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आज का संस्करण

नई दिल्ली, 6 दिसंबर 2023

अनूप श्रीवास्तव

मारे देश की,
राजनीति को देखकर,
पूरी दुनिया को,
यही एक क्लेश है,
हमारा लोकतंत्र,
त्योहारों का देश है !

हम जब,
नया साल मनाते हैं,
लोग बाग,
यह समझ ही नहीं पाते हैं-
क्या खोते क्या पाते हैं?
होली,दीवाली,दशहरा,
ईद,बकरीद,लोहड़ी,
या बड़ा  दिन जैसा,
कोई  भी छोटा बड़ा त्योहार.

लेकिन,
कोई भी त्योहार,
सिर्फ खोने या पाने ,
के लिए नही होता है !
हम पूरे उल्लास -जोश में होते है,
उसे मनाने के लिए पूरा देश होता है.

देश झूमता है,
नाचता है,गाता है,
पूरे मन  से,
खुशियां मनाता है.
चाहे पन्द्रह अगस्त हो,
या हो छब्बीस जनवरी,
पूरे दम खम से,
अपनी आजादी को जताता है,
हम कभी गुलाम थे
यह भी पीढ़ी दर पीढ़ी को जताता है.

यह देश मुहम्मद का है,
ईसा और गुरुनानक का है,
बुद्ध और गांधी का है,
सभी को गले लगाता है
चाहे पूजा का समय हो,
या फिर नमाज़ का वक्त,
सभी के इर्द गिर्द मंडराता है.

वैसे हमारा देश का,
सबसे बड़ा त्योहार
यानी लोकतांत्रिक चुनाव का,
सबसे बड़ा ज्योनार है.
जहां चंद दिनों के लिए,
छोटे बड़े सब बराबर हो जाते हैं.
एक से एक सत्ताधारी ,
फिर से सत्ता पाने के लिए,
  गरीब जनता की चौखट पर 
हर पांच साल बाद सिर नवाते हैं
 जो इसमें सफल नहीं हो पाते
 वे ही निरीह पांडवों की तरह
 अगले चुनाव तक बनवास चले जाते हैं . 

कहने को हमारा प्रजातंत्र,
 चुनाव का सबसे ,
बड़ा कारखाना है.
लेकिन सच बात तो यही है
 यही लोकतंत्र को कारनामा है,
 जहां गरीब हर बार पिसता है, 
और अमीर बैठे-बैठे खाता है.

यह देश सुविधाभोगियों का है
 और  मौकापरस्तों का है 
लेकिन जो जैसा होता है 
उसे वैसा ही चेहरा दिखाता है

 यहां कुत्ते ही, सीढ़ियां चढ़ते हैं,
 और हाथी खड़े-खड़े भूकते हैं 
जो कुछ भी नहीं कर पाते हैं ,
वे पूरे देश को रास्ता दिखाते हैं!

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