पाकिस्तान एक इस्लामिक राज्य है या फिर इसे मुसलमानों का राज्य कहना पर्याप्त है। इसके बाद एक अहम सवाल यह है कि अगर यह एक इस्लामिक राज्य है तो इस्लाम एक ही है फिर चाहे वह काले बंगाली हों या फिर यूरोप के गोरे हों इसलिए यह एक केंद्रीकृत राज्य नहीं होना चाहिए। साथ ही इस पर बहस क्यों नहीं होनी चाहिए।
पाकिस्तान में सबसे पहले एक संवैधानिक निर्णय लेने की जगह सेना को राजनीति में हस्तक्षेप करने में सक्षम बनाया गया। इसके बाद भारत के साथ दुश्मनी ने भी सेना को और सशक्त बनाया। यदि पाकिस्तान भारत के साथ वैचारिक रूप से लगातार युद्ध कर रहा है तो उसे सैन्य रुप से मजबूत होने की जरूरत है। पाकिस्तान की स्थापना के प्रारंभिक वर्षों में एक और समस्या भी आई दो राष्ट्र के सिद्धांत को प्रतिपादित और पाकिस्तान की मांग करने वाले अधिकांश मुस्लिम लोगों नेता उत्तर प्रदेश और बिहार से थे विभाजन के बाद जब वह लोग पाकिस्तान गए तब उन्होंने पाया कि पंजाब और सिंध में उनका कोई जनाधार नहीं था इसलिए जनप्रिय बनने और अपनी सार्थकता बनाए रखने के लिए उन्होंने धार्मिक कट्टरता का ही सहारा लिया।
पाकिस्तान एक इस्लामिक राज्य है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यह एक केंद्रीकृत राज्य होना चाहिए। पाकिस्तान की स्थापना के बाद से ही सेना का राजनीति में हस्तक्षेप होना शुरू हो गया था।
इसके बाद भारत के साथ दुश्मनी ने सेना को और सशक्त बनाया। पाकिस्तान के नेताओं ने धार्मिक कट्टरता का सहारा लिया और देश के विभाजन के लिए जिम्मेदार हैं।
आज पाकिस्तान का प्रबुद्ध वर्ग यह समझ रहा है कि विकास की दौड़ में पीछे रहने की वजह वैचारिक शून्यता और भटकाव है। लेकिन यह वर्ग अभी बहुत छोटा है और पाकिस्तान के जनमानस पर इसका प्रभाव बहुत ही सीमित है।
पूर्वी पाकिस्तान में बढ़ते असंतोष पाकिस्तानी सेना के दमन और वर्ष 1971 के युद्ध के बाद बांग्लादेश के निर्माण ने दो राष्ट्रवादी सिद्धांत के वैचारिक आधार पर कुठाराघात किया। यह स्पष्ट हो गया था कि राष्ट्र निर्माण का आधार धर्म नहीं हो सकता। आशा थी कि इसके बाद विभाजित पाकिस्तान की राजनीति में धार्मिक विचारधारा का महत्व कम होगा। पर हुआ इसका ठीक उल्टा ही। अपना वर्चस्व बढ़ाने और भारत से शर्मनाक हार पर मुंह छिपाने के अपने प्रयास में प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने भी धर्म का सहारा लिया। उन्होंने शिमला समझौते के बाद भी भारत से 1000 वर्षीय युद्ध की बात कही। इसके साथ ही उन्होंने मुसलमानों को गैर-मुस्लिम घोषित करने वाला कानून भी पास करवाया।
स्वभाव और आचरण से उदारवादी भुट्टो राजनीतिक सुरक्षा तथा तात्कालिक लाभ लेने के लिए कट्टरपंथियों की गोद में चले गए। इस तरह से पाकिस्तान ने आधुनिक और प्रगतिशील राष्ट्र के निर्माण का एक सुनहरा अवसर फिर से गवा दिया। भुट्टो एक जनप्रिय नेता थे लेकिन वह काफी हद तक पाकिस्तान के विभाजन और बांग्लादेश बनने के लिए उत्तरदायी थे। यदि वह वर्ष 1970 के पाकिस्तानी आम चुनाव में बहुसंख्यक दल के रूप में उभरे पूर्वी पाकिस्तान के अवामी लीग के अध्यक्ष शेख मुजिबुर रहमान को प्रधानमंत्री बनने देते तो शायद ना बंगालियों का सैन्य दमन होता और न ही बांग्लादेश अस्तित्व में आता। शायद यह अपराध बोध ही भुट्टो की राजनीतिक असुरक्षा का एक कारण था। दूसरा कारण प्रभावशाली पंजाबी-पठान सैन्य तंत्र के बीच उनका सिंधी होना था, जो भारत विभाजन के समय तक मुंबई में ही रह रहे थे।
