महात्मा गांधी का भारत का विचार समावेशी-धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, सभी के लिए स्वतंत्रता, समानता, न्याय और अधिकार दिलाने वाला है। जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का भारत का विचार एकमात्र हिंदुत्व है जैसा कि एम.एस.गोलवलकर और विनायक दामोदर सावरकर ने परिभाषित किया। महात्मा गांधी के नेतृत्व में जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, बी.आर.अम्बेडकर, संविधान के अन्य संस्थापक सदस्य और नेताओं ने हमारी अंतर्निहित विविधता को पहचाना और सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार पर आधारित संसदीय लोकतंत्र को चुना।राष्ट्रपिता और अब तक के सबसे महान संचारकों में से एक महात्मा गांधी ने विश्वास, संस्कृति और अपनी सही समझ का उपयोग कर एक शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ देश में जन-आंदोलन का निर्माण किया। भारत के पहले प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देते हुए कट्टरता से लड़ाई लड़ी और क्रिएटिव सोच रखने वाले लोगों को नवाचार के लिए प्रोत्साहित किया। सार्वभौमिक मताधिकार ने भारतीयों को समानता और सामाजिक न्याय के लिए लड़ने का अधिकार दिया।
18वीं शताब्दी में यूरोप में राष्ट्रवाद सामाजिक-राजनीतिक अवधारणा के रूप में विकसित हुआ और इसके तीन मुख्य परिभाषित स्तंभ हैं- एक भाषा, एक धर्म और एक भारतीय राष्ट्रवाद बहुभाषी व बहु-कॉमन शत्रु। इसके विपरीत, धार्मिक है और इसका कोई कॉमन
शत्रु भी नहीं है। स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान भी अंग्रेजों को दुश्मन नहीं माना जाता था और हम राष्ट्रमंडल के सदस्य बने रहे और स्वतंत्रता के बाद पॉलिसी के रूप में गुटनिरपेक्षता को अपनाया। लेकिन हिंदुत्व आरएसएस के संरक्षण में एक सांस्कृतिक शक्ति के रूप में और बीजेपी एक सत्तारूढ़ पार्टी के रूप में लेकिन एक सांस्कृतिक शक्ति के रूप में आरएसएस और केंद्र में एक सत्तारूढ़ पार्टी के रूप में भाजपा के संरक्षण में भारतीय राष्ट्रवाद हिंदुत्व के सहारे यूरोपीय मॉडल आधारित राष्ट्रवाद- एक धर्म- हिंदू, एक भाषा- हिंदी और एक कॉमन शत्रु- पाकिस्तान की ओर पूरी शक्ति के साथ अग्रसर है। जो भी इससे भिन्न राय या विचार रखता है उनके नजर में वह देशद्रोही और आतंकवादी है।
राष्ट्रवाद वह जननी है जिससे राष्ट्र-भक्ति और अंध-राष्ट्र-भक्ति (अंधराष्ट्रीयता) दोनों उभर कर सामने आते हैं, हालांकि दोनों में अंतर करने के लिए एक पतली रेखा है लेकिन इसके बड़े परिणाम हैं; देशभक्ति एक गुण है जबकि अंध-राष्ट्रीयता एक दोष है। 2014 के संसदीय चुनाव के समय राष्ट्रवाद और राष्ट्रभक्ति जैसी भावनाओं को पब्लिक और मीडिया डिस्कोर्स में प्रमुखता से उठाया गया था।
