ठीक तिरपन वर्ष हुये मेरे पत्रकारी जीवन का प्रथम दशक था। अहमदाबाद के आश्रम रोड पर हमारा टाइम्स आफ इंडिया का दफ्तर था ।
गुजरात में मेरी पहली खास ऐतिहासिक रिपोर्टिंग का वह मौका था। बापू की दाण्डी मार्च। (12 मार्च 1930) की तिरलीसवीं जयंती थी। ब्रिटिश फिल्म निर्माता रिचर्ड एटेनबरो ने अपनी कृति ''गांधी'' ने इस सत्याग्रह की घटना का अत्यंत मार्मिक चित्रण किया है। यह फिल्म 1982 में प्रदर्शित हुयी थी।
तभी बस चार वर्ष पूर्व (1968) मुंबई मुख्यालय से नये संस्करण हेतु मेरा तबादला अहमदाबाद कार्यालय किया गया था। मेरा भाग्य था कि वह गांधी शताब्दी वर्ष था। पत्रकारिता का नया दशक शुरु करने का मुझे अवसर मिला था। ठीक चार वर्ष पूर्व (फरवरी 1928) चालीस किलोमीटर दूर बारडोली में वल्लभभाई पटेल का किसान सत्याग्रह विपुल सफलता लिये ख्यात हुआ था। चौरी चौरा की हिंसा से बापू निराश हो गये थे। मगर सरदार पटेल ने ढांढस बंधाया। यह तय हुआ कि साबरमती—दांडी सागरतट की तीन सौ किलोमीटर की पदयात्रा हो। ब्रिटिश साम्राज्य से पहली पुरजोर टक्कर थी। ये अंग्रेज शासक ब्रिटेन में बना महंगा नमक मुनाफे के दाम पर भारतीय ग्राहकों को खरीदने पर विवश करते थे। देश में बने नमक पर ज्यादा टैक्स लगाकर महंगा कर डाला था। हवा और पानी की तरह नमक भी अनिवार्य होता है जीवन हेतु।
राजनीति में बापू पुराने खिलाड़ी थे। दक्षिण अफ्रीका में सिविल नाफरमानी(सविनय अवज्ञा) का सफल प्रयोग कर चुके थे। दाण्डी मार्च के बस ढाई माह पूर्व ही रावी नदी के तट पर, लाहौर में, (19 दिसम्बर 1929 को) जवाहरलाल नेहरु की अध्यक्षता में ''पूर्ण स्वराज'' का प्रस्ताव पारित हुआ था। वायसराय लार्ड (एडवर्ड वुड) इर्विन को वह प्रस्ताव भेजा गया था। फिर बापू का वह चेतावनीभरा पत्र भी (2 मार्च 1930) भेजा गया था कि नमक पर कर हटायें वर्ना बागी लोग इस कानून की धज्जियां उड़ा देंगे। तभी रेजिनाल्ड रेनाल्ड, 24—वर्षीय अंग्रेज पत्रकार और उपनिवेशवाद—विरोधी योद्धा, साबरमती आश्रम आया था। बापू ने उसके हाथों लार्ड इर्विन के नाम पत्र भेजा। इसमें लिखा था : ''राजनीतिक दृष्टि से हमारी स्थिति गुलामों से अच्छी नहीं है, हमारी संस्कृति की जड़ ही कमजोर कर दी गयी है। हमारा हथियार छीनकर हमारा सारा पौरूष अपहृत कर लिया गया है।'' आगे गांधीजी ने इर्विन को लिखा : ''इस पत्र का हेतु कोई धमकी देना नहीं है। यह तो सत्याग्रही का साधारण और पवित्र कर्तव्य मात्र है। इसलिये मैं इसे भेज भी खासतौर पर एक ऐसे युवा अंग्रेज मित्र के हाथ रहा हूं, जो भारतीय पक्ष का हिमायती है, जिसका अहिंसा पर पूर्ण विश्वास है और जिसे शायद विधाता ने इसी काम के लिये मेरे पास भेजा है।''
बापू ने महाबली ब्रिटिश साम्राज्य को चुल्लुभर खारे पानी से हिला दिया। देशभर में जगह—जगह नये नमक कानून का मखौल बना। खुले आम उल्लंघन किया गया। प्रयाग में जवाहरलाल नेहरु ने सीड से दीवाल पर लगे (नोना से) नमक बनाकर बेचा। जहां भी जिसे भी क्षार तत्व मिला, उसे पका कर नमक बनाया गया।
लंदन से आयातीत नमक की पुडियायें विक्रय केन्द्रों में पड़ी रहीं, बिना बिके। वे गलतीं ही रहीं। दाण्डी से बस पच्चीस मील दूर सरकारी नमक भण्डारगृह (धरसाना) पर सत्याग्रही लोगों ने धावा बोला। मणिलाल गांधी, सरोजनी नायडू (यूपी की 1947 में राज्यपाल) और अब्बास तैयबाजी के साथ थे, कोलकाता से आये मारवाडी सत्याग्रही हीरालाल लोहिया, जिनके पुत्र थे राममनोहर लोहिया। ये सब क्रूर पुलिसिया जुल्म के शिकार हुये।
दाण्डी मार्च पर चन्द साम्राज्य—समर्थक अंग्रेजी भाषाई दैनिकों ने खिल्ली भी उड़ाई थी कि ''बस मुट्ठीभर सोडियम क्लोराइड रसायन से ये गुलाम भारतीय लोग महापराक्रमी ब्रिटिश राज को उखाडेंगे?'' मगर एक ब्रिटिश फौजी कमांडर ने भांप लिया कि बापू का दाण्डी मार्च सम्राट को प्रथम जबरदस्त चुनौती है। कराची के राष्ट्रवादी दैनिक ''सिंध आब्जर्वर'' के संपादक कोटमराजू पुन्नय्या से एक आला अंग्रेज जनरल साहब ने कहा था, ''गांधी को साबरमती आश्रम में ही गिरफ्तार कर लेना चाहिये था। उनका मार्च, हमारी सैनिक दृष्टि में, एक विजयी सेनापति द्वारा मुक्त कराये गये भूभाग का सर्वेक्षण करना जैसा था।''
दक्षिण गुजरात में गोरों का राज व साम्राज्य कुछ अवधि तक लुप्त हो गया था। चौरी चौरा सत्याग्रह की विफलता से हुयी क्षति की पूरी भरपाई हो गयी। भारत में विद्रोह नयी जवानी में उभरा। दाण्डी सागर तट से एक बिगुल बजा था जो अगस्त 1942 में खूब जोशीला हुआ और फिर पांच साल के अन्दर ही अंग्रेज शासक भारत छोड़कर भाग ही गये।
तो दाण्डी मार्च को तिरानवे साल बाद स्मरण कर राष्ट्रीय स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव को सालभर मनाने की तैयारी जोरदार हो नहीं चाहिए । आवाज गूंजे : ''दम है कितना दमन में तेरे, देखा है और देखेंगे।'' (शब्द 800)
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