हरियाणा चुनाव परिणामों ने कांग्रेस पार्टी के लिए कई सवाल खड़े कर दिए हैं। भले ही कांग्रेस ने 40% वोट प्राप्त किए, लेकिन फिर भी सत्ता प्राप्त नहीं कर सकी। लगता है की जनता को ऐसा महसूस हुआ कि कांग्रेस ने उनके मुद्दों को गंभीरता से नहीं लिया, जिससे वह कांग्रेस पर पूरा भरोसा नहीं कर पाये l
वोटिंग से यह स्पष्ट होता है कि हरियाणा की जनता अब असंतोष और संघर्ष के दौर से गुजर रही है और वे एक सच्चे विकल्प की तलाश में हैं। जबकि बीजेपी की नीतियों के खिलाफ व्यापक असंतोष था, कांग्रेस ने अपनी बातों को धरातल पर उतारने में नाकामी दिखाई। जनता ने स्पष्ट संकेत दिया है कि वे बदलाव चाहती हैं, और अगर कांग्रेस अपनी कार्यशैली में सुधार नहीं करती, तो उसे आगे की चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। यह समय है कि कांग्रेस अपनी नीति और दृष्टिकोण पर विचार करे, ताकि वह आगामी चुनावों में जनता का विश्वास फिर से जीत सके।
चुनाव परिणामों पर हरियाणा की जनता को दोष देने वाले लोग वास्तव में अपनी ही सीमित सोच का प्रदर्शन कर रहे हैं। जब बीजेपी के प्रति लोगों में गहरा असंतोष और विरोध था, तभी कांग्रेस को 40% वोट मिले। यह सवाल उठता है कि क्या बीजेपी के शासन में लोगों को ऐसा कोई अद्भुत विकल्प मिला था, जिससे वे कांग्रेस की ओर मुड़ते? हुड्डा परिवार का शासन भी जनता के लिए कोई सुखद अनुभव नहीं रहा है, फिर भी वोटिंग में कांग्रेस को मिले समर्थन ने यह स्पष्ट कर दिया कि जनता अब और अधिक बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं है।
राहुल गांधी और कांग्रेसियों को लगता है कि उनके पास जाति जनगणना ऐसा महा अस्त्र है जिसके पीछे उनकी सारी जनविरोधी व पूंजीपरस्त नीतियां छिप जाएंगी और जनता उन पर लट्टू हो जाएगी।
किंतु जाति जनगणना के बाद सिर्फ भयंकर खर्चीले कॉलेजों में कुछ सीटों और औपचारिक नौकरियों की सीमित व सिकुड़ती संख्या के बंटवारे तक की ही बात है तो इससे दलित वंचित जातियों के अधिकांश मेहनतकश हिस्से को कितना लाभ होगा? लोकसभा चुनाव में संपदा के पुनर्वितरण की बात एक बार करने के बाद पूंजीपतियों अमीरों का कटु विरोध देख राहुल गांधी ने उस बात पर चुप्पी साध ली है। सार्वजनिक शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, आवास, आदि के कांग्रेस भी विरोध में है। निजीकरण को उसका भी समर्थन है। संपत्ति जो समाज की अल्पसंख्या के पास इकट्ठा हो गई है, उसका पुनर्वितरण जितना पूंजीवाद में भी संभव है उतने के लिए भी बोलने का साहस नहीं है। सार्वजनिक व्यवस्था के पक्ष में नहीं हैं।
अगर सब कुछ निजी हो जाएगा और रोजगार नियमित के बजाय अस्थाई व तदर्थ ही होंगे तो जाति जनगणना के बाद दलितों वंचितों को समानुपातिक हिस्सा किस किस चीज में मिलेगा? ऐसे तो बीजेपी सरकार ने भी कह दिया है कि निजी क्षेत्र में 5-6 हजार रुपये महीने वाली अप्रेंटिसशिप में आरक्षण देगी। पर 5-10 हजार वाली निजी नौकरियों में तो पहले ही वंचित जातियों की संख्या समानुपातिक से अधिक ही होगी। तो ऐसे आरक्षण से वास्तव में मिलेगा क्या?
