हम श्रमजीवी पत्रकारों की नजर में संपादक अज्ञेय की पिछले हफ्ते 113वीं जयंती थी । वह एक रूमानी व्यक्ति रहे। कथित प्रगतिशील और जनवादीमार्का लोगों का उनसे वैमनस्य घनघोर रहा। कुछ साहित्यकार उनसे स्वाभाविक प्रतिष्पर्धा भी करते थे। अज्ञेय की प्रशस्त काया -- अजब और कद्दावर -- अपना असर गहरा डालती थी। गोरे गोरे चेहरे पर घवल केश (दाढ़ी-मूंछ) ऐसी धाक सर्जाती थी कि उन्हें भूले न भुलाये। “टाइम्स” संस्थान में मेरे साथी रघुवीर सहाय जी ने अपने इस संपादक (दिनमान) से मेरा परिचय कराया था। इसके पूर्व मेरे लोहियावादी साथी स्व. रामकमल राय जी से अज्ञेय जी के बारे में जान चुका था। रामकमल भाई ने अज्ञेय जी की जीवनी लिखी थी।
अपने छः दशकों के पत्रकारी जीवन में मुझे दो घटनाएँ याद हैं जो हमारे पेशे से ताल्लुक रखती हैं। पहला तो उनका लम्बा नाम (सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय) जो बहुलतावादी लगता था। अजूबा भी था। एक बार "नवभारत टाइम्स" कार्यालय से उत्तर प्रदेश जनसंपर्क निदेशालय को संदेशा आया कि अतिथि गृह में कमरे चाहिए। किसी गोष्ठी के लिए संपादक जी पधार रहे थे। आगमन पर पता चला उनके लिए चार कमरे बुक किये गये थे !
दूसरी घटना मेरे कार्यालय से जुड़ी थी। तब लखनऊ में टाइम्स ऑफ़ इंडिया के राज्य संवाददाता के नाते मैं अशोक मार्ग दफ्तर में कार्यरत था। "नवभारत टाइम्स" भी पड़ोस वाले कमरे में बसा था। टेलीप्रिंटर एक ही था। रोमन लिपि वाला। लखनऊ में टाइम्स व नवभारत टाइम्स (1978-83) संस्करण नहीं छपते थे।
दिक्कत की बात यह थी कि संध्या के सात बजे के बाद भेजी गई खबर दिल्ली में छप नहीं पाती थी, जब तक वह भूचाली या गगनभेदी न हो। "नवभारत टाइम्स" की हिंदी की खबर रोमन लिपि में टाइप करने में ढाई गुना समय लगता था। समाचार की दृष्टि से यह बड़ा व्यवधान बन गया था। दिल्ली मुख्यालय में जाकर मैंने अज्ञेय जी से शिकायत की। भारत सरकार के उपक्रम हिंदुस्तान टेलीप्रिंटर ने तभी नागरीलिपि में नई मशीन का उत्पादन शुरू किया था। मेरा सुझाव था कि ये किराये पर लग सकती है। सुभीता हो जायेगा। मेरा अनुरोध अज्ञेय जी ने माना, पर प्रश्न यह था कि यदि बजाय साहित्यकार के, कोई पत्रकार संपादक होता तो इतनी देर न लगती। हड्डी के डॉक्टर से चर्म रोग का उपचार कराने जैसा हो गया था। साहित्यकार को पत्रकार का काम दे दिया गया था। अज्ञेय जी से एक और मेरा निवेदन था कि हैदराबाद और अहमदाबाद हिंदी पाठकों का प्रदेश हो गया है। मैं दोनों शहरों में काम कर चुका था। मैंने अज्ञेय जी से आग्रह किया कि वहाँ "नवभारत टाइम्स" का अपना संवादाता नियुक्त हों। मगर ऐसा हुआ नहीं। मेरी अंग्रेजी की कॉपी का ही अनुवाद होता रहा। भला हो राजेन्द्र माथुर जी का जिन्होंने हिंदी-भाषी संवाददाता को नियुक्त किया।
अज्ञेय जी का वामपंथियों को सबक सिखाना मुझे बहुत अच्छा लगा। “सोवियत भूमि पुरस्कार” के लिए सदैव लालायित रहने तथा रूसी वजीफे पर पलने वाले इन जनवादियों को अदम्य हिम्मती अज्ञेय जी ने बौद्धिक अस्त्र द्वारा वैचारिक द्वंद्व में परास्त किया। हालाँकि उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ा।
आज उनकी जयंती पर इसलिए भी उनका स्मरण करें क्योंकि पत्रकारी हिंदी को प्रांजल बनाने में, समाचार को सौष्ठव और सम्यक बनाने में उनका असीम योगदान रहा।(शब्द 545)
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