यह एक अजीब असंगति है कि पत्रकारिता का जब उत्कर्ष होता है तो वह साहित्य को स्पर्श कर लेती है लेकिन साहित्य का जब स्खलन होता है तो वह पत्रकारिता के स्तर तक पहुंच नही पाता। यह अजीब विडंबना है लेकिन क्या किया जाए?
आधी सदी से अधिक पत्रकारिता में बिताने के साथ साहित्य का व्यामोह भी तभी सम्भव हो पाता है जब आपकी प्राथमिकता साहित्य से जुड़े रहने की हो।
मैने भी जितना लिखा, उसमे अखबारी अंश अधिक रहा,तात्कालिकता से बच नही सका। उदाहरण के लिए 36 वर्ष तक स्वतंत्रभारत अखबार में काँव काँव कालम का दैनिक लेखन। इस कालम ने लोकप्रियता अवश्य दी लेकिन वक्त की थाप ने सब समेट लिया। धर्मयुग ,साप्ताहिक हिंदुस्तान,दिनमान,सारिका सहित कई अखबारों में खाली कुर्सी,तीरंदाज,घाघ लखनवी जैसे व्यंग्य अन्य व्यंग्य कालम भी तात्कालिकता के बोध से बच नही सके। ऐसा कुछ नही रच सका जो कालजयी लेखन को स्पर्श कर पाता।
अस्सी वर्ष की आयु में पहला व्यंग्य संकलन! इसके पीछे भी मित्रो का दबाव
अधिक हुआ।
हां, मेरे जीवन की उपलब्ध बस इतनी है कि कोई काम शुरू करने के बाद प्रभु कृपा से मैने छोड़ा नही। निरन्तरता बनाये रखी।
चाहे 66 वर्ष पूर्व माध्यम की स्थापना रही । 1988 से अट्टहास हास्य व्यंग्यपत्रिका का प्रकाशन छुटपुट शुरू हुआ पर मई 2000 से बिना विराम के 24 वें पड़ाव पर है। अट्टहास समारोह 1990 से अभी तक चल रहा है।
लेकिन "अंतरात्मा के जंतर मंतर"का प्रकाशन के पीछे ज्ञान भाई की शुभेच्छा ही प्रमुख बनी। जब कुछ पंक्तियों के बजाय डॉ ज्ञान चतुर्वेदी ने लम्बी भूमिका लिख कर भेजी तो मैने अनुरोध किया कि अतिशयोक्ति को कुछ कम कर दें तो उनके नाराज़ स्वर ने मुझे निःस्तब्ध कर दिया !उनका उत्तर था-"झूठी तारीफ मैं अपने बाप की नहीं करता। आप यही हैं।"
एक कोशिश मैने फिर भी करने की कोशिश की। मित्र भारती पाठक से पूछा, क्या कुछ छपने लायक है इसमें,उनका उत्तर था , बिल्कुल,अभी भी संकोच हैतो मैं छपने भेज देती हूँ। नतीजतन अंतरात्मा का जंतरमंतर लाचारी का संस्करण बन कर आया।
दूसरा पड़ाव टूटा आदरणीय राम स्वरूप दीक्षित ने अंतरात्मा के जंतरमंतर की खुली समीक्षा का आग्रह से। अनचाहे दबाव वश मैने पीडीएफ भेजा। लेकिन लेखक मित्रो की टिप्पणियों को पढ़कर हैरत में हूँ। शायद यह अगली पुस्तक के प्रकाशन का आधार बने।एक और संकोच टूटने
संजीव शुक्ल ने मेरी जड़ता तोड़ी है। कुछ अंशो तक संकोच भी। चर्चा के लिए पुस्तक की पीडीएफ फ़ाइल उपलब्ध कराने के लिए आदरणीय रामस्वरूप जी ने जब पीडीएफ मांगी तो उन्हें इनकार करने का साहस नही हुआ। अंततःइस जड़ता को तोड़ने के लिए भी रामस्वरूप दीक्षित जी का विशेष आभार।
हां एक और सूचना मेरी व्यंग्य कविताओं, व्यंग्य लेखों ,एक संस्मरण "आफ द रिकॉर्ड",-नमामि गंगे-नदी नही है गंगा की पांडुलिपि श्री गंगा नगर(राजस्थान)के किताब गंज प्रकाशन से प्रकाशनाधीन है। इसका श्रेय भी मेरे सभी मित्रो को है।
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