यूपीए-2 के दौरान विभिन्न कथित घोटाले व भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आंदोलन और दैनिक उपयोग की वस्तुओं की बढ़ती कीमतों ने मध्यम और निम्न वर्गों के जीवन पर काफी बुरा प्रभाव डाला, तत्कालीन प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह के कमज़ोर नेतृत्व और 10 साल के कार्यकाल ने कांग्रेस पार्टी को बहुत कमज़ोर कर दिया। कांग्रेस के इस नकारात्मक पक्षों का फायदा उठाते हुए, बीजेपी आरएसएस ने अपने सीनियर लीडर एल.के. आडवाणी को दरकिनार करते हुए गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में नामित करने का फैसला किया। बीजेपी ने 2014 के संसदीय चुनाव के लिए सितंबर 2013 के शुरुआत में ही रणनीतिक तौर पर देश के विभिन्न वर्गों और क्षेत्रों को लक्षित कर अपना अभियान शुरु किया।
दिल्ली विश्वविद्यालय के श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में छात्रों के साथ मोदी की बैठक युवाओं की आकांक्षाओं से जुड़ी, युवाओं पर एक बड़ा प्रभाव डाला। हरियाणा के रेवाड़ी में एक रैली में रक्षा बलों के जवानों से जुड़ने का एक प्रयास था। देश के विभिन्न हिस्सों में सामूहिक रैलियों को "सिंह, गर्जन" के साथ एक अच्छी अच्छी मीडिया स्टोरी बनाकर नरेंद्र मोदी को देश भर में प्रसारित किया गया, जिससे मोदी की लोकप्रियता में आशातीत वृद्धि हुई और मोदी को देश-भर में एक घरेलू नाम बना दिया। जैसे, 2014 के संसदीय चुनावों ने भाजपा को एक सुनहरा अवसर प्रदान किया, "अब की बार मोदी सरकार"।
समुदायों के तुष्टिकरण के रूप में चिह्नित किया जाता है।
आम तौर पर मतदाताओं और खासकर युवाओं में बड़ी उम्मीदें जगाई जा रही थीं। इसी स्थिति का फायदा उठाकर भाजपा ने आक्रामक प्रचार-प्रसार अभियान शुरू किया। भाजपा अपनी रणनीति के रूप में नरेंद्र मोदी को एक से अधिक यूएसपी (यूनिक सेलिंग पॉइंट्स) के साथ मार्केटिंग कर रही थी और समाज के विभिन्न वर्गों के मतदाताओं तक पहुंचने की अपील कर रही थी। नरेंद्र मोदी की इस यूएसपी में उनका मजबूत, निर्णायक और एक सक्षम प्रशासक होना और उनकी अपील विकास और युवाओं की आकांक्षाओं को पूरा करना शामिल था।
मार्केटिंग अभियान ने मोदी को देशव्यापी नेता बना दिया और मोदी एक उत्पाद/ वस्तु से एक ब्रांड में तब्दील हो गया। जैसे-जैसे अभियान आगे बढ़ा, राजनीतिक बयानों/ भाषणों का मुख्य फोकस विकास से सांप्रदायिक बनाम धर्मनिरपेक्ष बहस में सीधा स्थानांतरित हो गया और इसी के साथ भाजपा-आरएसएस का हिंदुत्व चेहरा सामने आया और मोदी एक मजबूत नेता के रूप में उभरे, इसे धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुसलमानों के लिए खतरा माना गया। जिससे मुसलमानों ने उन लोगों के पक्ष में अपने बढ़ते हुए एकीकरण की ओर अग्रसर किया जो भाजपा उम्मीदवारों को 'संभवतः' हरा सकते थे। मुस्लिम सुदृढ़ीकरण के प्रति प्रतिक्रिया के रूप में हिंदू एकीकरण से ऐसा प्रतीत होता है कि संसदीय चुनावी लड़ाई में भाजपा को इसका एक बड़ा लाभ मिला है। भारतीय मतदाता, हालांकि उनमें से कई गरीब और अनपढ़ हो सकते हैं, लेकिन विवेक से अपने मतदान के फैसले से रणनीतिकारों, कई चुनाव अभियानों के स्मार्ट योजनाकारों और सर्वेयरों को आश्चर्यचकित करते हैं। मतदाताओं विशेष रूप से युवाओं ने, नरेंद्र मोदी के पक्ष में विकास और आकांक्षात्मक आशाओं के लिए जाति, धर्म और क्षेत्र जैसी उनकी कई मौलिक पहचानों को नजरअंदाज करते हुए बीजेपी के पक्ष में वोट दिया और इस तरह 2014 और 2019 के संसदीय चुनावों में बीजेपी को निर्णायक जीत दिलाई और इस तरह केंद्र में गठबंधन सरकारों के युग का अंत किया।
