क्या हिन्दी अमूर्त राजभाषा है? क्योंकि आजादी के पचहत्तर साल बीत जाने के बाद भी यह तय होना बाकी है कि हिन्दी किस देश-प्रदेश की भाषा है। किसी को पिछड़ा मानकर प्रोत्साहन देने के लिए जैसे वर्ष का एक दिन उसके नाम कर देने की प्रथा है जैसे-सदभाव दिवस, बाल-दिवस, शहीद दिवस, इसी तर्ज पर अमूर्त राजभाषा भी है जिसे हम बराबर छौंक रहे हैं ,बघार रहे हैं।
राजकाज करने वाले हर वर्ष बारी-बारी से घोषणा करते हैं हिन्दी राजभाषा की प्रगति जारी है। ऐसा लगता है- राजभाषा एक राकेट है रैकेट नहीं। ब्रह्मांड में किसी अज्ञात पथ पर आधी सदी से भी ज्यादा समय से बढ़ता जा रहा है अथवा राजभाषा एक मछली है जो सालभर समुद्र तल में पड़ी रहने के बाद हिन्दी पखवाड़े में ऊपर तिर आती है और हिंदी समारोह आते ही लम्बी उछाल लेकर कलाबजियाँ दिखाने लगती है। इस कलाबाजी को देखने अफसर, नेता और भूतपूर्व अध्यापक साहित्यकार पूरे त्योहारी ठाठ-बाट से जुड़ते हैं। वास्तव में इसी दिन हम हिन्दी को सरकारी जामा पहनाने का उपक्रम करते हैं । अपनी मातृभाषा पर गौरव करने का रिहर्सल करते हैं।
हिंदी अमूर्त राजभाषा है? यह प्रश्न आज भी विचार के लिए उपयुक्त है। हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया जाने के बाद भी, उसे किस देश-प्रदेश की भाषा कहा जाए? हिंदी आम लोगों की भाषा है, लेकिन सरकारी कार्य में अंग्रेजी का उपयोग प्राथमिक है।
संचार माध्यमों और विज्ञापन जगत में भी हिंदी का स्थान खिलखिलाता है। हिंदी को समझना और प्रसारित करना अभी तक मजबूरी की भाषा है। हिंदुस्तान का नाम भी हिंदी के द्वारा परिभाषित किया जाता है, लेकिन हिंदी टेन्शन से अटेन्शन रह गयी है।
हमारी राजनीति में हिंदी एक विषय है जो वोट बटोरने में उपयोगी है। हमारी दिक्कत यह है कि हम बाहर अंग्रेजी बोलते हैं, लेकिन घर पर हिंदी में बात करते हैं। हिंदी को समझना और प्रचारित करना अभी तक ही हमारी जिम्मेदारी है।
लगभग पचास-साठ करोड़ लोगों की इस हिन्दी भाषा की खासियत है कि यह आम लोगों की भाषा कहलाती है। उनके जुबान की भाषा है। इसलिए ज्यादातर उन्ही जगहों पर पायी जाती है जहा आम लोग आम स्थितियों में आम बातें करते हैं। संगीत में हिन्दी शब्द शरीर रूप में उपलब्ध है जबकि चित्र कला में यह अमूर्तरूप में भी मौजूद नहीं होती। भले ही यह राजकाज की , कामकाज की कभी हक जताने को हैसियत में कभी रही भी नहीं।
