५ के आकड़े पर पहुंचकर अपने बूते पर खुले हाथ से सरकार बनायेगी ।इसी प्रकार २००६ के लोकसभा चुनावों में किसी को यकीन नहींआ रहा था कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को ८० में से २२ सीटें मिल जायेंगी। फिर 2014 के बाद ऐसा लगा मानो राजनीति में भूचाल आगया । कांग्रेस लगभग हाशिये पर खड़ी हो गयी। 2019 के लोकसभा चुनाव में परिदृश्य नही बदला। देश फिर 2024 की चौखट पर है। वह हर चरण के बाद मतदान के प्रतिशत से अपना आकलन व्यक्त कर रहा है लेकिन उसे पढ़ने की कूबत हममें से किसी मे नही है।
मैं इन उदाहरणों का उल्लेख इसलिए कर रहा हूँ जिससे हम यह निष्कर्ष निकाल सके कि चुनावी सर्वेक्षण कराना चुनाव प्रणाली का हिस्सा बन चुका है। लेकिन कोई भी चुनावी सर्वेक्षण तब तक तथ्यपरक नही हो सकता जबतक पूर्वाग्रहों को दरकिनार करके आंकलन।न किया जाये। किसी भी भाषा का पत्रकार किसी दूसरे भाषायी प्रान्त में जाकर भी सच जान सकता है बशर्ते उसकी नीयत साफ हो।
सुना है कुछ पक्षी विशेष हैं जो दूसरों के बने बनाये घोसलों में अंडे दिया करते हैं और कुछ दूसरे पक्षी ऐसे भी है जो अपना घोसला बनाकर ही अंडे देते हैं। प्रायः देखा गया है कि चीटियां घर बनाती है लेकिन वे स्वयं उस बांबी में नही रह पाती क्योंकि उन बिलों में सांप रहने आ जाता है। इस देश का जागरुक अपढ़ मतदाता अच्छी तरह से जानता है कि बरसाती मेढकों से कभी ताल नहीं भरा करता। और न ही हर बात पर विरोध का झंडा उठाने से विकास होता है। मतदाता पर इस खीचतान ,भ्रष्टाचार, घोटाले और आपराधिक पृष्ठभूमि के मुद्दे भी असर करने लगने लगे हैं। मतदाता कानून और न्याय व्यवस्था की गारंटी भी चाहता है। बेशक देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को हाइक करने के लिए व्यवस्था नेअपनी तिजोरियाँ खोल दी हैं लेकिन फैसला उसके बाद भी मेहनतकश निर्धन मतदाता को करना है।
लोकतंत्र की वैचारिक परंपराओं के विमर्श को ताक पर रखकर अमेरिकी और फ्रांसीसी शैली मेम व्यक्तिवादी चरित्र को जिस तरह से फोकस किया जा रहा है उससे भी बेखबर नहीं है। इसीलिए कभी-कभी उम्मीदों का पड़ाव जितना करीब और आसान दिखाई देता है नजदीक पहुँचते-पहुँचते उतना कठिन हो जाता है। दरअसल जिस तेजी से भारत में चुनाव प्रणाली का व्यवसायीकरण हुआ है उससे कोई भी पक्ष अछूता नहीं रह गया है। इस भ्रमजाल को तोड की कूबत आज भी यहां के निर्धन मतदाता में है जिसे सभी अपनी टेंट में कैद कर लेना चाहते हैं। इस बार भी मुल्क के लोग हर पार्टी को डाकिया बनाकर अपनी चिट्ठियाँ उनसे इस बार भी पढ़वायेंगे और वक्त आने पर वह जताने में जरा भी देर नहीं लगायेंगे कि बांची गयी इन चिट्ठियों में कितनी गलतियाँ हैं। मतदाता जानता हैं में मतदान के लिए जब वह खड़ा होता तब सबके सामने हिन्दुस्तान का नक्शा होता है और नक्शे में भारत बोलता हैं। इस देश के मतदाता दूध का दूध और पानी का पानी कर के रहेगा ।बस इन्तजार करें।
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