image

आज का संस्करण

नई दिल्ली, 4 मार्च 2024

अनूप श्रीवास्तव

A person with glasses and a blue shirt

Description automatically generated

सांसों की उलझन

आयु अपनी शेष हो गई पीड़ा की पहुनाई में

अब भी सपने सुलग रहे देखे जो तरुणाई में

 

काजल सी काली अंधियारी यह रात ढलेगी

संभव आशाएँ मुस्काए पूरब की अरुणाई में

 

चैता की वो विरह गीतिका कबतक सिसके

कभी संदेशा आने का मिल जाए पुरवाई में

 

इन सांसों की उलझन में क्यों जीवन उलझे

हरियाए उपवन भी, कलियों की अंगड़ाई में

 

क्यों ना पाए समझ, झुकी दृष्टि की लाचारी

क्यों नहीं डूबकर देखा  चुप्पी की गहराई में

 

सहमे सहमे गलियारे हैं दरकी दरकी दीवारें

पहले कैसी चहलपहल होती थी अंगनाई में

 

जब स्वयं को भूल गए हम, अपने ही भीतर

कितना बेगानापन लगे अपनी ही परछाई में

 

मन की सारी व्यथा लिखी, इन गीतों छंदों में

पूरे सफर की कथा लिखी पांव की बिवाई में

***************

शीशे की रेखा

आज हमारे और तुम्हारे,

बीच खींची शीशे की रेखा.

 

सम्मुख होंगे हम तुम,

लेकिन होंगे मूक मन के स्वर.

 

लाख निकट होने पर भी,

मन की अदृश्य दूरी इतनी है,

 

 

जिसे कभी क्या नाप सकेंगे

मेरी बेबस  चाहों के स्वर

 

 

दुनिया अधरों से पीती है,

हम आंखों से घूंट रहे  हैं !

---------------

  • Share: