भारत में हाल के दिनों में विध्वंस की आड़ में जिस तरह से धार्मिक अल्पसंख्यकों और कमजोर वर्गों को निशाना बनाया जा रहा है, वह न्यायिक प्रक्रिया और संवैधानिक अधिकारों पर गंभीर सवाल खड़े करता है। कई राज्यों में सरकारों द्वारा बिना किसी उचित कानूनी प्रक्रिया के बुलडोजर का इस्तेमाल कर संरचनाओं को ध्वस्त किया गया, जिनमें घर, दुकानें और धार्मिक स्थल शामिल हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने इस स्थिति को संज्ञान में लेते हुए विध्वंस की इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए हस्तक्षेप किया है।
हाल के महीनों में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, दिल्ली और अन्य राज्यों में जिस प्रकार अल्पसंख्यकों के घरों और दुकानों को ध्वस्त किया गया, उसे देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप करने की जरूरत समझी। विशेष रूप से दिल्ली के जहांगीरपुरी क्षेत्र में हुई हिंसा के बाद जिस तरह से बुलडोजर का उपयोग कर अतिक्रमण हटाने की आड़ में विध्वंस किया गया, उसने कई सवाल खड़े किए हैं। हिंसा के बाद एनडीएमसी ने बिना किसी उचित कानूनी प्रक्रिया के कई घरों और दुकानों को गिरा दिया, जो कि सांप्रदायिक दंगों में शामिल होने का आरोप झेल रहे थे।
दिल्ली नगर निगम अधिनियम, 1957 के अनुसार, किसी भी विध्वंस से पहले संबंधित व्यक्ति को नोटिस जारी किया जाना चाहिए और उसे अपनी बात रखने का अवसर दिया जाना चाहिए। लेकिन जहांगीरपुरी के निवासियों को न तो कोई नोटिस दिया गया और न ही किसी कानूनी प्रक्रिया का पालन किया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने इस विध्वंस अभियान को तुरंत रोकने के आदेश दिए, लेकिन इसके बावजूद कई घंटे तक विध्वंस जारी रहा, जिससे कई गरीब परिवारों के घर, दुकानें और धार्मिक स्थल बर्बाद हो गए।
इस मुद्दे को लेकर जमीयत उलमा-ए-हिंद और अन्य संगठनों ने सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिकाएं दायर की हैं। याचिकाओं में मांग की गई है कि बिना उचित कानूनी प्रक्रिया के किसी भी संपत्ति का विध्वंस नहीं होना चाहिए और ऐसे मामलों में प्रभावित व्यक्तियों को न्याय का पूरा अवसर मिलना चाहिए। याचिकाकर्ताओं ने यह भी आरोप लगाया कि इन विध्वंस अभियानों का उद्देश्य राजनीतिक लाभ उठाना है और इन्हें विशेष रूप से अल्पसंख्यक समुदायों को निशाना बनाकर किया जा रहा है।
उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात और दिल्ली में विध्वंस अभियानों ने यह दिखा दिया है कि बुलडोजर अब एक राजनीतिक हथियार बन गए हैं। इन राज्यों में विध्वंस के पीछे प्रशासनिक अधिकारियों को सरकार का समर्थन प्राप्त है, जिसके चलते बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के लोगों की संपत्तियों को नष्ट किया जा रहा है। मध्य प्रदेश के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा का बयान कि "हम उन घरों को नष्ट करेंगे जहां से पत्थर फेंके गए थे," न्यायिक प्रक्रिया का अपमान है और एक खास समुदाय को निशाना बनाने की मंशा को दर्शाता है।
इस तरह के विध्वंस न केवल विधिक प्रक्रिया का उल्लंघन हैं, बल्कि यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 300 ए के तहत संपत्ति पर शांतिपूर्ण कब्जे के अधिकार का भी हनन है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि कई बार जिन संपत्तियों को ध्वस्त किया गया, वे गरीब लोगों की थीं और कुछ संपत्तियां केंद्र सरकार की प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत बनाई गई थीं।
सर्वोच्च न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने इस मुद्दे को "राष्ट्रीय महत्व" का बताया और कहा कि यह मामला हमारे देश के सामाजिक ताने-बाने को प्रभावित कर सकता है। विध्वंस का यह सिलसिला केवल जहांगीरपुरी तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका असर पूरे देश में देखा जा सकता है। यदि इस पर रोक नहीं लगाई गई तो कानून का राज समाप्त हो जाएगा और देश में न्याय की आड़ में सतर्कता न्याय (विजिलांटिज्म) का खतरा पैदा हो जाएगा।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस मुद्दे पर गंभीरता दिखाते हुए एनडीएमसी और केंद्र सरकार को नोटिस जारी किए हैं। न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति बीआर गवई की पीठ ने आदेश दिया कि जहांगीरपुरी में यथास्थिति बनाए रखी जाए और आगे कोई विध्वंस न हो। इसके बावजूद, विध्वंस जारी रहा और यह दिखाता है कि प्रशासनिक अधिकारियों को कानून का कोई भय नहीं है।
विध्वंस की यह प्रवृत्ति भारत के संवैधानिक मूल्यों और कानून के शासन को कमजोर कर रही है। सरकारों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि न्यायिक प्रक्रिया का पालन हो और किसी भी नागरिक के अधिकारों का हनन न हो। ऐसे मामलों में सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है ताकि देश में कानून और न्याय की गरिमा बनी रहे।
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