हम जिस डाल पर बैठते हैं, उसी को काटते हैं। फिर काटेंगे। यही हमारी नियति है। चुनाव का मूलमंत्र है। दीगर बात यह है कि कभी गाड़ी नाव पर तो कभी नाव गाड़ी पर। चुनाव का यही भाव है। और स्वभाव भी। सच में वर्षों बाद ऐसा संयोग आया है जब पूरा देश अप्रैल में दो बार अप्रैल फूल बनेगा। पहले फर्स्ट अप्रैल का असर महीने के पहले ही दिन तक रहेगा। वह भी कुछ घण्टों तक पर दूसरा 'अप्रैल फूल' मई जून तक मार करेगा और उसको घमक पूरे पाँच साल तक छायी रहेगी।
हममें से ढेर सारे लोग फिर हाथ मलने को मजबूर होंगे हम हाय फिर अप्रैल फूल बन गये। वह भी अपने ही हाथों यही तो लोकतांत्रिक अप्रैल-फूल है जब खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने वाला ही अप्रैल फूल कहलाता है। मजा यह है कि हमारी मूर्खता इस बार चुनावी महा ग्रहण के चलते एक दिन का अप्रैल फूल नही रहा उसका विस्तार जून तक हो गया है।
समझौता एक बहुमूल्य साधना है, जिसका उद्देश्य हर कोई चुनाव तक हर एक को लांघना है। लोकतांत्रिक अप्रैल फूल एक साधना है, जिसका उद्देश्य विकास की प्रक्रिया को तेज चलाना है। सच है कि जो अपना विकास नहीं कर सकता वो भला दूसरों की क्या करेगा। अतः दूसरों के विकास के पहले अपना विकास बहुत जरूरी है।
चुनाव की बेला में सभी सपनों का दर्शन दिखाये जा रहे हैं, और जनता को रोटी, रोजगार का सपना फ्री आफ कास्ट देखने को मिल रहा है। समझौता एक बहुमूल्य साधना है, जिसका उद्देश्य हर कोई चुनाव तक हर एक को लांघना है। लोकतंत्र से उनकी आस्था डिगे नहीं होनी चाहिए, और सभी पार्टियां अपनी साधनाओं को जारी रखती हुई अपने पैरों पर खड़ी हैं।
दिलचस्प बात यह है कि अप्रैल फूल बनने का यह सिलसिला सालों से चल रहा है। इस बार तो होली और चुनाव दोनों ही गड्डमड्ड हो गये हैं। गले मिलने के बजाय चुनाव के चुनाव कर होरिहारे सीधे गले पड़ रहे हैं। उनकी समझ में आ गया है कि फर्स्ट-अप्रैल की सीढ़िया बना कर ही सत्ता के मंच पर पहुंचा जा सकता है।
पूरे देश को अकेले अप्रैल फूल बना पाना अब किसी एक पार्टी के बूते की बात नहीं रह गयी है। इसीलिए इस बार का चुनाव समझौतों पर लड़ा जा रहा है। सालों से पूर्वाभ्यास चल रहा था। चुनाव की घोषणा हुई तो फटाफट 'गठबन्धन' की गायें खुलने बंधने लगी। जो लोग रूठी प्रेमिका की तरह मुंह बनाये बैठे थे ,वे मेकअप करके एक दूसरे को रिझाने में लग गये हैं। जो एक दूसरे को फूटी आंखों नहीं सुहाते थे । अब एक दूसरे के पाले में मुस्कराते हुए खड़े हैं। यह समझौता अवसर वादी है। बड़े काम का है। दोहरी मार करता है। भीतर से जड़े काटता है, ऊपर से दोस्ती गाँठता है। किसी भी तरह जीवित रह जाये-। यह समझौता भाजपायी है। कांग्रेस परेशान है उनके एक ओर सपा तो दूसरी ओर बसपा है। यानि एक ओर कुआँ-तो दूसरी ओर खाई है इसीलिए उसने दोनों के बीच में जगह बनाई है। समझौता एक साधना है उन्हें चुनाव तक हर एक को लांघना है। समझौते के लिय हर कोई आतुर हैं पर अविश्वास की मात्रा इतनी ज्यादा उनके दिलों में घर कर गई कि एक होकर भी अनेक हैं। कब कौन कहाँ पलटी मार जाय कोई भरोसा नहीं। फीलगुड की राजनीति सीधे-सीधे बैडफील से टक्कर ले रही है। जनता चक्कर में पड़ गई कि बैडफील महसूस करे या फीलगुड । जनता का सारा ध्यान अपनी लंगोटी बचाने में लगा है।
आजादी के बाद से अब तक हर चुनावों में वो केन्द्र में रही और चुनाव बाद किनारे कर दी गई। केन्द्र और किनारे के बीच झुलते-झूलते आजादी के पचहत्तर वर्ष तक की हमारी साधना सिर्फ लंगोटी बचाने तक ही रही। चुनाव की बेला में कांटे महकने लगे। फूलों की बौछार हर वक्ताओं के मुंह देखी जा रहीं। चुनता को तमाम सपने दिखाये जा रहे हैं। जनता को रोटी ,का रोजगार का सपना ,फ्री आफ कास्ट देखने को मिल रहा है। कोई बन रहा है तो कोई बना रहा है।
साधु-सन्यासी मन्दिर-मस्जिद, तू-तू-मैं-मैं की चिल्लपों से सिद्धान्तों का घोल पिलाने की प्रक्रिया का ही नाम लोकतंत्र है। आजकल विकास की प्रक्रिया काफी तेज चल रही है। विकास की बारा घोषणा पत्र से शुरू होती है और उसी में समा जाती है। सच है जो अपना विकास नही कर सकता वो भला दूसरों की क्या करेगा। अतः दूसरों के विकास के पहले अपना विकास बहुत जरूरी है। आपने देखा होगा कि मुख्य मंत्री, प्रधान मंत्री से लेकर गांव का प्रधान पहले अपने दरवाजे की सड़क बनवाते हैं। ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते हैं सड़कें जेब में समाती जाती है। ताकि लोकतंत्र से उनकी आस्था डिगे नहीं। आप विश्वास मानो उपर्युक्त प्रक्रिया अप्रैल-फूल की ही परिधि में आती है।
वे बड़े भाग्यशाली होते हैं जो अप्रैल फूल बनने के बाद भी न तो आह करते हैं और न वाह। कल उन्होंने बनाया, आज ये बना रहे हैं। कार्यशैली और नीयत एक जैसी है। बस चोला और रंग बदला है। अप्रैल फूल बनना हमारी नियति बन चुकी और दो भी लोकतांत्रिक अप्रैल फूल। एक तो करैला दूजे नीम चढ़ा। वाह क्या कहने ।
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