जहां रचना प्रधान होती है:वहां गीत या कविता,छंद अथवा छंदहीनता पर बहस बेमानी हो जाती है। अच्छा हो हम रचना कर्म पर बाते करें।
बनारस (तब वाराणसी का नाम स्थापित नही हुआ था) की एक शाम को एक चाय घर मे उमाकांत और धूमिल आमने सामने बैठे हुए थे। ठाकुर भाई भी थे,माहेश्वर तिवारी भीथे। बहस नई कविता पर छिड़ गई थी। धूमिल अपने विशिष्ट अंदाज़ में गीत से आगे बढ़ आने की बात कह रहे थे। उमाकांत मालवीय मुस्कराते हुए गीत तक आगे बढ़ आने की बात कह रहे थे। बात उसके बाद भी आई गयी नहीं हुई। अपनी अपनी बात पूरी किये बिना ही दोनों टेबल छोड़ कर उठ गये थे। हांलाकि पीठ पीछे भी बहस चलती रही।
इलाहाबाद और बनारस ने बहुत अच्छे गीतकार दिए थे जिनमें रमानाथ अवस्थी ,गिरिधर गोपाल,गोपेश प्रमुख थे। इनके बाद के गीतकारों में उमाकांत मालवीय प्रमुख थे। उनके बाद भोलानाथ गहमरी, किशन सरोज,बुद्धि नाथ मिश्र, माहेश्वर तिवारी, डॉ सुरेश श्रीवास्तव चर्चित हुए। इनके साथ कितने ही गीतकार उभरे जिनके चेहरे और नाम याद आते हैं पर वे नई कविता की भागदौड़ में ज्यादा उभर नही पाए। जो उभरता नहीं,वह खड़ा नही रहता। मुरझाता है।धीरे धीरे झड़ जाता है या दुहराव के दुख से जड़ हो जाता है। रमानाथ जी बाहर जाने से बच गए। रामानंद दोषी, रामावतार त्यागी भी बाहर जाकर पनपे। दुष्यंत ने गज़ल में नई कविता की धार देकर अपनीजगह बनाई।
हिंदी कविता के विकास पर आधिकारिक रूप से लिखने वाले बड़े कवि जिनके तब के निबंधों में नवगीत की चर्चा तक नही थी,नव गीत आंदोलन के ध्वजवाहक बन गए। नतीजतन नवगीत आंदोलन अपनी पहचान बनने के पहले ही इतिहास की वस्तु बन गया। यही स्थिति हाशिये से केंद्र में अपनी धमक दिखाने वाली व्यंग्य विधा के साथ होना है। जो विधा चकाचौंध के केन्द्र में होती है उसका हस्र यही होता है।
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