संचार माध्यमों के रंगारंग कार्यक्रमों में हिन्दी की स्थिति खिचड़ी में दाल के समान है जिसका इस्तेमाल परहेज के साथ किया जाता है। मूल चावल अन्तर्राष्ट्रीय मनोरंजन बाजार से उधार लिए हुए हैं। लिहाजा उद्घोषकों के कण्ठों से जो ध्वनियां निकलती हैं, वे ठीक-ठीक 'तालवाद्य कचेरी' जैसी होती है। विज्ञापन जगत में हिन्दी की भूमिका और भी अजीबो गरीब है। उसे सुनकर एहसास होता है कि हिन्दी ठिठोलियों की भाषा है और किसी गंभीर विचार को सरस बनाने के लिए उसकी संज्ञायें और क्रियाएं अचार चटनी की तरह इस्तेमाल कर ली जाती है। केन्द्र सरकार के दफ्तरों में तो हिन्दी अनुवाद और बहस की भाषा है। सरकारी काम के लिए आज भी हिन्दी बेकार का सिर दर्द है क्योंकि उनका काम दो सौ शब्दों की अंग्रेजी शब्दावली से अधिक सरलता से चलता है इसलिए मूल काम अंग्रेजी में सम्पन्न करके उसे अनुवादी जत्थे को लौंप दिया जाता है जो उसे बड़ी जतन से हिन्दी में ढ़ाल देते हैं ।जब पुरस्कारों का मौसम जाता है तो बाबू लोग साल भर अपनी फाइलों में लिखे अक्षरों को खुरच-खुरच कर बटोर लाते हैं और प्रति शब्द कुछ मुद्रायें पा जाते हैं। अधिकारियों के तो हिन्दी के हस्ताक्षर (अगर हों तो) भी पुरस्करणीय हो जाते हैं। काश! हम इस सार्थकता की सबकी बदौलत हिन्दी टेंशन में अटेंशन बनकर रह गयी और इस के बाद भी अभी तक एक्सटेंशन में है और हमारा राज भाषाई लगाव "हिंदी डे" तक सिमिट आया है क्योंकि हिन्दी राजनेताओं के लिए मजदूरी की भाषा है जो पाँच साल में एक ही बार जनसंपर्क के काम आती है।
वजह साफ है कहने को हिंदुस्तान यानी भारत इंडिया का पर्याय वाची नाम है। यूंकी प्रगति जारी है, तो ऐसा लगता है कपच पर आधी सदी से निरन्तर चलता आ रहा है या राज भाषा एक ऐसी मछली (सरकारी !) है जो साल भर राज काज के समुद्र तल में रहने के बाद हिन्दी पखवाड़े में ऊपर तिर आती है और ऐन सितम्बर मेंवसतह पर लम्बी उछाल लेकर कला बाजियों दिखाने लगती है। इस कलाबाजी को देखने नेता, अफसर, साहित्यकार, अध्यापक ,पत्रकार पूरे ठाट-बाट से जुटते हैं ।वास्तव में हमारा यही दिन मातृभाषा से संलाप का दिन कहलाता है।
कहने को हिन्दुस्तान, भारत अथवा इंडिया का पर्याय वाची नाम है जिसकी प्राचीनता का दम भरने वाले आज के आधुनिक भारत-निर्माताओं के बदौलत हिन्दी टेन्शन से अटेन्शन रह गई । इसीलिए अभी तक एक्सटेन्शन में है। हमारा भाषाई लगाव यहीं तक है। दरअसल हिन्दी राजनेताओं के लिए मजबूरी की भाषा है जो साल में एक बार जन सम्पर्क के काम आती है। वे इसे ऐसी भाषा मानते हैं जिसे वक्त जरूरत पर ही इस्तेमाल किया जा सकता है। सुनना और समझना दूर की बात है। उनके लिए इसे पिछड़े लोग ही पढ़ते हैं। समस्या सिर्फ इतनी है कि राजनीति में हिन्दी एक ऐसा सबजेक्ट है जो वोट बटोरने में च्यवनप्राश का काम करता है। हमारी दिक्कत है कि हम बाहर भले ही होठ सिले रहें पर घर में पैर रखते ही ताल ठोंकने लगे हैं। इसी परम्परा के तहत हम साल भर में सिर्फ एक बार हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की मांग दुहराते हैं। सरकार पर ऊँगली उठाने की हमारी आदत पुरानी है और इसका निर्वहन हम कई दशकों से लगातार सगर्व करते आये हैं।