केंद्र और कई राज्यों में भाजपा के सत्ता में आने से राष्ट्रवाद में बड़ी तेजी से उबाल आ गया है। भारत में प्रमुख राजनीतिक नैरेटिव तीव्र गति से विभाजनकारी होता जा रहा है। संभावित वोट बैंक के रूप में लोगों को लामबंद करने के लिए राजनीतिक विमर्श में जाति, धर्म, क्षेत्र जैसे पहचान का बेशर्मी से इस्तेमाल किया जा रहा है। एक प्रतिस्पर्धी लोकतांत्रिक राजनीति में 'हम लोग' बनाम 'वे लोग' की धारणा अपरिहार्य है। लेकिन विभाजनकारी राजनीति और मीडिया के विमर्श अब अंधराष्ट्रवाद होते जा रहे हैं और उनसे इतर विचार या सोच रखने वाले की देशभक्ति पर सवाल उठाना स्वस्थ विकास नहीं है। हमने कई क्षेत्रों में पर्याप्त प्रगति, विकास और आधुनिकीकरण किया है, लेकिन हमारी सार्वजनिक चर्चा जाति, पंथ और क्षेत्रों के संदर्भ में जारी है, जिससे सामाजिक-आर्थिक असमानताएं और अधिक दृश्यमान, बोधगम्य और यहां तक कि असहनीय हो जाती हैं। अल्पसंख्यकों और हाशिए के समुदायों की मदद करने के सकारात्मक उपायों को 'सभी नागरिकों की समानता' के नाम पर लड़ा जाता है और अल्पसंख्यकोंऔर एससी/ एसटी डोमिनेंट नैरेटिव विभाजनकारी होने के कारण प्रतिस्पर्धी वोट बैंक की राजनीति में मुखर तेवर और असहिष्णुता की ओर ले जाता है। कुछ निर्वाचित नेता (सत्तारूढ़ दल भाजपा के सदस्य) संसद में दो बच्चों वाले परिवार के लिए "जनसंख्या नियंत्रण" विधेयक पेश करने की योजना बना रहे हैं। तथ्य के रूप में, भाजपा शासित उत्तर प्रदेश ने पहले ही 10 जुलाई को दो बच्चों वाले परिवार के लिए 'जनसंख्या को नियंत्रित' करने के लिए एक मसौदा कानून (कानून) जारी किया है, जिसमें प्रोत्साहन और निरूत्साहन दोनों के प्रावधान हैं।
मीडिया, विशेष रूप से टीवी न्यूज चैनल ऐसे विभाजनकारी नैरेटिव के व्यापक प्रसार के लिए आसान मंच प्रदान करता है। सोशल मीडिया इससे एक कदम और आगे जाता है और सभी के लिए मौखिक आक्रामकता और यहां तक कि पहचान के दावे के लिए हथियारों के खुले प्रदर्शन के लिए अखाड़ा के रूप में कार्य करता है। इसके परिणामस्वरूप 'दूसरों' और उनकी व्यक्तिगत राय, धर्म, पहनावा और भोजन की पसंद सहित संस्कृति के प्रति असहिष्णुता बढ़ रहा है।इसलिए संचार, राजनीति, देशभक्ति और राष्ट्रवाद के लिए गांधीवादी दृष्टिकोण पर फिर से विचार करना संतुलन के लिए आवश्यक है।
__________
डॉक्टर जसवंत यादव जनसंचार विशेषज्ञ और राजनैतिक समीक्षक हैं वह जनसंचार शोध संस्थान कम्युनिकेशन रिसर्च फाउंडेशन नई दिल्ली के अध्यक्ष है।
We must explain to you how all seds this mistakens idea off denouncing pleasures and praising pain was born and I will give you a completed accounts..
Contact Us