भुट्टो अकेले ऐसे नेता नहीं थे जो धार्मिक प्रतीकों से खेलकर अपना जनाधार बढ़ाकर आधुनिक पाकिस्तान का निर्माण करना चाहते थे। इस्लाम को राष्ट्र निर्माण का आधार मानने की पहली भूल तो पाकिस्तान के संस्थापक कायदे आजम मोहम्मद अली जिन्ना ने ही की थी। जिन्ना की धर्म कर्म में कोई रुचि नहीं थी और वह नाम मात्र के ही मुस्लिम थे। लेकिन धर्म और धार्मिक प्रतीकों का उपयोग करके पाकिस्तान के सभी नेता कट्टरपंथी मुल्ला-मौलवियों के हाथो खेल गए। आज प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ भी यही गलती कर रहे हैं जिसका नुकसान उन्हें भुगतना पड़ेगा।
आज पाकिस्तान का प्रबुद्ध वर्ग वह तमाम असुविधाजनक प्रश्न कर रहा है जिसका वहां के सत्तारुढ़ वर्ग के पास कोई जवाब नहीं है। विदेशों में बसे पाकिस्तानी मूल के व्यक्ति तथा वहां कार्यरत पाकिस्तानी नागरिक भी इस बात से आहत है कि पाकिस्तान को हिकारत की नजर से देखा जाता है। भारत से तुलना करने पर पाकिस्तान के लोगों का नैराश्य भाव और भी बढ़ जाता है।
मूल समस्या यह है कि पाकिस्तान की परिकल्पना के बाद नए राष्ट्र निर्माण की दिशा में न तो कोई चिंतन हुआ और न ही कोई गंभीर प्रयास हुआ। धर्मांधता, धार्मिक उद्देग, जोश, हिंदू विरोध, टकराव और हिंसा ने पाकिस्तान की नींव तो अवश्य रख दी। पर इसे राष्ट्र का रूप देने के विषय पर कोई गंभीर अध्ययन नहीं किया गया। पाकिस्तान की स्थापना के 15 वर्ष बाद पाकिस्तान का पहला संविधान आया जो कि बार-बार बदला गया। जिसके कारण न तो विकास का मार्ग बन सका और न ही किसी संस्थागत ढांचा को निर्माण हो सका। परिणामस्वरुप उपनिवेशवादी ब्रिटिश राज की संस्थाओं का ही सहारा लिया गया, जो कि एक नए राष्ट्र को चलाने में सक्षम नहीं थी। भूमि सुधार और शिक्षा जैसे अहम मुद्दों को नकारा गया तथा आर्थिक विकास का कोई रोडमैप भी नहीं बनाया गया। सेना और हथियारों पर सीमित संसाधनों का बहुत बड़ा भाग व्यय किया गया। इस तरह से अर्थव्यवस्था की यह अनदेखी करने का परिणाम आज सबके सामने है।
पाकिस्तान वैश्विक समुदाय का एक बड़ा और महत्वपूर्ण राष्ट्र है। जनसंख्या, क्षेत्रफल, सैन्य बल, प्राकृतिक संसाधन तथा भौगोलिक स्थिति की महत्ता के कारण पाकिस्तान की गिनती आसानी से विश्व के दस बड़े राष्ट्रों में की जा सकती है। इसलिए पाकिस्तान की त्रासदी सारे विश्व के लिए चिंता का विषय बनी हुई है। यह एक ऐसा विषय है जिस पर विश्व के तमाम प्रबुद्ध वर्ग को चिंतन करने की आवश्यकता है। अब प्रश्न यह खड़ा होता है कि क्या पाकिस्तान को एक राष्ट्र के रूप में पुन: परिभाषित करना संभव है।
पहली बात तो यह है कि यह कार्य खुद पाकिस्तान को ही करना होगा। यदि किसी बाहरी प्रबुद्ध राजनीतिक विश्लेषक, शोधकर्ता व अध्ययनकर्ता की उपइस कार्य में जरुरत है तो पाकिस्तान के सत्तारूढ़ वर्ग को सहायता की मांग खुद ही उनसे करनी होगी। पर क्या पाकिस्तान के सत्ताधारी वर्ग के अंदर इस बात की कोई चेतना है कि सही वैचारिक आधार ना होने के कारण आज राष्ट्र भटकाव की स्थिति में है।
आज पाकिस्तान का प्रबुद्ध वर्ग यह समझ रहा है कि विकास की दौड़ में पीछे रहने की वजह वैचारिक शून्यता और भटकाव है। मीडिया सेमिनार और व्याख्यान मालाओं में यह बात बेबाकी और जोरदार ढंग से कही जाती है। लेकिन यह वर्ग अभी बहुत छोटा है और पाकिस्तान के जनमानस पर इसका प्रभाव बहुत ही सीमित है।
ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि क्या यह बात जनमानस की चेतना बनकर एक क्रांतिकारी वैचारिक आंदोलन में परिवर्तित हो पाएगी या नहींॽ इस प्रश्न का उत्तर आने वाला वक्त ही बतलाएगा।
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वरिष्ठ पत्रकार प्रोफेसर प्रदीप माथुर भारतीय जनसंचार संसथान (आई. आई. एम. सी.) नई दिल्ली के पूर्व विभागाध्यक्ष व पाठ्यक्रम निदेशक है। वह मीडिया मैप न्यूज़ नेटवर्क के संपादक व् स्थित स्कूल ऑफ इंटीग्रेटेड मीडिया स्टडीज (सिम्स) के अध्यक्ष है।
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