पिछले कुछ समय से समाज की सामूहिक सोच को प्रभावित करने में व्हाट्सएप की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो गई है। यह एक ऐसी स्थिति है, जहां तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ इतिहास की खोज करने वाले विद्वानों के कार्यों का मज़ाक बनाया जा रहा है। इसके साथ ही वर्चस्वशाली राजनीतिक ताकतें उनके लेखन और निष्कर्षों को दरकिनार कर अपने एजेंडे को स्थापित कर रही हैं।
यह स्थिति हाल ही में तब और अधिक स्पष्ट हुई, जब प्रख्यात इतिहासकार विलियम डालरिम्पल ने भारतीय समाज में व्हाट्सएप के प्रभाव के बारे में चिंता जताई। उन्होंने कहा, “यह भारतीय अध्येताओं की असफलता है कि वे आम जनता तक नहीं पहुँच सके हैं। इसी कारण व्हाट्सएप जैसी धारणाएं समाज में घर कर गई हैं” डालरिम्पल ने आगे बताया कि इस झूठे नैरेटिव का परिणाम है कि लोग मानने लगे हैं कि आर्य भारत के मूल निवासी थे, प्राचीन भारत में समस्त वैज्ञानिक ज्ञान मौजूद था, और यहां तक कि ‘पुष्पक विमान’ से लेकर ‘प्लास्टिक सर्जरी’ तक की खोज हो चुकी थी।
व्हाट्सएप से प्रसारित धारणाओं ने समाज में यह भ्रांति फैलाई है कि इस्लाम और ईसाई धर्म विदेशी हैं, मुस्लिम शासकों ने केवल अत्याचार किए, और भारत में इस्लाम तलवार के बल पर फैला। यह भी प्रचारित किया जा रहा है कि महात्मा गांधी हिन्दू विरोधी थे और देश को स्वतंत्रता गांधीजी के नेतृत्व में नहीं बल्कि अन्य कारणों से मिली।
हालांकि, यह नैरेटिव नया नहीं है। इसे दशकों से हिंदू राष्ट्रवादी संगठनों द्वारा फैलाया जा रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और उसके परिवार के विभिन्न संगठनों ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान और उसके बाद भी यह सांप्रदायिक इतिहास गढ़ने का प्रयास किया।
ब्रिटिश शासनकाल में सांप्रदायिक इतिहास लेखन को बल मिला। उस समय जेम्स मिल की “हिस्ट्री ऑफ इंडिया” और इलियट व डॉसन की “हिस्ट्री ऑफ इंडिया एज टोल्ड बाय हर हिस्टोरियंस” जैसी पुस्तकें प्रकाशित हुईं। ये पुस्तकें भारतीय इतिहास को हिंदू, मुस्लिम और ब्रिटिश कालों में विभाजित करती थीं।
आरएसएस ने इस नैरेटिव को आगे बढ़ाने के लिए अपने विभिन्न मंचों का उपयोग किया। इसके लिए सरस्वती शिशु मंदिर, एकल विद्यालय, और आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गेनाइज़र और पाञ्चजन्य का सहारा लिया गया। यहां तक कि लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेताओं ने सरकारी संस्थानों में इस एजेंडे को बढ़ावा दिया।
आरएसएस और भाजपा के नेतृत्व में शिक्षा का भगवाकरण एक गंभीर मुद्दा बन चुका है। दीनानाथ बत्रा द्वारा लिखित पुस्तकें, जो ऐतिहासिक तथ्यों के बजाय पौराणिक कथाओं पर आधारित हैं, गुजरात के हजारों स्कूलों में पढ़ाई जा रही हैं। 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद इस अभियान ने और भी जोर पकड़ा। स्कूलों की पाठ्यपुस्तकों को नए सिरे से लिखने की प्रक्रिया तेज हो गई।
आज, अधिकांश मीडिया पर बड़े कॉर्पोरेट घरानों का नियंत्रण है, जो भाजपा के समर्थक माने जाते हैं। इसके साथ ही, भाजपा का आईटी सेल और व्हाट्सएप नेटवर्क उसके राजनीतिक नैरेटिव को व्यापक स्तर पर फैलाने में सहायक हैं। इस पर स्वाति चतुर्वेदी ने अपनी पुस्तक “आई वाज़ ए ट्रोल” में विस्तार से चर्चा की है।
हालांकि, गंभीर इतिहासकारों ने हमेशा तथ्य आधारित लेखन को प्राथमिकता दी है। रोमिला थापर, इरफान हबीब और बिपिन चंद्र जैसे विद्वानों ने प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक भारतीय इतिहास पर महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उनकी किताबें एनसीईआरटी के पाठ्यक्रम का हिस्सा रही हैं, लेकिन भाजपा के सत्ता में आने के बाद इन्हें धीरे-धीरे हटाया जा रहा है।
व्हाट्सएप की सफलता का कारण केवल तकनीक नहीं है। इसका असली कारण है दक्षिणपंथी राजनीति का बढ़ता प्रभाव, जो अपने एजेंडे को सामाजिक सोच का हिस्सा बनाने में सक्षम हो गई है। यह केवल इतिहासकारों की असफलता नहीं है, बल्कि एक संगठित राजनीतिक प्रयास है, जिसने व्हाट्सएप जैसे माध्यमों को अपना औजार बना लिया है।
अगर समाज को इस छद्म इतिहास और पौराणिक धारणाओं से बचाना है, तो तार्किक सोच और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देना होगा। इतिहासकारों को आम जनता और विशेषकर युवाओं तक अपनी बात पहुँचाने के लिए अधिक प्रयास करने होंगे।
सिर्फ इतिहासकारों पर निर्भर रहने के बजाय, सामाजिक और राजनीतिक संगठनों को भी इस दिशा में काम करना होगा। व्हाट्सएप की इस चुनौती का सामना करने के लिए हमें समावेशी विचारधारा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और भारतीय राष्ट्रवाद के मूल्यों को पुनर्जीवित करना होगा। तभी यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि हमारी सामाजिक सोच गलत धारणाओं और सांप्रदायिक विचारों के बजाय तर्क और तथ्यों पर आधारित हो।
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(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया. लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)
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