आगे आने वाले कुछ ही दिनों में लोक
सभा के लिए होने वाले चुनाव की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाएगी । पाचं राज्यो के चुनाव के बाद इन चुनावो को लेकर सब तरह के कयास लगाए जा रहे हैं और देश के तमाम छोटे-बड़े नेताओं के राजनीतिक भविष्य की संभावनाओं का आंकलन किया जा रहा है. राजनीतिक दलों और उनके उम्मीदवारों की हार-जीत चुनाव का रोमांच और लोकतांत्रिक व्यवस्था का स्पंदन है. इसलिए कोई भी चुनाव छोटा हो या बड़ा देश और समाज के लिए महत्वपूर्ण होता है. पर आनेवाले लोक सभा चुनाव
विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि उनका परिणाम हमारे देश और समाज का भविष्य रेखांकित कर सकता है. यह चुनाव दो विकल्पों में ही नहीं बल्कि दो विपरीत राजनीतिक विमर्शों (नैरेटिव्स) में है और मतदाता इन पर अपनी मोहर लगायेगे.
एक राजनीतिक विमर्श भारत को एकीकृत, बहुसंख्यकवादी, भूतजीवी संस्कृति और उस पारंपरिक समाजिक व्यवस्था का गौरवशाली प्रतीक मानता है जो एक संकीर्ण मानसिकता तथा अवैज्ञानिक सोच पर आधारित है. इस विमर्श को जनप्रिय और सर्वग्राही बनाने के लिए भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) इसको राष्ट्रवाद का नाम देती है और इसके विरोधियों को राष्ट्रद्रोही कहती है.
इसके विपरीत दूसरा विमर्श भारत को विविध सभ्यताओं, संस्कृतियों, प्रजातियों, धार्मिक मतों, भाषाओं और विभिन्न सामाजिक रीति-रिवाजों वाली एक ऐसी बहुआयामी राजनीतिक ईकाई मानता है जिसका समाज इन सब विविधताओं को अपने में समाहित करके वैज्ञानिक सोच और चिंतन के साथ आधुनिक विश्व में अपनी एक अलग पहचान बनाने के लिए प्रयासरत है.
इन दो विपरीत विचार-विमर्श की धाराओं का टकराव पिछले वर्षों में तीव्र तो आवश्यक हुआ है पर यह 2014 के चुनाव के बाद सत्ता में आए 'मोदी युग' की उपज नहीं है. इसकी जड़ें 18वीं शताब्दी के अंत में यूरोप में हुई औद्योगिक क्रांति, भारत में अंग्रेजी उपनिवेशवाद के बढ़ते शिकंजे और भारत के उच्च व प्रबुद्ध वर्गीय समाज की नई युग में प्रवेश करते विश्व की सचेतना में है. इसी के चलते 19वीं शताब्दी के आरंभ में भारत में सामाजिक पुनर्जागरण की प्रक्रिया आरंभ हुई, जिसमें राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद, सर सैय्यद अहमद, जमशेद जी टाटा जैसे तमाम विभूतियों को जन्म दिया. जिन्होंने सामाजिक कुरीतियों और अज्ञान के घनघोर अंधकार में रहने वाले हमारे समाज को एक नया जीवन और नई प्रेरणा दी.
विदेशी शासकों ने इस सांस्कृतिक पुनर्जागरण को अपने हितों की रक्षा और उपनिवेशवादी व्यवस्थाओं को सुदृढ़ करने की दिशा में मोड़ा. इसके लिए उन्होंने पहले धार्मिक और क्षेत्रीय टकराव की परिस्थितियां पैदा की और फिर उनको बल दिया. इसकी परिणति वर्ष 1947 में भारत के विभाजन के रुप मे हुई ।
बहुसंख्यकवादी एकाकी राजनीतिक विमर्श जाने-अनजाने उसी षड्यंत्रकारी उपनिवेशवादी मनोवृति को जीवित रखकर उसका पोषण कर रहा है जिसने भारतीय समाज का धर्म और जाति के आधार पर वर्गीकृत विभाजन करके उस वैज्ञानिक सोच और चिंतन को अवरुद्ध किया हुआ है, जो देश के विकास के लिए अतिआवश्यक है.
आगामी लोक सभा चुनावो की पृष्टभूमि इन दो परस्पर विरोधी विमर्श धाराओं में सीधा और शायद अब तक का सबसे बड़ा संघर्ष है. इस चुनाव के परिणाम दूरगामी होंगे और राजनीतिक दलों और उसके नेताओं के भविष्य से कहीं अधिक आने वाले दिनों में हमारे समाज और हमारी सामाजिक सचेतना को परिभाषित करेंगे.
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