लोकतंत्र में मोहभंग ऐसा हादसा है जिससे बिरले ही निपट पाते हैं, बाकी तमाम सारे लोग गुमनामी के गड्ढे में चले जाते हैं। ऐसे में मोहभंग ही उनके लिए तिनके का सहारा होता है। जब चुनाव का थपेड़ा वर्षों की अर्जित प्रतिष्ठा को धूल धूसरित कर दे तो बेचारे मोहभंग का पल्लू न पकड़ें तो क्या करें, कहाँ जाकर मुंह छिपाएं? इस हालत में मोहभंग न केवल जरूरी हो जाता है बल्कि मजबूरी भी बन जाता है ।
राजनीति में जगह होती नहीं बनाई जाती है लोकतंत्र की गाड़ी वैसे भी उम्मीद के सहारे खिसकती है। राजनीति कुछ खोने के लिए नहीं बल्कि बहुत कुछ पाने के लिए की जाती है और जब हाथ मलने की नौबत दिखाई देने लगे तब मोहभंग करना जायज हो जाता है। मोहभंग भी बैठे ठाले नहीं होता उसके लिए तरह तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं, हाथ पैर चलाने पड़ते हैं। जमीन तलाशनी पड़ती है। स्थितियां बनानी पड़ती है। पटरी बिठालनी पड़ती है। तब कहीं जाकर लोकतंत्र में जुगाड़ बैठता है। राजनीति में कोई सती सावित्री नहीं होता। पटरी बिठालनी होती हैं। किसी का उनसे सात जन्मों का रिश्ता नहीं होता। तू नहीं तो और सही, और नहीं तो कोई और सही ।ऐसे में मोहभंग हवा में झूलती बरगद की जड़ों की तरह काम आता है।
लोकतंत्र में मोहभंग एक आवश्यक हथियार है, जिसके बिना राजनीति की गाड़ी नहीं चलती। मोहभंग से ही नेता अपनी प्रतिष्ठा बचा पाते हैं और नई जमीन तलाश पाते हैं।
राजनीति में मोहभंग की जरूरत इसलिए है क्योंकि यहां कोई सती सावित्री नहीं होती, बल्कि पटरी बिठालनी पड़ती है।
मोहभंग की जुगाड़ न कर पाने वाले हाथ मलते रह जाते हैं, वे न तो घर के रहते हैं न ही घाट के। लोकतंत्र में मोहभंग की स्थितियां और वजह बदलती रहती हैं, और अब यह कुछ ज्यादा पाने की जुगाड़ के लिए होती है।
दल जब दलदल लगने लगे तब दलदल में धसे रहने से क्या फायदा? मोहभंग का जुगाड़ बना नहीं कि एक झटके में बाहर, किसी नए दल की मजबूत जमीन पर। ऐसे में मोहभंग की जुगाड़ न कर पाने वाले हाथ मलते रह जाते हैं, वे न तो घर के रहते हैं न ही घाट के। किया भी क्या जाए? मोहभंग की नब्ज पहचानना हर एक को नहीं आता।
लोकतंत्र में चोटिल नेता मोहभंग होते ही गदराने लगता है ।सम्भावनाओं के कल्ले फुटने लगते हैं। इसलिए जो नेता राजनीति में मोहभंग के दायरे में नहीं आते वे निकम्मे माने जाते हैं। दूसरी पार्टी वाले भी उसे निठल्ला समझने लगते हैं। ऐसी राजनीति करने से क्या फायदा कि एक पार्टी को अपना पति परमेश्वर मान कर ता जिंदगी कोल्हू के बैल की तरह गणेश परिक्रमा करते रहो। होशियार जनप्रतिनिधि वही कहलाता है जो घाट घाट का पानी पीने में माहिर होता है। हर राजनीतिक पार्टी की नब्ज़ पर उसकी उंगलियां होती हैं। अपने दल का मामला जहां भी दाएं बाएं हुआ नहीं उससे पहले ही पतली गली से फूटकर निकल लेने में ही उन्हें अपना भविष्य दिखाई देने लगता है सयाना चूहा डूबते जहाज के साथ कभी अपनी जान नही देता।
कहने को मोहभंग एक रसायनिक क्रिया है जो विशेष परिस्थिति में ही पैदा होती है।अकारण नही सकारण होती है ।इसीलिए लोकतंत्र में मोहभंग की बैसाखी नदी नाव संयोग की तरह साखी का काम करती है। जब मोहभंग का जुगाड़ हो जाता हैं ,कर्ता सर्वनाम हो जाता है, स्थितियां भाव वाचक से स्वभाव वाचक में तब्दील हो जाती है। तभी कुछ कर गुजरने का जज़्बा बनता हैं।
यही वजह है कि लोकतंत्र में मोहभंग की स्थितियां और वजह बदलती रहती है। पहले मोहभंग होता था तो लगता था आसमान फट जाएगा।सब कुछ तहस नहस हो जाएगा। पैरों तले जमीन खिसक जाएगी। लेकिन अब कुछ भी नही फर्क पड़ता केवल कुछ मोहरे इस पाले से उस पाले में आराम से टहलते हुए चले जाते हैं। पालों को कुछ खास अंतर नही पड़ता। न इधर से न उधर से। कभी मोहभंग की सेंट्रल थीम हुआ करती थी पर अब जुगाड़ ने थीम को ही बदल दिया है। पूरी राजनीति पर स्वार्थ का मजबूत लिंटर यानी बीम पड़ा है।
जब मूड बने। दरवाजा या खिड़की से , किधर से भी निकाल लो। समय ने सेंट्रल थीम बदल दी है, अब मोहभंग कुछ ज्यादा पाने की जुगाड़ के लिए होती है। दूसरे के फटे में टांग अड़ाने के लिए होती है । खुद की महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए सिद्धान्त का मुखौटा लगा कर इस्तेमाल की जाती है।
हर देश में मोहभंग की क्वालिटी, क्वांटिटी और वैरायटी अलग अलग होती है पर अपने यहां मोहभंग हमेशा स्वतः नहीं होता बल्कि किया और करवाया भी जाता है। लोकतंत्र में मोहभंग का खेल आये दिन होता रहता है क्योंकि मोहभंग की धुकधुकी कभी बन्द नहीं होती।
लोकसभा चुनाब के परिणाम ने एक बार फिर मोहभंग की जमीन तैयार कर दी है। कोई भी सरकार बने वह पलटू रामों के दबाव से बच नही पाएगी ।यह भी तय है।
दल बदल के एक बार नही कई बार पाले खिचेंगे। दल बदल की लक्ष्मण रेखा का एक और मजबूत पाला खिंचे तो किसी को ताज्जुब नही होगा।
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