हरियाणा पश्चिम यूपी में कहावत है मरी हुई भैंस पुण्ण (दान) कर दी! बस ये वो मरी हुई भैंस पुण्ण करने वाली बात है, जिस पर बीजेपी कांग्रेस में नूरा कुश्ती चल रही है, मेहनतकश उत्पीडित वंचित जनता को वास्तविक लाभ देने वाली कोई नीति दोनों ओर नहीं है। कुछ हजार रुपये देने वाली जहां तक बात है वो भी दोनों ही कर रहे हैं, पर उससे जिंदगी की कौन सी समस्या का हल है?
एक और शोर मचाया जाता है जीसटी या गब्बर सिंह टैक्स का। पर राहुल गांधी का प्रस्ताव क्या है? जीसटी की एक दर अर्थात 40 व 28% घटकर 16 या 18% हो जाएगा और 5 व 12% बढकर 18% हो जाएगा। इससे आम लोगों को फायदा होगा या नुकसान? इससे सिर्फ पूंजीपतियों और व्यापारियों को लाभ होगा।
मेहनतकश जनता को लाभ तब होगा जब जीएसटी जैसे अप्रत्यक्ष करों को समाप्त और कॉर्पोरेट मुनाफों व अमीरों की अकूत संपदा पर टैक्स लगाने की बात हो। उस टैक्स से इकट्ठा राशि से सार्वजनिक शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, यातायात, स्वच्छता, आदि को सुलभ व सार्वत्रिक बनाने पर खर्च किया जाए, उसमें मेहनतकशों-वंचितों को प्राथमिकता देने की नीतियां बनाईं जाएं।
कांग्रेस समर्थकों को लगता है कि बिना कोई ठोस वैकल्पिक नीति पेश किए सिर्फ हो हल्ले के बल पर जनता को आकर्षित कर लेंगे, और जब वैसा नहीं होता तो वे जनता को मूर्ख, गोबर, धर्म के नशे में अंधे, वगैरह वगैरह कहने लगते हैं क्योंकि वे जनता को वास्तव में वैसा ही समझते हैं।
पर बिना कोई वास्तविक लाभ पहुंचाए हो हल्ला मचाने की तिकड़मों में तो आरएसएस उनसे अधिक माहिर है। उसने बिना कोई वास्तविक लाभ दिए ही उपवर्गीकरण के नाम पर दलितों को विभाजित कर दिया, एक हिस्से को अपने पक्ष में कर लिया।
अगर 'विरोधी' शक्तियों की ओर से सबके साझा व सामान्य हितों/फायदों को बढ़ाने तथा विस्तृत करने, जनता की एकता को मजबूत बनाने, की कोई बात ही नहीं है, सिर्फ जो है उसमें भी आधे अधूरे हिस्सा बंटवारे की बात ही एकमात्र बात है तो शासक वर्ग व फासिस्ट सत्ता के पास हिस्सा बंटवारे की बात को अपने पक्ष में मोड़ने की तमाम तिकड़में मौजूद हैं। यह सब पुरानी जानी हुई बात है कि शोषितों के बीच हिस्सा बंटवारे की आपसी होड़ ही शोषकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत है। उस होड़ को तीखा करने का काम उसने कामयाबी के साथ कर दिखाया और जिसे हार बताया जा रहा था उसे जीत में बदल दिया।
अगर फासिस्ट सत्ता को वास्तव में परास्त करना है तो इन्हीं चुनावी दलों के भरोसे न रहकर मेहनतकश जनता को अपना वास्तविक विकल्प खुद ही खडा करना होगा।
चुनाव आयोग वगैरह वगैरह की भूमिका भी सत्ता की तिकड़मों में से ही एक है।
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