इसका नमूना पिछले दिनों देखने को मिला जब राज भवन ही भाषाई विवाद का अखाड़ा बन गया। मंच पर आसीन थे केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा बिठाये गये राज्यपाल, जो आई.पी.एस. कैडर के अधिकारी रह चुके थे और बगल में उन थे एक ऐसे मुख्य मंत्री जो कभी एक कस्बे के मास्टर रहे थे जिस समारोह में राज्यपाल स्वतंत्रता दिवस का 'इन्डिपेन्डेन्स' मना रहे थे, उसी में गांधी जी के आंदोलन से प्रभावित होकर आजादी की लड़ाई में कूद पड़ने वाले स्वतंत्रता सेनानी भी थे। इन शब्दों को सुनकर वे विफर गये कि अंग्रेजी ही देश की नैया पार लगा सकती है बशायद वे यह भूल गये थे कि महामहिम में न 'हर' होता है और न ही हिज। महामहिम में सिर्फ 'हिम ' होता है। समारोह में मौजूद मुख्यमंत्री वैसे तो हिन्दी के सिपाही कहे जाते थे परन्तु वोट बटोरने के लिए वे उर्दू के छपर के नीचे भी शरण लेते रहते थे। वे वहाँ तो मुख नहीं खोल सके लेकिन एक दूसरे समारोह मे हिंदी का जबरदस्त समर्थन कर डाला। हमारा भी मानना है कि स्वतंत्रता सेनानियों के आक्रोश की नजरंदाज करना प्रदेश के हित में नहीं था लेकिन यह सावधान की मुद्रा में खड़े होने का संकेत अवश्य है ।गांधी जी गुजराती होकर भी हिन्दी के पक्षधर थे। उन्होंने अंग्रेजी में वकालत की पढाई भले की थी परन्तु अंग्रेजी की वकालत नही की थी। अब सवाल देवाहीता है कि कौन सही था ,टी.वी. राजेश्वर या गांधी जी। राजधानी के कुछ साहित्यकारों में प्रदेश के राज्यपाल से इस घटना के बाद शिष्टाबार मेंट के लिए समय मांगतेमांग पत्र में यह भी लिखना है कि वे 'महामहिम से हिन्दी में मिलना बाहते हैं।
वैसे सच भी यही है कि संवार माध्यमों के रंगारंग कार्यक्रम में भी हिन्दी की स्थिति खिलाड़ी में मूंग के दाल के समान है जिसका इस्तेमाल परहेज के साथ किया जाता है। मूल चावल अन्तर्राष्ट्रीय बजार से उधार लिये हुए हैं। लिहाजा उद्घोषकों के कंठों से जो ध्वनि निकलती है वह अंग्रेजी-हिन्दी ताल वाद्य कचेरी होती है। विज्ञापन जगत में उसका इतेमाल देखकर लगता है कि हिन्दी ठिठोलियों की भाषा है । किसी गम्भीर विषक को सरस बनाने के लिए उसकी संज्ञायें और क्रियाएं अचार चटनी की तरह इस्तेमाल कर ली जाती हैं। इसीलिए केन्द्र सरकार के दफ्तरों में हिन्दी अनुवाद भर की भाषा होकर रह गयी है। सरकारी काम काज में हिन्दी आज भी बेकार का सिरदर्द समझी जाती। है। इसीलिए मूल काम अग्रेजी में करके अनुवादकों को सौंप दिया जाता है। जो बड़ी जतन से हिन्दी में डाल देते हैं। एक बार फिर पुरस्कारों का मौसम आया है ।
मन हो तो मनाए। न मन हो तो न मनाए। हिंदी बेचारी शिकायत करेगी भी किससे। शिकायतों का मौसम है। क्यों न एक दिन के लिए हिंदी की भी सुनलें ।
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